पलायन - शौक या मजबूरी।

Image
ब्लॉग प्रेषक: राजीव भारद्वाज
पद/पेशा: व्यंगकार
प्रेषण दिनांक: 28-01-2023
उम्र: 35
पता: गढ़वा झारखंड।
मोबाइल नंबर: 9006726655

पलायन - शौक या मजबूरी।

पलायन - शौक या मजबूरी।


"भाइयों और बहनों, 

मेरी सरकार बनते ही राम राज्य वापस आएगा, भरोसा रखिए। हर नौजवान जो अपनी ऊर्जा को नाहक ही बर्बाद कर रहे हैं, उनको अपने घर में काम मिलेगा, बहनों के लिए हर साल पचास हजार रुपए हमारी सरकार रक्षाबंधन के दिन उपलब्ध कराएगी। खुशियां लोटा भर भर के आपको हमारी सरकार लौटाएगी।

हमारी सरकार आम लोगों की सरकार होगी, नौकरी, सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा और अपराध नियंत्रण पर हमारी सरकार आपके सोच से भी बेहतर काम करेगी। बस एक बार हमें मौका दें। मैं शुरू से ही शिक्षा के विकास के लिए कुछ करना चाहता था, लेकिन दुर्भाग्य देखिए की मैं आठवीं से आगे पढ़ नही पाया। भाइयों तब मैने सोचा की क्या हुआ जो पढ़ लिख नही पाया, अब जनसेवा करूंगा और अगर मुझे मंत्री बनने का मौका मिला तो मैं शिक्षा का ऐसा दीप जलाऊंगा की आने वाले सदियों तक इस दीप को कोई बुझा नही पाएगा। बस आप सब अपना बहुमूल्य वोट मुझे दीजिए और अपने तथा अपने आने वाले पीढ़ियों के लिए कुछ कर जाइए।

 मलु राम अपने राज्य के नेता का भाषण सुन कर अपने पुराने दिन में लौट पड़ा। मैट्रिक पास करने के बाद जब घर पर खाने के लाले पड़े थे, और आस पास कोई काम भी न था तो बिना मन से, उसने बाहर जाने का फैसला किया। मजदूरी करेंगे, चार पैसे आयेंगे और फिर शादी होगी और मैं बाप बनूंगा। और बाप बनने के बाद मैं अपने बच्चे को शिक्षा दूंगा, बच्चा मेरा अधिकारी बनेगा और बुढ़ापा मेरा सुख चैन से कटेगा। कितना आसान होता है खुली आंखों से सपना देखना, लेकिन इन सपनों को साकार करने में उम्र बीत जाती है।

दूसरी तरफ बगेदन, जो अभी अभी मैट्रिक का परीक्षा पास किया था, वो हिंदी सनिमा से ज्यादा प्रभावित था। उसे लगता था अगर वो इसी उम्र में घर छोड़ देगा तो आने वाले वर्षों में अपनी फरारी से घर लौटेगा और दुनिया वालों को दिखला देगा की बेटा और लोटा की किस्मत बाहर ही चमकती है।

 एक तरफ मलू राम विरह की वेदना और पेट की भूख को शांत करने के लिए मजबूरी में पलायन किया और दूसरी तरफ शौक को शांत करने के लिए बगेदन।

बागेदन शातिर और गुलशन ग्रोवर टाइप का था और मलू बलराज साहनी टाइप का दुखियारा। दोनो ने एक ही स्टेशन से ट्रेन पकड़ा।

 ट्रेन का जनरल डब्बा, कोंचवा कोच भीड़। पैर रखने तक का जगह नहीं। शौचालय में छः लोग एकदम सावधान की मुद्रा में खड़े थे। दूसरी तरफ दो सीटों के बीच में लूंगी को झूला बनाकर लोग उसमे झूल रहे थे, हर दूसरे गलियारे में इस प्रकार का झूला लगा था। एक तो ट्रेन की हिचकोली दूसरी तरफ झूला का हठखेली। अरे केकर लइका उपरे से मूत रहा है जी, हम सोचे की हमरा पसीना निकल के हमर होंठ तक पहुंच रहा है, लेकिन नही, कुछ ज्यादे नमकीन लगने पर ऊपर देखे तो लइका मूत रहा था। 

जोर से लगल था मूत दिया, लइका ही तो है, उतरे में बन ही नही रहा है, शौचालय तक कैसे जाएं।

 ई हाल था जनसाधारण एक्सप्रेस का, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट था की साधारण जनों का ट्रेन। साला इतना न साधारण था की मूंगफली और पेशाब की धार के साथ साथ  पसीने और पेट से निकलने वाले गैस की दुर्गंध से पूरा वातावरण नरक का आभास दे रहा था। एक बात और थी की इस ट्रेन में आदिम जनजाति की दस पंद्रह बच्चियां जिनकी उम्र आठ से दस साल थी वो भी दलाल के माध्यम से देश की राजधानी में सभ्रांत घरों में मजदूरी करने जा रही थी। इस उम्र की बेटियां हमारे घरों में खुद से पानी तक लेकर नही पीती हैं और वो मासूम दूसरे घरों में चौका चूल्हा करने चली थी। उनकी आंखों से अविरल पानी की धार बता रही थी की उन्हे उनकी जननियों से जबरदस्ती जुदा कर दिया गया है। कहां है सरकार और उसकी योजनाएं। खैर कागज पर तो दिखती है भले जमीन पर ना दिखे। मलू को ये देख कर आंख भर आई। ट्रेन में जाने वाले अस्सी प्रतिशत लोग अपने घरों से पलायन कर रोटी की तलाश में निकले थे।

 बगेदन तो खैनी पर खैनी रगड़कर यात्रा में एक अलग दुनिया बसा लिया था, टीटी को देखते ही अपने जेब से पुराना टिकट निकाला और उसे भिगाया, फिर टीटी के मांगने पर टिकट को कोना से पकड़ा और टीटी को देने लगा तो टीटी बोला ई भीगा हुआ क्यों है, बागेदन बोला जी मूत रहे थे हाथ में टिकट था एकरे पर मूता गया, देखिए। भागो, टिकट भी संभाल के नही रखने आता है, तोर पेशाब छुए हम।

माई हम पूड़ी सब्जी खाम, ले दे न। एक छोटे बच्चे ने अपनी मां से कहा तो मां ने कहा, घर वाला भात खा ले बेटा, कल पहुंच के जब कमबऊ त पूड़ी खा लिहा। सच कहूं तो ये देख मलू की आंख फिर भर आई और उसे अपने प्रिय नेता का भाषण याद आया। खैर सत्ता और प्रतिपक्ष की बात यहां न करें तो ही अच्छा।

देश की राजधानी पहुंचते ही बगेदन ने लंगर खोजना शुरू किया और गुरुद्वारा दिखने पर दबाकर भरपेट भोजन ग्रहण किया। और उधर मलू बेचारा काम की तलाश में भूखे प्यासे दर दर भटकते रहा। उसे लगता की कम से कम किसी नेता का कार्यकर्ता ही बन जाता, क्या होता की नेता का चालीसा रोज गली मुहल्ले में दिन में पचास बार पढ़ना पड़ता, भूख से पेट में दर्द तो नहीं होता। कुत्ते जैसा रोटी फेंक कर मिलता, हड्डी समझ कर दिन भर चबाता और मुंह में हड्डी चुभ जाने पर अपने ही खून के स्वाद से मदमस्त होकर जीवन जीता। लेकिन मलू में आत्मसम्मान था वो चालीसा पढ़ने के लिए जन्म नही लिया था, उसे भुजाओं पर भरोसा था, वो कर्म की पूजा करता था। एक दिन कंपनी को मजदूर सप्लाई करने वाला एक ईमानदार इंसान से उसकी मुलाकात हुई, उसने उसे एक टायर बनाने वाले कंपनी में दैनिक मजदूर के रूप में काम दिलाने का वादा किया। दूसरे दिन मलू इस कंपनी में गेट के बाहर लाइन में लग कर अंदर जाने को तैयार खड़ा था, और सप्लायर महोदय उसके बगल में। यहां यह बताना आवश्यक है की एक बार गेट के अंदर जाने के बाद आठ घंटे, अंदर ही चिमनी के पास रह कर मजदूरों को काम करना अनिवार्य था, किसी भी परिस्थिति में बाहर निकलना नामुमकिन था। बेचारे मलू को लाइन में ही पेशाब लगा और उसने अपनी जगह सप्लायर महोदय को खड़ा किया और बोला दो मिनट में आते हैं। बेचारे को अपने पायजामा का नाड़ा खोलने में ही पांच मिनट लग गया और उधर सप्लायर अंदर। बेचारा सप्लायर आठ घंटा गर्म चिमनी में काम करते हुए मलू को गरियाया। खैर अगले दिन से मलू का काम शुरू।

 मौज तो बगेदान की थी, कभी मंदिर का लंगर कभी गुरुद्वारे का लंगर, कभी शादी का दावत तो कभी अस्पताल का भोजन। वो एक अलग ही मौज में था, न तो उसे घर की फिक्र न उसे भविष्य की चिंता।

  जब भी रुपए पैसे की जरूरत होती तो राष्ट्रवादी पार्टी और सेकुलर पार्टी में जिंदाबाद मुर्दाबाद करता, उसे दो चार रुपए की आमदनी हो जाती थी।

 मलू काम करते करते इतना अनुभवी हो गया की आज वो मजदूरों का सप्लायर बन गया। महीने का लाख रुपया तो उसे अपने प्रदेश के मजदूरों से ही मिल जाता था। बगेदन का भी राज था, वो राजा पैदा हुआ था, उसे काम करने की क्या जरूरत। 

लेकिन धन्यवाद के सबसे बड़े हकदार, हमारे जनप्रतिनिधि हैं जिन्होंने अगर अपने प्रदेश में ही उचित लोगों को काम दिया होता तो आज वो खूब से खूब दस हजार कमाते लेकिन मलू आज कहां से कहां पहुंच गया। और जनप्रतिनिधियों का क्या कहना, वो तो कामयाबी के इस स्तर पर पहुंच गए हैं की उनकी दस से पंद्रह पीढ़ी भी अगर कुछ न करे तो भी किसी प्रकार का कोई दिक्कत नही होगा।

बगेदन और जनप्रतिनिधि, दोनो एक समान क्योंकि दोनो मन से राजा ही पैदा हुए और राजा ही मरेंगे लेकिन अफसोस एक इतिहास बनेगा और दूसरा अबूझ पहेली।

बाकी सब फर्स्ट क्लास है।

Share It:
शेयर
— आपको यह ब्लॉग पोस्ट भी प्रेरक लग सकता है।

नए ब्लॉग पोस्ट