🌾 उपज खोती धरती...🌾

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ब्लॉग प्रेषक: हरजीत सिंह मेहरा
पद/पेशा: ऑटो चालक..
प्रेषण दिनांक: 25-06-2022
उम्र: 53 साल
पता: मकान नंबर 179,ज्योति मॉडल स्कूल वाली गली,गगनदीप कॉलोनी,भट्टियां वेट,(जालंधर बाईपास के नजदीक)लुधियाना, पंजाब, भारत।पिन नंबर 141008.
मोबाइल नंबर: 8528996698.

🌾 उपज खोती धरती...🌾

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मंच को नमन..

मां शारदे नमो नम:

  विधा- परिचर्चा!

   🌾उपज खोती धरती..

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    ..बोया पेड़ बबूल का..आम कहां से होय..

      इस लोकोक्ति को,चरितार्थ करती है,आज की परिस्थिति..

       आइए..आज चर्चा करते हैं, एक ऐसी ही परिस्थिति की,जिस का विषय है.."उपज खोती धरती.."

        आज धरती की उर्वरता खोने के कई कारण हैं,परंतु उसकी मुख्य जड़,,मूलत: हम ख़ुद हैं..! इंसान ने अपने पांव पर, ख़ुद ही कुल्हाड़ी मारी है!कैसे.. आइए अनुसंधान करते हैं...

     दो प्रसंग हैं-- पहला.."प्रकृति के विरुद्ध छेड़छाड़"और दूसरा.. "प्रगति के नाम पर आधुनिकता की होड़"...

            प्रारंभ करते हैं पहले प्रसंग से..आज से पांच- छह दशक पहले के जीवन को,याद करने की आवश्यकता है। तब शहरों से ज्यादा गांवों का स्वरूप था।सीधे-साधे लोग,सरल जीवन शैली,प्रकृति के अनुरूप कार्य कलाप था! लोग प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहते थे..

           सूर्य उदय से पहले दिनचर्या प्रारंभ हो जाती थी।तब "आधुनिक शौचालय"नहीं थे, फलस्वरूप नित्य कर्म हेतु,खेत खलिहान ही निवृत होने का सहारा था।अस्वच्छ जरूर था.. परंतु इंसानी मल त्याग,धरती के लिए उपयोगी था।लोग पशुपालन करते थे।हल जोतने के लिए बैलों का इस्तेमाल होता था।खेती करते वक्त बैलों द्वारा त्यागा गोबर मिट्टी में मिल जाता था।इंसान और जानवरों द्वारा त्यागा पदार्थ,कई तरह के जीवाणु व कीटाणुओं का उत्पादक था,जो मिट्टी में जहरीले तत्वों को सेवन कर,मिट्टी को उर्वरता प्रदान करते थे ।

     धरा पर चारों ओर पेड़ पौधे, जंगल झाड़ियों की भरमार थी,जो मेघों के आवाहन के मुख्य स्रोत हैं।फलस्वरूप,अपने निश्चित समय पर..जल वृष्टि का आगमन होता था।लोग नदियों,नालों, तालाबों को ख़ूब अहमियत देते,जिनमें हमेशा जलभराव रखते थे।जो,सिंचाई के काम आता।मौसम के अनुरूप खेतों में जुताई और फ़सल की बुआई होती थी।

        प्रकृति में तब "पक्षी धन" भी संपन्न था।खेतों में,हल का फाल..मिट्टी पर चलते ही हानिकारक कीट पतंगे मिट्टी से बाहर आ जाते..जिसे पक्षी अपना आहार बना लेते थे,और धरती स्वच्छ हो जाती थी। हरियाली और पानी की कमी ना होने पर, धरती की नमी बनी रहती थी.. जिसमें धरती के लाभकारी सरीसृप और कीट पतंगे पनपते, जो,धरती के विषैले अणुओं को निगल जाते! गोबर की उर्वरक खाद मिट्टी की उपजाऊ क्षमता को और बढ़ा देती थी!

         तब मानव में धैर्य होता था। वह साल में दो या तीन फसलों की उपज ही पैदा करता था, जिससे धरती के खोए उर्वरक तत्व,फिर पूर्ण हो जाते।प्रकृति की एक संतुलित कार्यप्रणाली थी, जो धरती और मनुष्य को खुशहाल रखे थी...

     यह था एक पहलू..परंतु दूसरे में,इंसानी हस्तक्षेप होते ही प्राकृतिक संतुलन..असंतुलित हो गया..

      अब गांव का अस्तित्व मिटकर,शहरों में तब्दील होने लगा। सादा सरल जीवन.. धीरे-धीरे आधुनिक चकाचौंध के प्रकाश में लुप्त हो गया। स्वच्छता उत्तम प्रयास है..घरों में"सुलभ शौचालय"होने से,धरती को मिल रही पोस्टिक तत्व की खुराक में व्यवधान पड़ा! गोबर से गैस पैदा करने के लिए,लोगों ने गोबर को गैस प्लांटों में बेचना शुरू कर दिया..फलत: खेतों में मिलने वाली पौष्टिक शुद्ध खाद की कमी हो गई।

           जनसंख्या वृद्धि भी एक कारण है..लोगों ने तालाब, जलाशयों को पाटकर..जंगल,पेड़ पौधों को काट,खेती योग्य ज़मीन बना डाली, जिससे मिट्टी की नमी और उर्वरता क्षीण होने लगी।वन संपदा क्षय होते ही,मौसम असंतुलित हो गया।पशु पक्षी विलुप्त होने लगे..धरती का जलस्तर गहरा होने लगा तो, इंसान ने धरती में"बोर"करवा कर, जलापूर्ति करनी प्रारंभ कर दी। कई राज्य में "हरित क्रांति" लाने हेतु,अंधाधुन जल का दुरुपयोग हुआ.. फलत: मिट्टी शुष्क होती चली गई और उपजाऊ क्षमता खोने लगी!

         यह है प्रकृति से छेड़छाड़ करने के भयानक नतीजे..जिसे हम नकार नहीं सकते...

    दूसरा प्रसंग है-"प्रगति के नाम पर आधुनिकता की होड़"..

        प्रगतिशील होना आवश्यक है..परंतु प्रगति के नाम पर अपना संतुलन खोकर,आधुनिकता की होड़ में शामिल होना अमानुषीकता है। इससे दो अवयव पैदा होते हैं-- "लालच और अव्यवस्थता"।

         इंसान अपने पूर्व व्यवस्थित जीवन से निकलकर,अव्यवस्थित प्रक्रिया अपनाने लगा।उसने आराम दायक जीवन शैली के लिए,हल जोतना छोड़.. ट्रैक्टर का इस्तेमाल शुरू कर दिया। धूप में फ़सल काटने को त्याग..कंबाइनों का इस्तेमाल करने लगा।पहले.. पैदल या बैल गाड़ियों का व्यवहार जाने आने का साधन थी,परंतु अब मोटर गाड़ियों का इस्तेमाल करने लगा!इन्हें सुचारू रखने के लिए..ईंधन के रूप में रासायनिक तेल का इस्तेमाल होने लगा। जिससे वातावरण दूषित हुआ.. प्रदूषण का सीधा असर प्रकृति और धरती पर पड़ा जिससे धरती में रासायनिक ज़हर घुलने लगा!

         पहले जहां साल में दो-तीन बार फसल पैदा होती थी..आज इंसान ने रासायनिक जहरीली खाद को धरती में मिलाया और साल में दुगनी पैदावार करने लगा!फसलों पर रासायनिक छिड़काव कर,फसल बचाता है पर,इसके असर से मिट्टी के उपयोगी तत्वों का नाश होता है! और धरती का उपजाऊ स्तर घटता है..

              इंसान के लालच का स्तर और उग्र हो रहा है।यह आधुनिक संसाधनों को एकत्र करने की होड़ में,प्रतिबंधित रसायनों का इस्तेमाल कर पैदावार को अप्राकृतिक तरीके से बढ़ाने लगा।फल,साग सब्जियों में,रासायनिक टीके लगा उनके आकार को रातों-रात बढ़ाकर, अधिक मुनाफा कमाने लगा। इसका असर धरती की उर्वरता पर पड़ रहा है और धरती अपनी उपज क्षमता खोती जा रही है।

           इंसान ने लालच के खातिर,प्रलोभन देकर जहरीली खाद..बीजों को बेचकर,अधिक मुनाफा कमाने की होड़ सी लगा दी! जिसका खामियाजा धरा को अपनी उर्वरता खोकर भरना पड़ रहा है।

        प्रगति की होड़ में,मिट्टी का खनन..निर्माण कार्यों में होने लगा।कटी हुई मिट्टी के स्थान पर कूड़ा करकट,प्लास्टिक पॉलिथीन की गंदगी भरी जाने लगी..जिस ने उपजाऊ ज़मीन को बंजर बना डाला!धन कमाने के लालच में, धरती पर लोगों ने प्राकृतिक जंगल काट..कंक्रीट रूपी जंगल का निर्माण कर डाला।

         आजकल "मोबाइल फोंस" की होड़ सी लगी हुई है!इसे गतिशील रखने के लिए जहरीली जानलेवा तरंगों का निर्माण कर दिया।जिसके प्रभाव से आसमान से लेकर धरती तक विकिरण फैल रहा है..जिससे "वैश्विक तापमान" असंतुलित हो गया! आज उसका असर,पूरे वातावरण को प्रभावित कर रहा है।धरती की उर्वरता को भी इससे काफी हानि पहुंची है! परंतु,इतना कुछ ज्ञात होते हुए भी..इंसान की फितरत नहीं बदली!और अगर ऐसा ही अपनी लालच की पूर्ति हेतु,इंसान अमानुषीकता करता रहा,तो,वो दिन दूर नहीं जब,अनाज उपजाने हेतु..एक टुकड़ा उपजाऊ जमीन ना बचेगी..

         मनुष्य ने अपनी नाजायज जरूरतों की पूर्ति हेतु,अपने ही हाथों विशाल खाई खोद डाली है! अगर इसी तरह विवेकहीन कार्य करता रहा तो, आने वाला वक्त बड़ा ही भयावह और विकट होगा...

        प्रगति जरूरी है..परंतु "प्रकृति"से खिलवाड़ और नाजायज"आधुनिकता कि होड़" का परित्याग आवश्यक है। अपना कर्तव्य वसुधा को सुरक्षित रखना भी है। इसकी मृदा को उर्वरक बनाना होगा!क्योंकि..यही हमारे जीवन का आधार है!

  ...बात विचारणीय है..इसलिए जागरूक होना आवश्यक है...

       "उपज खोती धरती"को बचाना है..

       इसे बंजर नहीं..उपजाऊ बनाना है!!


हरजीत सिंह मेहरा,

मकान नंबर- 179,

ज्योति मॉडल स्कूल वाली गली,

गगनदीप कॉलोनी,भाटिया बेट,

लुधियाना,पंजाब(भारत.)

पिन नंबर-141008.

☎️ 85289-96698.

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