शाम की चाय
संस्मरण
शाम की चाय
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अहमदाबाद की प्रचंड गर्मी और उस पर मई का महीना था। हम सब बैंगलुरू से अहमदाबाद आए थे। मेरे बेटा का तबादला हुआ था। उस वक्त मैं और मेरे पति उसी के पास थे। मई और जून के महीने में, मैं सकोरे में पानी भरकर बरामदे में रख देती थी। अगर किसी दिन मैं भूल जाती, तो चूं -चूं की आवाज सुनाई देते ही, मैं सारा काम छोड़कर सकोरे में पानी भरकर रख देती थी। शाम को अपने पति के साथ जब चाय लेकर बरामदे में बैठती, तो सकोरा खाली देखकर मेरे होंठों पर मुस्कराहट फैल जाती । जुलाई का महीना आते ही गर्मी की तपिश कम हो गयी थी।
वातावरण में थोड़ी नमी भी आ गयी थी। हमारे फ्लैट के एक तरफ बहुत लंबी - चौड़ी जमीन खाली थी। जिस पर कुछ लोगों का फार्म- फाउस था। जहाँ पर कभी-कभी हमें मोर दिखाई देते थे। वर्षा होने पर वे पंख फैलाकर नाचते थे। जिसे देख कर बहुत आनंद आता था।
एक दिन बहुत तेज बारिश हुई। शाम को जैसे ही मैं बरामदे में चाय लेकर बैठी, तो देखती हूँ, कि एक- दो चिड़िया यहाँ -वहाँ फुदकती, फिर गड्ढे के पानी में अपने को डुबोती, फिर बाहर निकल कर अपने पंख फैलाकर पानी को झाड़ती। धीरे -धीरे बहुत सी चिड़िया वहाँ आ गई। सभी पहले मिट्टी में फुदकती, फिर अपने को पानी में डुबाती। फिर पानी से निकल कर पंख फैलाकर, पंख के पानी को झाड़ती तो, सभी पानी में फुदकती हुई बहुत प्यारी लगती थी। मैं रोज़ शाम को चाय के साथ बरामदे में बैठकर मैं इस दृश्य का आनंद लेती थी।
मुझे अहमदाबाद से राँची आना था। मैं सामान को व्यवस्थित करने में लगी थी। समय का पता ही नहीं चला, और घड़ी की सुइयां पाँच बजे से आगे बढ़ चुकी थी। अचानक बरामदे से चूं -चूं की आवाज आने लगी। मैं दौड़ कर बरामदे में गयी, तो देखती हूँ, कि छः से सात छोटी- छोटी चिड़ियाँ बरामदे में बैठकर चूं- चूं कर रही है। मेरे वहाँ जाने से कोई उड़ी नहीं,और मेरी ओर देख कर चूं -चूं करने लगी। मैं कुर्सी पर बैठ गई। मेरे बैठते ही फिर उड़ कर गड्ढे के पानी में खेलने लगी। मैं समझ भी नहीं पाई कि ये छोटी-छोटी प्यारी सी चिड़िया ,कब मेरे शाम के चाय की संगिनी बन चुकी थी। सुबह छः बजे मैं घर से निकल चुकी थी। नौ बजे की मेरी फ्लाइट थी। राँची में शाम की चाय अब मुझे उन प्यारी चिड़ियों के बिना फीकी लगती है,और मेरा मन उस बरामदे तक पहुँच जाता है। प्यारी -प्यारी चिड़ियों की याद आते ही मेरे होंठों पर मुस्कराहट आ जाती है।
मनुष्य ही नहीं पशु - पक्षी, पेड़ - पौधे, पहाड़, झरने, झील, नदी का किनारा, उगता सूरज, ढलती शाम और भी बहुत कुछ जो प्रकृति ने हमें दिया है। हम से प्यार करते है। हम से जुड़े रहते है। बस हमें महसूस करने की जरूरत है। यह सब हमारे लिए नायाब तोहफा है।
कल्याणी झा कनक
राँची, झारखंड
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