ब्लॉग प्रेषक: | अंगद किशोर |
पद/पेशा: | इतिहासकार, लेखक एवं शिक्षक |
प्रेषण दिनांक: | 22-05-2022 |
उम्र: | 15-01-1965 |
पता: | जपला, झारखण्ड |
मोबाइल नंबर: | 8540975076 |
आदिवासी स्वाभिमान का प्रतीक : राजा मेदिनी राय
आदिवासी स्वाभिमान का प्रतीक : राजा मेदिनी राय
अंगद किशोर
पलामू के चेरो राजवंशोत्पन्न महाराज मेदिनी राय का नाम सर्वाधिक पराक्रमी, प्रजावत्सल,न्यायकारी तथा लोकप्रिय राजा के रूप में आदर के साथ लिया जाता है।12वीं शताब्दी में जपला (पलामू) के प्रतापी खरवार शासक प्रताप धवल देव के बाद मेदिनी राय को पलामू का सर्वाधिक लोकप्रिय शासक होने का गौरव प्राप्त है।यह बात दीगर है कि खरवार शासकों को एक स्वतंत्र शासक का दर्जा बाद में हासिल हुआ, जबकि राजा मेदिनी राय का दर्जा प्रारंभ से ही एक स्वतंत्र शासक के रूप में था।दो मुगल बादशाहों-जहांगीर (1605-1627 ई) तथा शाहजहां (1627-1658 ई) के समकालीन मेदिनी राय ने 1619 ई से 1635 ई अर्थात 16 वर्षों तक पलामू पर अखंड राज किया। उसने पलामू राज्य का न केवल चतुर्दिक विस्तार किया, अपितु प्रजा की सुख-समृद्धि का विशेष ख्याल भी रखा। उसने राज्य को धन-धान्य से परिपूर्ण बनाने तथा चहुंमुखी विकास के लिए दिन-रात एक कर दी। अपने अच्छे कार्यों की बदौलत जीते-जी जनमानस में लोकप्रियता की हदें पार कर जाना, राजा मेदिनी राय की सबसे बड़ी कामयाबी थी। इतने वर्षों के बाद भी किंवदंती के रूप में जनमानस में जीवित और प्रतिष्ठित रहना, एक राजा के लिए गौरव की बात है। यूं तो चेरो राजवंश में कई प्रतापी राजा हुए,मगर मेदिनी राय का शासन काल गौरव एवं वैभव का अप्रतिम मिसाल रहा। निश्चित रूप से युग-युगांतर तक मेदिनी राय का नाम जनमानस के हृदय में प्रस्थापित रहेगा।
राजा मेदिनी राय का शासनकाल
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अबतक के इतिहास की पुस्तकों में चेरो राजवंश के संस्थापक भगवंत राय का कार्यकाल 1613 ई से 1630 ई,अनंत राय का कार्यकाल 1630 से 1661 ई तथा राजा मेदिनी राय का कार्यकाल 1662 से 1675 ई(पलामू का इतिहास ,लेखक-हवलदारी रामगुप्त हलधर, पृष्ठ संख्या 31-39) तक माना जाता है,मगर दुर्भाग्य की बात यह है कि काल निर्धारण किंवदंतियों के आधार पर किया गया है। उक्त पुस्तक में हवलदारी रामगुप्त हलधर ने कानूनगो अखौरी चक्रपाणि राम तथा विश्रामपुर के चेरो रियासत के दीवान अखौरी शिवचरण राम द्वारा किंवदंतियों के आधार पर संयुक्त रूप से लिखित पलामू के इतिहास की चर्चा की है,जो 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखी गई है। सुनी-सुनाई बातों के आधार पर हस्तलिखित इस पुस्तक में ऐतिहासिक तथ्यों एवं साक्ष्यों को दरकिनार कर दिया गया है। आश्चर्य की बात यह है कि चेरो राजवंश के चार-चार शिलालेख तथा मुकम्मल मुगलिया दस्तावेज उपलब्ध होने के बावजूद चेरो राजवंश के इतिहास-लेखन में भयंकर भूलें की गईं। तथ्य कुछ और कहते हैं और इतिहास कुछ और। सही बात यह है कि सही तथ्यों को न कभी खंगाला गया और न ही कभी उनका शोधपरक अध्ययन किया गया।यही कारण है कि प्रारंभिक चेरो-राजाओं का काल- निर्धारण शिलालेखों तथा ऐतिहासिक दस्तावेजों से मेल नहीं खाते।
पुराना पलामू किला के निकट स्थित एक पहाड़ी पर नया पलामू किला का निर्माण किया गया है। इसी किले की नागपुरी दरवाजे की दोनों चौखटों पर दो शिलालेख उकेरित हैं। पहला शिलालेख नागरी लिपि और संस्कृत भाषा में 22 पंक्तियों में उकेरित है और दूसरा अरबी लिपि एवं फारसी भाषा में 8 पंक्तियों में अंकित है।इन शिलालेखों की खोज 1932-33 ई में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पुरातत्त्ववेत्ता जी.सी.चंद्रा ने की थी (कार्पस आफ अरेबिक ऐंड पर्शियन इंस्कृप्शंस आफ बिहार, लेखक-अहमद कयामुद्दीन,वर्ष 1973, पृष्ठ संख्या 230-231)। पहला शिलालेख नये किले का शिलान्यास का है, जबकि दूसरा निर्माणोपरांत उद्घाटन का। भूल के मूल में कदाचित यही कारण है कि संस्कृत भाषा में लिखे गये इस शिलालेख को किसी ने पढ़ने की जरूरत नहीं समझी। सोन घाटी क्षेत्र के चर्चित इतिहासकार और गवेषक डॉ श्याम सुन्दर तिवारी ने इस भूल को पहली बार पकड़ा। उन्होंने न केवल नागरी लिपि और संस्कृत भाषा में लिखित शिलालेख के एक-एक शब्द को पढ़ा, बल्कि संस्कृत भाषा के विद्वानों के सहयोग से उसका हिंदी रूपांतर भी किया। फारसी शिलालेख का पाठ पहले से ही कयामुद्दीन अहमद की पुस्तक में अंकित है। "अर्णव"जर्नल(Vol 9,वर्ष 2020, पृष्ठ संख्या 219-241) में प्रकाशित डॉ श्याम सुन्दर तिवारी का शोध-पत्र-"पलामू का मध्यकालीन जनजातीय चेरो राजवंश : नवीन अभिलेखीय साक्ष्य"में शिलालेखों एवं ऐतिहासिक दस्तावेजों के सुसंगत तथ्यों के आधार पर अबतक प्रचलित चेरो राजवंश के इतिहास का कच्चा चिट्ठा खोल दिया है।ताज्जुब इस बात का है कि मजबूत साक्ष्यों के बावजूद इतिहासकारों ने ऐसी भूलें क्यों की ? पलामू के इतिहासकार महावीर वर्मा इस तथ्य को जानते थे। बावजूद इसके, अपनी कृति "कोयल के किनारे-किनारे" में ह.रा.हलधर द्वारा किया गया काल निर्धारण का ही उन्होंने अनुसरण किया।
ऊपर वर्णित शोध-पत्र में पहला शिलालेख, जो संस्कृत भाषा में है,का अनुवाद इस प्रकार अंकित है--"संवत 1680 के माघ माह कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि बुधवार को च्यवन ऋषि के पवित्र कुल में महाराज उदव्रत के पुत्र महाराज भगवत्त (राय), जिनसे शत्रु संतप्त रहे, उनके हाथों से वर्तमान (राजवंश) की स्थापना हुई। तत्पश्चात उनके पुत्र अनत्त (राय) राजा हुए, जिनके सौभाग्यशाली आत्मज बालकलरव करते रहे और वंश विस्तार होता रहा।इन(वंशजों) में से एक राजा मेदनी राय इंद्र के समान हैं, सैंकड़ों वीर-धीर-धराधीशों में प्रमुख तथा शक्तिशाली हैं और जिनका प्रताप महेंद्र (पर्वत) के समान (जग) विख्यात है, उनके द्वारा दुर्ग(किला) का स्थापन किया गया। सिंधु के समान संपत्ति (निधि) वाले, चंद्रमा के समान करुणा बरसाने वाले, कालिमा (अंधकार) को नाश करने वाले दक्ष(चतुर) राजा द्वारा मनन(विचार) कर अनुशंसित विक्रम वर्ष में (दुर्ग) की स्थापना कराई गई और प्रतिष्ठापन अनुष्ठान संपन्न हुआ। इससे दुर्गम (स्थान या पर्वत शिखर) पहुंच में (सुगम) और समृद्धशाली हो सकेगा ।।वनमाली मिश्र।।"
इस शिलालेख से मुख्य रूप से चार बातें स्पष्ट होती हैं। पहला यह कि चेरो राजवंश का संस्थापक महाराज उदव्रत के पुत्र भगवत राय था।दूसरा यह कि अनंत राय और मेदिनी राय के मध्य चेरो राजवंश के और राजे हुए। अपेक्षाकृत कम प्रभावशाली होने के कारण शिलालेख में उनका नाम देना मुनासिब नहीं समझा गया। तीसरी बात यह कि नया पलामू किला का शिलान्यास राजा मेदिनी राय ने माघ बदी 5,संवत 1680 अर्थात 8 जनवरी 1624 में किया । चौथी बात यह कि राजा मेदिनी राय ने काफी संपत्ति अर्जित कर ली थी।
किले के निर्माण में दस वर्ष लगे। किला के उद्घाटन के समय मेदिनी राय ने उद्घाटन-शिलालेख फारसी भाषा में उकेरित करवाया।उस समय देश भर में राज-काज की भाषा फारसी थी।शायद इसीलिए उसने अपना दूसरा शिलालेख फारसी में लिखवाया।इस शिलालेख का हिंदी पाठ इस प्रकार है--" श्री रामचन्द्र जी सिद्धि।अल्लाहु अकबर(भगवान महान है)।यह किला पर्वत शिखर पर बनवाया है। महाराज राजा श्री मेदिनी राय ने। उनके अग्रगामी (पूर्वज) श्री अनत्त राय पुत्र भगवत्त राय संवत सोलह सौ नब्बे वर्ष के माह---- कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि वृहस्पतिवार तदनुसार 1043 वर्ष(हिजरी) के प्रतिष्ठित माह रजब के 18 वें दिन (15 फरवरी 1634 ई)को लिखित।" इस शिलालेख से मुख्य रूप से तीन बातें स्पष्ट होती हैं। पहला यह कि महाराज मेदिनी राय भगवान राम के उपासक अर्थात वैष्णव है।दूसरा यह कि अनत्त राय अपने पिता भगवत्त राय की अपेक्षा ज्यादा प्रभावशाली और लोकप्रिय था।इस शिलालेख में भगवत्त राय का नाम राजा के रूप में नहीं, बल्कि अनत्त राय के पिता के रूप में अंकित है। तीसरी यह कि नया पलामू किला का उद्घाटन राजा मेदिनी राय ने 15 फरवरी 1634 ई को किया।
कहा जाता है कि एक भूल कई भूलों को जन्म देती है। चेरो राजवंश के इतिहास-लेखन में इसी प्रकार की गलतियां हुई हैं। इतिहासकारों ने राजा मेदिनी राय को अनंत राय का पुत्र बतलाया है,मगर संस्कृत-शिलालेख के अनुसार अनंत राय, मेदिनी राय का पिता नहीं, अपितु पूर्वज है। डॉ श्याम सुन्दर तिवारी ने अपने शोध-पत्र में चेरो राजवंश से संबंधित बांदू(रोहतास जिला अंतर्गत सोन नदी के बायें तट पर अवस्थित तथा पलामू के पुरातात्विक महत्व के गांव कबरा कलां के सामने) के दो शिलालेखों की भी चर्चा की है, जिसमें 1566ई में अनंत राय,1586 में अनंत राय और प्रताप राय तथा 1636 ई में प्रताप रूद्र का उल्लेख है।इसी शिलालेख के आधार पर डा तिवारी ने पलामू में चेरो राज्य का संस्थापक भगवंत राय को शेरशाह कालीन माना है। लेखक अंगद किशोर ने भी अपनी कृति " चेरो राजवंश का इतिहास" में भगवंत राय का कार्यकाल 1538-1555 ई, अनंत राय का 1555-1586 ई तथा मेदिनी राय का 1619-1635 ई उद्धृत किया है।
बहरहाल क्षेत्रीय इतिहासकारों ने पलामू के चेरो राजवंश के कार्यकाल का आकलन लगभग 75 वर्ष कम किया है। यहां चेरो राजवंश की स्थापना मुगल बादशाह जहांगीर के समय नहीं,बल्कि शेरशाह सूरी के समय में हुई है।चेरो राजवंश के दो शासक--भगवंत राय तथा अनंत राय सूरी वंश के समकालीन हैं।
चतुर्दिक विजय अभियान
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आदिवासी साम्राज्य का प्रतापी राजा मेदिनी राय एक लड़ाकू तथा महत्वाकांक्षी योद्धा था। बकौल इतिहासकार रामदीन पांडेय,वह बड़े कुशाग्रबुद्धि नीतिकुशल और शूरवीर था (पलामू का इतिहास, पृष्ठ संख्या 103)।पलामू राज्य को सुखी, समृद्ध तथा शक्तिशाली बनाने के लिए उसने चतुर्दिक विस्तारवादी नीति का अवलंबन किया।उस समय मुगल बादशाह जहांगीर का शासन था। मुगलों के काफिले पर हमला कर लूट-पाट करने वाले चेरो राजा सहबल राय को 1613 ई में जहांगीर ने बंदी बना लिया था। दिल्ली में उसे पिंजरे में कैद एक शेर से लड़वाया गया,जिससे चेरो राजा के प्राणांत हो गये थे।उस समय पलामू का राजा प्रताप राय द्वितीय का पिता बलभद्र चेरो था, जो एक कमजोर शासक था। तत्पश्चात 1619 ई में मेदिनी राय पलामू की गद्दी पर आसीन हुआ।
सहबल राय की नृशंस हत्या से पलामू में काफी आक्रोश था। चेरो-खरवार सैनिकों ने शाही खजाने को ले जा रही एक नाव को संभवतः सोन नदी में लूट लिया (झारखंड: इतिहास एवं संस्कृति-डा बी वीरोत्तम, पृष्ठ संख्या 57)। मुगलों के खिलाफ भड़का जनाक्रोश का लाभ मेदिनी राय ने खूब भुनाया।उस समय जपला और बेलौंजा परगने रोहतास सरकार के अधीनस्थ थे।मुगल बादशाह अकबर के समय से ही रोहतास क्षेत्र रोहतास सरकार के नाम से जाना जाता था। इसके अधीनस्थ जपला और बेलौंजा सहित सात परगने थे। मेदिनी राय ने दोनों परगनों पर हमला कर जपला और बेलौंजा को मुगलों से छीन लिया (ह. रा. हलधर कृत पलामू का इतिहास, पृष्ठ संख्या 40)।यह मुगलों की धरती पर मेदिनी राय का पहला विजय अभियान था। फलस्वरूप उसकी शोहरत में इजाफा हुआ।
पलामू राज्य के उत्तरी क्षेत्रों की विजय ने मेदिनी राय की ताकत और महत्त्वाकांक्षा को तीव्र करने में घी का काम किया। तत्पश्चात मेदिनी राय का ध्यान पलामू के पूर्वी एवं दक्षिणी भाग में अवस्थित हजारीबाग के रामगढ़ तथा कुंडा स्टेट पर गया। उसने दोनों स्टेट को जीत लिया। मेदिनी राय का जोश आकाश चूमने लगा। उसने विजय अभियान जारी रखने का निर्णय लिया।अगली नज़र पलामू राज्य के पश्चिमी भाग में स्थित सरगुजा राज्य पर थी। उसने सरगुजा पर आक्रमण कर उसके बड़े हिस्से को अपने अधीन कर लिया(अर्णव में प्रकाशित वही शोध- पत्र, डॉ श्याम सुन्दर तिवारी, पृष्ठ संख्या 222)।इन विजित भू-खंडों से नियमित कर वसूले जाने लगे(पलामू का इतिहास-हलधर, पृष्ठ 40)। फलस्वरूप राज्य की आय में काफी बढ़ोतरी हुई।
पलामू राज्य की तीन दिशाओं में विस्तार के उपरांत पलामू के दक्षिणी भाग में स्थित दोइसागढ़(नवरतनगढ़), जो नागवंशी राज्य छोटानागपुर की राजधानी थी, पर राजा मेदिनी राय का ध्यान जाना स्वाभाविक था।उस समय छोटानागपुर राज्य हीरों के खान के लिए काफी मशहूर था। दोइसागढ़ नागवंशी राजा की नई राजधानी थी। इसके पूर्व छोटानागपुर की राजधानी खुखरा (कोकरह) में थी।दोइसागढ़ में राजनीतिक उथल-पुथल चल रहा था। मालूम हो कि 1615 ई में बिहार के मुगल सूबेदार इब्राहिम खां के नेतृत्व में मुगल सेना ने हीरा-खानों को अधिकृत करने के लिए कोकरह पर आक्रमण कर नागवंशी राजा दुर्जन साल को बंदी बना लिया था(तुजुक,भाग 1, पृष्ठ 315-316 ; इलियट एंड डाउसन,भाग 6, पृष्ठ 345)। दुर्जन साल ग्वालियर में 12 साल कैद रहा।इसी का लाभ मेदिनी राय ने लिया और एक सेना लेकर डोइसागढ़ के लिए कूच किया। रास्ते भर नागवंशी राज्य को लूटते हुए चेरो-खरवार सेना दोइसागढ़ पहुंची और नागवंशी सेना पर टूट पड़ी।छोटानागपुर के 57 वें राजा दृपनाथ शाहदेव द्वारा 1787 ई को तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस को दी गई नागवंशी राजाओं की सूची के अनुसार तत्कालीन नागवंशी राजा बैरी शाह(1589-1627) था (अतीत के दर्पण में झारखंड- डॉ भुवनेश्वर अनुज, पृष्ठ संख्या 215)। नागवंशी राजा ने मेदिनी राय की पराक्रमी सेना के समक्ष शीघ्र ही आत्मसमर्पण कर दिया। दोनों राजाओं के मध्य संधि हुई, जिसमें नागवंशी राजा को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।लूट और संधि से मेदिनी राय को काफी धन प्राप्त हुए। कहा जाता है कि डोइसागढ़ के किला में लगा कलात्मक और आकर्षक दरवाजा मेदिनी राय के मन को भा गया,इसलिए वहां से लौटते हुए उस दरवाजे को भी लेते आया।नया पलामू किला में यही दरवाजा लगाया गया, जो नागपुरी दरवाजा के नाम से आज भी मशहूर है।
चतुर्दिक विजय के उपरांत पलामू राज्य की चारों तरफ चेरो राजवंश के नायक मेदिनी राय के नाम का डंका बज रहा था। अब पलामू राज्य की उत्तरी सीमा पटना से मात्र 71 मील दूर थी। दक्षिण-पश्चिम में पलामू-राज्य कनहर नदी तक तथा दक्षिण में टोरी तक फैला हुआ था।कोठी,कुंडा और देवगन के सीमांतक किले पलामू राज्य को मुगलों के सूबा से पृथक करते थे (आलमगीरनामा-मुंशी मिर्जा मोहम्मद काजिम,1968ई, पृष्ठ 650 तथा वही अर्णव 2020- डॉ श्याम सुन्दर तिवारी, पृष्ठ 222)। हीरा-खानों का राज्य छोटानागपुर पर विजय हासिल करना, अत्यंत पराक्रम,सम्मान तथा गर्व की बात थी। इसलिए छोटानागपुर- विजय के उपरांत राजा मेदिनी राय की प्रशस्ति "महाराज देव देवानां मेदिनी राय" लिखी जाने लगी (पलामू का इतिहास- हलधर, पृष्ठ 40)।
जैसे गुप्त वंश के पराक्रमी शासक समुद्रगुप्त ने अपनी लगातार विजय यात्रा से संपूर्ण भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था,उसी प्रकार राजा मेदिनी राय ने क्रमशः चतुर्दिक विजय अभियान द्वारा एक छोटे राज्य पलामू को गौरवशाली एवं वैभवशाली राज्य में परिवर्तित कर दिया।जिस संकल्प के साथ उसने विजय अभियान प्रारंभ किया, उसे पूरा करके ही दम लिया। शक्तिशाली मुगलों की नाक के नीचे यह दम दिखाना कोई आसान बात नहीं थी।उस समय किसी मुग़ल बादशाह में दम नहीं था, जो मेदिनी राय शासित पलामू पर आक्रमण करे। मुगलों ने आक्रमण करने की हिम्मत मेदिनी राय के मरणोपरांत ही फिर 1641 ई में दिखाई। वस्तुत: मेदिनी राय सरीखे पराक्रमी शासक कभी-कभी पैदा होते हैं। इसलिए यह कहना कदाचित अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि राजा मेदिनी राय मध्यकालीन पलामू राज्य का समुद्रगुप्त था।
एक प्रजावत्सल आदर्श राजा
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चेरो राजवंश का सर्वाधिक लोकप्रिय राजा मेदिनी राय पलामू राज्य का वास्तविक निर्माता था।उसकी प्रजावत्सलता, दानशीलता एवं न्यायप्रियता की कहानियां आज भी कहावतों के रूप में सर्वत्र प्रचलित हैं। किसी राजा या उसके सुकार्य का लोकोक्ति में तब्दील हो जाना, उसकी लोकप्रियता का चरम है। फिर उसकी प्रजावत्सलता में संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती। राजा मेदिनी राय के बारे में सैकड़ों वर्षों से जनमानस में कतिपय लोकोक्तियां प्रचलित हैं,जो गौरतलब हैं।मसलन:-
धन्न-धन्न राजा मेदनियां
घर-घर बाजे मथनियां।
तात्पर्य यह कि मेदिनी राय के कालखंड में दूध-दही की कमी नहीं थी। लोग आत्मनिर्भर और समृद्ध थे।कहा जाता है कि जिनके पास गौएं नहीं होती थीं,उन्हें राज्य की ओर से गौएं दी जाती थीं। मेदिनी राय की न्यायप्रियता से संबंधित एक कहावत आज भी सुनने को मिलती है-
राजा मेदनियां के राज
न गउवे छान,न प्रजा डांड़।
इस कहावत का आशय यह है कि मेदिनी राय के राज्य में गायों को बांधने की आवश्यकता नहीं थी और प्रजा को किसी प्रकार का दंड देने का मौका ही नहीं आता था।जब मेदिनी राय ने पहाड़ी पर नया पलामू किला का निर्माण किया,तब उसकी भव्यता और विशालता देखकर लोग दांतों तले उंगली दबा लेते थे।उस समय इस क्षेत्र का सर्वाधिक शानदार और विशाल किला रूईदास गढ़ अर्थात रोहतास गढ़ को माना जाता था।नया पलामू किला के समक्ष जनमानस को रोहतास-किला छोटा दिखने लगा तब यह लोकोक्ति प्रचलित हुई-
ऊंचहिं गढ़ पलमुआ हो
नीचहिं गढ़ रूईदास।
कहा जाता है कि न्यायप्रिय राजा मेदिनी राय वेष बदलकर अपनी प्रजा के सुख-दुख को जानने के लिए अपने राज्य में प्राय: घूमता था।उसके राज में खेती-बाड़ी, पशुपालन, कुटीर उद्योग तथा व्यापार की निरंतर प्रगति हुई।प्रजा के लिए वह एक आदर्श राजा था।उसके प्रति जनता में असीम श्रद्धा थी(दिवंगत पत्रकार रामेश्वरम का आलेख-मेदिनी राय और चेरो राजवंश,डहर, दिसंबर 2008)।अपनी कृति "पलामू के इतिहास" में रामदीन पांडेय ने मेदिनी राय को पलामू की जनता का हृदय-सम्राट कहा है। यही कारण है कि अनेक विद्वानों ने राजा मेदिनी राय के शासनकाल को पलामू का स्वर्णकाल माना है।
नया पलामू-किला का निर्माता
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राजा मेदिनी राय ने चतुर्दिक विजय अभियान से प्राप्त धन का सदुपयोग राज्य के विकास के साथ-साथ नया पलामू-किला के निर्माण में किया। कदाचित मेदिनी राय के मन में सामरिक दृष्टि से राजधानी को सुरक्षित और मजबूत बनाना रहा हो। पुराना किला से महज डेढ़ किलोमीटर दूर तथा औरंगा नदी के तट पर स्थित एक तीव्र ढाल वाली पहाड़ी पर राजा मेदिनी राय ने संवत 1680,माघ माह, कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि, तदनुसार 8 जनवरी 1624 ई को एक विशाल एवं मजबूत किला का शिलान्यास किया।इस आशय का शिलालेख नागपुरी दरवाजे की एक चौखट पर उकेरित है।750 फीट ×300 फीट के क्षेत्रफल (द एंटिक्वेरियन रिमेंस इन बिहार-डी आर पाटिल, पृष्ठ संख्या 353) में फैला यह किला पुराना पलामू किला के बनिस्पत सामरिक दृष्टि से अत्यधिक महफूज और मजबूत तथा कला की दृष्टि से ज्यादा कलात्मक और आकर्षक है। यह किला कुछ निर्माण के मामले में भले अधूरा रह गया है, बावजूद इसके, तराशे गए अनगढ़ पत्थरों को चूना-सूरखी से जोड़कर बनाया गया यह किला चेरो-शासन के स्वर्णिम काल का मूक साक्षी है। दोइसागढ़ से लूटकर लाया गया नागपुरी दरवाजा भी इस किले का शोभा बढ़ा रहा है (झारखंड: इतिहास एवं संस्कृति-डा बी वीरोत्तम, पृष्ठ संख्या 68)। पलामू-राजधानी क्षेत्र की समृद्धि और विशालता के बारे में यह कहावत आज भी प्रचलित है कि यहां 52 गली और 53 बाज़ार थे।इस किले की ऊंचाई की तुलना रोहतास किला से की गई है-ऊंचहिं गढ़ पलमुआ और नीचहिं गढ़ रूईदास। राजधानी-नगर की पत्थर से निर्मित जमींदोज नीवें आज भी कहीं-कहीं दृष्टिगोचर होती हैं।
पुराने किले के पास मेदिनी राय ने पहाड़ों से घिरे एक झील का निर्माण करवाया था, जो कमलदह के नाम से आज भी विख्यात है। कहा जाता है कि यहां रानी अपने सखियों के साथ स्नान करने आती थी।कमलदह के पानी के निकास के लिए राजा ने औरंगा नदी तक जानेवाली एक नहर बनवायी थी, जिसका भग्नावशेष घोर जंगलों के बीच आज भी देखने को मिलता है। उन्होंने इससे सटे हुए पहाड़ी के चट्टानों को कटवा कर देव मंदिर का निर्माण करवाया (पलामू का इतिहास-हलधर, पृष्ठ 40)। पुराने किले से दक्षिण घोर जंगलों से आच्छादित एक पहाड़ी है,जिसे दस हजार छावनी कहा जाता है।इस पहाड़ी के अंतर्गत अनेक प्राकृतिक और कृत्रिम गुफाएं हैं।संभव है कि इन गुफाओं का निर्माण बौद्ध काल में हुआ हो,मगर मध्य काल में कदाचित गोला- बारूद छिपाकर रखे जाते थे। यहां अनेक कमरों के खंडहर भी बिखरे पड़े हैं।इन खंडहरों के देखने एवं पहाड़ी के नामकरण से प्रतीत होता है कि राजा मेदिनी राय की विजयवाहिनी सेना की यहां छावनी रही होगी। महावीर वर्मा की कृति "कोयल के किनारे-किनारे" (पृष्ठ संख्या 77) के अनुसार,1634 ई में मेदिनी राय ने पलामू किला में एक मंदिर का निर्माण करवाया था। 1661 ई में बिहार का मुग़ल सूबेदार दाऊद खां ने इस मंदिर की मूर्तियों का ध्वंसकर मंदिर को मस्जिद में तब्दील कर दिया। इसके अलावा पलामू राजधानी नगर को भव्य बनाने के लिए नगर-भवन, महाजन किला,डोम किला आदि का निर्माण भी उल्लेखनीय है।
बहरहाल राजा मेदिनी राय मध्यकालीन चेरो राजवंश का तथा पलामू प्रमंडल का ऐसा जाज्वल्यमान नक्षत्र है, जो सैकड़ों वर्षों तक जगमगाता रहेगा।पराक्रम, संगठनकर्ता, महत्त्वाकांक्षा, प्रजावत्सलता तथा न्यायप्रियता के लिए ख्यात मेदिनी राय निश्चित रूप से आदिवासी स्वाभिमान का प्रतीक है। संप्रति उसके नाम पर पलामू का मुख्यालय डाल्टनगंज का नाम बदलकर मेदिनी नगर किया गया गया है, जो एक छोटी,मगर सार्थक पहल है।काश,जर्जर होते पलामू के दोनों किलों पर किसी की नज़रे-इनायत होती!
अंगद किशोर
इतिहासकार एवं अध्यक्ष सोन घाटी पुरातत्व परिषद,जपला,पलामू झारखंड।
लेखक की नौ पुस्तकें अबतक प्रकाशित हो चुकी हैं।
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