एक बहू ऐसी भी...

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ब्लॉग प्रेषक: हरजीत सिंह मेहरा।
पद/पेशा: ऑटो चालक..
प्रेषण दिनांक: 14-07-2022
उम्र: 53 वर्ष
पता: मकान नंबर 179,ज्योति मॉडल स्कूल वाली गली,गगनदीप कॉलोनी,भट्टियां बेट,लुधियाना,पंजाब,भारत।पिन कोड- 141008
मोबाइल नंबर: 8528996698.

एक बहू ऐसी भी...

[7/14, 1:28 PM] Harjitsingh: 🪷🪷🪷

मां शारदे नमो नमः🌷

दिनांक- 26-06-2022.


कहानी..

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                        पृष्ठ- १.

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                 *एक बहु एसी भी* 

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    आज "मई दिवस" के उपलक्ष में,दफ्तर से छुट्टी होने के कारण, सुबह देर तक सोता रहा।शायद कल बरसात होने की वजह से मौसम सुहाना था,इसलिए नींद से जागने का मन ना हो रहा था। अभी भी ना जाने कब तक सोता रहता,अगर मोबाइल की घंटी नहीं बजती।अनमने,मनसे फ़ोन को रिसीव किया- "हेलो... कौन बोल रहा है भाई!"

उधर से आवाज़ आई- "अबे कब तक सोएगा!उठ जा साले..मैं तेरे पास आ रहा हूं!"

   "क्यों..." अनायास ही मेरे मुंह से निकला- "मत आना,आज मेरा सोने का मूड है।तेरी बक बक सुनने के मूड में नहीं हूं...।"

    "अरे सुन तो..तेरा मूड भी ठीक कर दूंगा और दिन भी सुहाना.. बस तू तैयार हो जा.."- उसने कहा।

       "क्यों..तू मुजरा करने वाला है..!?" - मैंने कटाक्ष छोड़ा।

       "वह भी कर दूंगा..बस तू उठ जा अब।" - उसने हंसते हुए कहा।


              ना चाहते हुए भी मुझे बिस्तर छोड़ना पड़ा।यह मेरा वही पत्रकार दोस्त "सत्येंद्र शर्मा" था, जो मेरा सबसे जिगरी दोस्त है।

         गुसलखाने में जाते वक्त, अपनी पत्नी को आवाज़ लगाई और कहा- "नाश्ते का इंतजाम करना "सत्तू" आ रहा है!"(कभी-कभी उसे मैं सत्तू कहकर बुलाता हूं) और मैं नित्य कर्मों में व्यस्त हो गया।

             गुसलखाने से फारिग होकर,मैंने अभी कपड़े भी ना पहने थे..की दरवाज़े की घंटी बजी उठी..

      "ज़रा देखना..सत्येंद्र आया होगा!"- मैंने अपनी पत्नी को आवाज़ दी।

       अंजू (मेरी पत्नी) ने दरवाज़ा खोला तो सामने सत्तू ही था!

       "नमस्ते भाभी..सुप्रभात.." हमेशा की तरह मुस्कुराते हुए,बड़े विनोदी भाव से उसने अभिवादन किया- "जीते" कहां है.!अभी उठा कि नहीं.."

      (जीते मेरा घरेलू नाम है।)

   "नमस्ते भैया.. हां हां वह कब के उठ गए"- मेरी पत्नी ने कहा- "आप बैठिए,मैं उन्हें बुलाती हूं।"


         उसे सोफे पर बैठा,अंजू ने मुझे उस के आगमन की सूचना दी।


       "क्या आफ़त आन पड़ी थी यार.. इतनी अच्छी नींद से जगा दिया!" आते ही मैंने बनावटी गुस्सा दिखाया।

        "ओहो...बड़े नाराज़ हो रहे हैं दिलबर आज.! कहो तो वापस चला जाऊं..!?"सतेंद्र ने भी नहले पे देहला लगाया।

       "नहीं..पहले मुजरा दिखा.."- मैं भी कहां कम था।

मेरी बात सुनकर उसने अपनी आंखें तरेर लीं.. जैसे यह बात उसे अच्छी ना लगी हो।

        "चल अब नौटंकी ना दिखा..आ ही गया है तो, नाश्ता करके जाना।" मैंने ज़रा मस्ती में कहा..

       "नहीं करूंगा..जा" उसने किसी बच्चे की तरह रूठते हुए मुंह फिरा लिया।

  अभी हमारी खट्टी मीठी चुहल बाज़ी चल ही रही थी की,मेरी पत्नी नाश्ता ले कर आ गई...

     "आप दोनों फिर शुरू हो गए..." हंसते हुए अंजू ने कहा- "आपकी दोस्ती बहुत ही अनोखी है! पहले लड़ते हैं,फिर मनाते हैं। सब कुछ जानते हुए भी,एक दूसरे की टांग क्यों खींचते हैं!"

      "देखो ना भाभी.. ये हमेशा ऐसा ही करता है...अच्छा खासा मूड खराब कर देता है..।" मानों एक करूंण गुहार, मेरी पत्नी के सामने उसने लगाइए हो।

      "कोई बात नहीं भैया!आइए आप पहले,अपने मनपसंद का नाश्ता कीजिए और अपना मूड सही कीजिए!"अंजू ने मुस्कुरा कर कहा।

    हाथ में पकड़ी तश्तरी को जैसे ही मेज़ पर रखा..सत्येंद्र की आंखें चमक उठीं।

      "आहा..हा..हा.. क्या खुशबू है।वाकई भाभी आप मेरा मनपसंद नाश्ता बनाना कभी नहीं भूलती।"ब्रेड आमलेट का टोस्ट और बॉर्नविटा मिला हुआ दूध देखकर सत्येंद्र खुश हो गया।

         "तो शुरू कीजिए भैया.. देर किस बात की है।"अंजू ने कहा।

     सत्येंद्र ने मेरी ओर इशारा किया और सिर झुकाने का नाटक करने लगा..

       "कोई बात नहीं,आप खाइए मैं इनको देखती हूं।"मेरी पत्नी ने कहा और फिर मेरी ओर देख कर कहा- "क्यों करते हैं ऐसा..देखिए तो भाई साहब रूठ गए.."

        कुछ पल ख़ामोश रहकर.. अनायास ही मेरी हंसी का फव्वारा फूट पड़ा। साथ ही सतेंद्र भी ठहाके लगाने लगा और मेरी पत्नी भी सम्मिलित हो गई।

         "अरे नहीं भाग्यवान..अब इस उम्र में,रूठना मनाना कैसा! इसके आने से बचपन की यादें ताज़ा हो जातीं है,और उन पलों को जिंदा रखने के लिए हम ऐसी शरारत करते हैं।"मैंने संजीदगी से कहा- "जिंदगी की उलझनों में हम ऐसे मशगूल हो जाते हैं,की, मुस्कुराने तक की फुर्सत नहीं होती।ये तो इस के आने से मन नादान और प्रसन्न हो जाता है। तो ऐसी हरकतें सूझतीं हैं। यह कमीना भी तो कभी-कभी आता है।"मैं भावनात्मक हो गया।


सत्येंद्र,सोफे से उठा और मुझे अपने सीने से लगा लिया।


   "तो फ़िर..नाश्ता वापस ले जाऊं.."मंद मंद मुस्कुराती मेरी पत्नी ने कहा- "क्योंकि दोस्ती का नाश्ता तो मिल ही गया होगा.."

     "अरे नहीं नहीं भाभी..ऐसा गज़ब मत करना.!!" लगभग हड़बड़ाते हुए सोफे में धंसते हुए मुझ से कहा- "खा ले साले..वरना भाभी रुठ जाएगी।"

                         

                            _जारी है...._

[7/14, 1:36 PM] Harjitsingh: (पृष्ठ- २.)                                     

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             *एक बहू ऐसी भी..* 

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       हम खामोशी से नाश्ता करने लगे। सत्तू बड़े चाव से नाश्ते का आनंद ले रहा था,क्यों ना आनंदित होता,उसका मनपसंद नाश्ता जो था!कई पल की खामोशी को मेरी पत्नी ने भंग किया.. 


       _"आज इतनी जल्दी कैसे आना हुआ,भाई साहब..!_ अंजू ने सत्येंद्र की ओर देखकर पूछा- _"कहीं जाने का प्रोग्राम है क्या?"_    

   उसकी आवाज़ सुनकर हम सब जैसे,चेतना में लौट आए हों।

     _"हां यार.. तुमने इतनी जल्दी आने की वज़ह नहीं बताई.."_ मैंने भी पूछा।

   _"जी भाभी..आज हम,एक दोस्त की कोठी के गृह प्रवेश के उपलक्ष में आमंत्रित हैं। हमें वहीं पहुंचना है।"_ सत्तू ने जवाब दिया फिर मेरी ओर मुखातिब हुआ-- 

_"जीते..तुझे याद होगा,सन 1984- 85 के स्कूल बैच में एक दोस्त हुआ करता था.. "रामसेवक",जिसने हमारे साथ शिक्षा ग्रहण की थी..याद है!"_


     मैं कुछ देर सोचता रहा,और दिमाग़ पर ज़ोर डाला,तो कुछ याद आया-- _"सत्तू..ये वही तो नहीं,जिसका नाम "रामसेवक साव"है.!बड़ा ही मृदुभाषी,सौम्य, प्रसन्न चित्त,मिलनसार स्वभाव का।बड़ा नेक दिल था,वह हर पल सबके लिए कुछ ना कुछ करने को तैयार रहता।परोपकारी की भावना रखने वाला ऐसा व्यक्तित्व,विरला ही मिलता है! अपनी हैसियत से भी अधिक करने की तमन्ना हमेशा दिल में रखता था..वही ना!_ 

       _"हां वही..वही"_ सत्येंद्र ने झट से ज़वाब दिया।फिर बोर्नविटा की चुस्की लेते हुए कहा- _"उसी ने आलीशान कोठी का निर्माण करवाया है,जिसका गृह प्रवेश आज होना है,और हमें वहीं जाना है।"_ 

       सुनकर मैं थोड़ा हिचकिचाते हुए बोला--

     _"परंतु यार.. बुरा मत मानना.."_ कुछ क्षण चुप रहकर मैंने कहा- _"बिन बुलाए मेहमान बन कर जाना,क्या उचित होगा.? इसलिए..तू जा,तुझे तो न्योता प्राप्त है ना.."_  

        _"अरे सुन तो.. अपना ही राग अलाप रहा है.."सत्येंद्र ज़रा तीक्ष स्वर में बोला- "ऐसा नहीं है हरजीत..उसका दिल बहुत बड़ा है ।"भगवान कुबेर और मां लक्ष्मी"की ,अपार कृपा है उस पर!उसने इस बार भी बहुत अलग काम किया है.!उसने चुन चुन कर,अथक प्रयास से,हमारे विद्यालय के 1984 -1985 के, सब दोस्तों को एकत्रित कर आमंत्रित किया है।जिससे तो वह संपर्क साध सका,उसे तो ख़ुद आमंत्रित किया..पर,जिसका पता ठिकाना उसके पास नहीं,उनकी बाबत सब दोस्तों को कह दिया, कि,जिस के संपर्क में कोई भी दोस्त हो,उसे हमारी ओर से निमंत्रण दे देना।"_ कुछ पल सांस लेने के बाद सत्तू बोला- _"बस इसी_ _बाबत तुझे लेने आ गया। अगर विश्वास ना हो तो,मैं अभी उससे बात करवा दूं.?"_ 

       _"नहीं नहीं यार.. ऐसा करके उसके आत्मविश्वास को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता.."_ मैंने कहा- _"और वैसे भी दोस्ती में "अनुमति और स्वीकृति"का कोई महत्व नहीं होता।दोस्त एक दूसरे की ज़िंदगी में,बेधड़क आ जा सकते हैं !चलूंगा यार मैं भी.."_ 

      _"तो चल.."_ फिर मेरी पत्नी की ओर देखकर कहा- _"आप भी तैयार हो जाएं भाभी जी।"_ 

      _"नहीं भाई साहब.. आप दोस्तों के बीच चलकर मैं क्या करूंगी।"_अंजू बोली- _"वैसे भी मेरे_ _'बुटीक 'में जरूरी कपड़े_ _सिलने को आए हुए हैं,जिसे कल तक तैयार करना है..तो,एक पल की भी फुर्सत नहीं है।आप लोग जाइए और आनंद कीजिए।"_

       _"लेकिन चलना कहां है यार..किस जगह पर उसने कोठी बनवाई है!"_ मैंने उत्सुकता से पूछा।

      _"नइहाटी.."_-उसने ज़वाब दिया।

        _"नइहाटी.."_ मैं उछल पड़ा। फिर विस्मित होकर कहा-

    _"इतनी दूर.. तुम्हें पता भी है कितना वक्त लगेगा वहां जाते जाते!कब पहुंचेंगे..कैसे जाएंगे पागल..!"_

       _"अरे "कूल" यार.."_ सत्येंद्र बोला- _"देख जीते.. अभी सुबह के 8:00 बजे हैं। मैंने कार बुक करा ली है.. जो अभी आती ही होगी।अगर अभी चलते हैं,तो, 3 घंटे में पहुंच जाएंगे। वैसे भी प्रोग्राम दोपहर को 2:00 बजे का है...तो, "फिकर नोट"..।_ 

        _"चलो..ठीक है.."_ मैंने एक दीर्घ श्वास छोड़ी,और फ़िर अपनी पत्नी से बैग पैक करने को कहा।कुछ आवश्यक सामानों का निर्देश दिया।सत्येंद्र अपने मोबाइल फोन पर शायद टैक्सी वाले से बात कर रहा था। अगले 15 मिनट के इंतजार के बाद,मेरा बैग और कार दोनों आ गए।हम दोनों कार में सवार होकर गंतव्य की ओर चल पड़े...


                         _जारी है.._

[7/14, 1:40 PM] Harjitsingh: (पृष्ठ- ३.)

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               *एक बहू ऐसी भी..*

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    घर से जी.टी.रोड तक का सफर 3 किलोमीटर का है,जो कि संयम से तय हुआ..परंतु,"हाईवे" पर आते ही कार,द्रुत गति से चलने लगी।

      हाईवे पर पदार्पण करते ही,मैं सतेंद्र के कान के पास आ कर बोला--

        _"अबे..कारतूस लाया है क्या.?"_ और शरारत में भौवें उचकाने लगा।

        _"गंदी आदतें अभी गई नहीं..मुझे पता था,साले..बचपन की लत,अकेले रहने से निकलेगी..इसलिए पहले से ही जेब में डाल ली थी ..लाया हूं!"_ सत्येंद्र भी पूर्ण शरारत के मूड में था।


स्कूल के दिनों में हम "सिगरेट"को कारतूस कहते थे।ये हमारा "कोड वर्ड" था।


    सत्येंद्र ने जेब से कारतूस निकाले और हम दोनों ने कारतूस दाग(जला)लिए।कार चालक भी हम उम्र बंगाली था.. हमने उसे भी,मेलजोल बढ़ाने के लिए एक कारतूस ऑफर की, जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लीया।

      धूंए के गुब्बार में,स्कूल का जीवन याद आने लगा। वो पार्क की चौपाल। धमाचौकड़ी,हंसी मज़ाक..शरारतें,चुहल बाज़ी। कैंटीन का माहौल..लड़ना,रूठना- मनाना..! इन यादों के बीच एक कोतुहल सा बना हुआ था,की,वह दोस्त जो दशकों पहले पीछे छूट गए थे..आज अचानक हम मिलेंगे तो कैसा अनुभव होगा.!सबके चेहरे,रूप,रंग परिवर्तित हो चुके होंगे। एक ख़ुशी की तरंग सारे शरीर में प्रभावित हो रही थी..

     यादों में खोए खोए..वक्त कैसे बीत गया,पता ही नहीं चला!तांद्रा तो तब टूटी,जब गाड़ी थोड़ी सी धीमी हुई।मैंने इधर उधर निगाह दौड़ाई और चालक से पूछा--

        _"दादा..कोथाए एलाम!_ (कहां पहुंच गए..दादा)

        _"वर्धमान"_ उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।

         _"वर्धमान.!"_ मैंने चकित होकर अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली,फिर सतेंद्र की ओर देखकर कहा- _"इतनी जल्दी कैसे आ गए.. साला,डेढ़ घंटे का सफ़र सिर्फ पचास मिनट में...कैसे?"_ 

          _"यह सब"फोरलेन हाईवे"का कमाल है दोस्त।"_ सत्येंद्र ने मुस्कुरा कर कहा-- _"सरकार ने सड़कों का निर्माण कर,यातायात सुचारू कर दी है। फलस्वरूप, सड़कें खाली और दुरुस्त होने के कारण,अब वक्त की बचत होने लगी है।"_ 

          _"सही है यार.."_ मैंने कहा।फिर अचानक उछाल कर सत्तू से बोला- _"यार सत्तू.. हम समय से पहले चल रहे हैं.. वर्धमान पहुंच गए हैं..तो क्यों ना 10 मिनट रुक कर "मिंहींदाना "और "सीता भोग" टेस्ट किया जाए... क्या बोलता है!"_ 

           _"हां यार..नेकी और पूछ पूछ!"_ फिर ड्राइवर से किसी बढ़िया मिष्ठान भंडार के पास कार रोकने को कहा।


(मिंहींदाना और सीता भोग, वर्धमान का विख्यात मिष्ठान है, जो बड़ा लज़ीज़ होता है।जो भी पर्यटक या मुसाफ़िर यहां आते हैं, इसका ज़ायका ज़रूर लेते हैं।)


     कार रुकते ही हम दोनों नीचे उतरे।शरीर में ऐंठन होने लगी थी, जिसे हमने अंगड़ाई लेकर दुरुस्त किया।

       इसी बीच सत्येंद्र दो टोकरी (जिसमें 2 किलो सामान अट जाए) ले आया।

      मैंने इधर उधर झांका, पर ड्राइवर नजर ना आया तो पूछा-

         _"यार सत्येंद्र.. ये ड्राइवर कहां चला गया !उसे भी थोड़ा सा खिला देते हैं.."_ 

      _"अरे मैंने उसे पूछा था.."_ सत्येंद्र ने कहा- _"पर, वो बोला,मैं_ _चाय पियूंगा... तो,उसे_ _सामने वाले होटल_ _में,चाय और भुजीया दे कर आया_ _हूं..वो वहीं बैठ कर पी रहा_ _है।"_

         _"चलो ठीक है.._ मैंने कहा और कार का दरवाजा खोल,अंदर बैठकर मिष्ठान का आनंद लेने लगे।

          कुछ देर बाद ड्राइवर आ गया तो हमने उसे चलने को कहा उसने कार आगे बढ़ा दी..


        _"ओह यार.."_ कुछ देर चलने के बाद सतेंद्र बोला।

         _"क्या हुआ..?"_ मैंने सत्तू से पूछा।

         _"पानी तो लेना ही भूल गए.."_ 

         _"कोई बात नहीं यार.. तुम्हारी भाभी ने पानी की बोतल बैग में रख दी थी।"_ मैंने आश्वासन दिया- _"पीना है पानी.. निकालूं।"_ 

          _"हां यार..मीठा खाने के बाद,पानी तो चाहिए.."_ सतेंद्र मुस्कुराया।

            मैंने बोतल निकाल कर उसे दी..हम दोनों ने पानी पिया। वर्धमान से बाहर निकलते- निकलते,थोड़ा वक्त लग गया। "ट्रैफिक"के कारण धीमा चलना पड़ा..पर फिर कार ने रफ्तार पकड़ ली।

          अभी कार आधे घंटे ही चली होगी की,"शक्तिगढ़"नामक कस्बे में प्रवेश कर चालक ने गाड़ी हाईवे के किनारे एक होटल के बगल में रोक दी।

        हमने प्रश्न सूचक निगाहों से चालक से पूछा- _"क्या हुआ..?!"_

          चालक ने अपने हाथ की कनिष्ठा उंगली दिखा कर कहा- _"एकटू प्रेशर ऐसे गेछे..दोस मिनट लागबे.."_ उसने दांत दिखाते हुए कहा। (थोड़ा प्रेशर उत्पन्न हो गया है 10 मिनट लगेंगे!)

          _"जाओ जाओ.."_ हम दोनों ने हंसकर कहा।

          _"ऐसा है जीते.. शक्तिगढ़ का "लैंगचा" बहुत मशहूर होता है.. खाएगा क्या.?"_ चहकते हुए सत्तू बोला- _"मेरा तो फेवरेट है.. मैं तो खाने जा रहा हूं.!"_

         _"तो साला..मेरा क्या मुंह_ _सिला पड़ा है..!मेरे लिए भी ले आना।"_ मैंने बड़े रोआब से बोला।

     

   (लैंगचा भी एक मिष्ठान है और शक्तिगढ़ का विशिष्ट पकवान है।)


       पास के होटल से सत्तू लैंगचा ले आया और उसको भी हम चट करने में लग गए।

        तब तक,ड्राइवर भी निवृत्त होकर आ गया और कार स्टार्ट कर,हम फिर सफ़र तय करने लगे..


                      _(जारी है..)_

[7/14, 1:46 PM] Harjitsingh: (पृष्ठ- ४.)

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                *एक बहू ऐसी भी..* 

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     सही कहा गया है..दुनिया में अनेकों रिश्ते हैं।सबकी अलग-अलग अहमियत और मर्यादा है।सब रिश्तों की ज़रूरत दुनिया के सफर में,एक अहम भूमिका निभाती हैं!परंतु.."दोस्ती" का रिश्ता,एक ऐसा रिश्ता है,जिस के बग़ैर"सफ़र ए हयात"का सफ़र,रुखा..बेजान और बोझील सा लगता है।लाखों की भीड़ हो और उस भीड़ में,सिर्फ एक सच्चा और अच्छा दोस्त हो..तो वह सारी कायनात पर अकेला भारी पड़ता है।

            इसी तरह,आज इस छोटे से सफ़र को,अपने " जिगरी " के साथ तय करने से,ऐसा एहसास हो रहा था जैसे,एक खुशनुमा जन्नत का सफ़र चल रहा हो!ना कोई फिकर..ना कष्ट,ना कुछ पाने की..ना खोने की अभिलाषा;बस इन्हीं पलों को जीने की तमन्ना..


       बहरहाल..चलते चलते हम दोनों,बचपन की कुछ खट्टी मीठी और नटखट यादों को सांझा कर रहे थे। इसी दौरान कई "कारतूसों" को दागा हमने।धूएं के गुब्बार में,ठहकों का दौर चला।ना कोई उदासी..ना थकान का एहसास।इसी हंसी मज़ाक में..कब सफ़र तय हो गया,पता ही ना चला..


       हम "बैण्डल" नामक शहर में पहुंच गए।

       _"दादा...एकटू दाड़ान.."_ (दादा..ज़रा रुकिए) सत्येंद्र ने ड्राइवर से कहा- _"यहां से किस रोड पर चलना है..पूछना पड़ेगा।_


      सामने तीन सड़कें खुल रही थी।एक पर 'हावड़ा' दूसरी पर 'बारासात',पर तीसरे मार्ग पर कोई चिन्ह ना था..

        सत्येंद्र ने एक राहगीर से पता पूछा,तो उसने बिना नाम वाली सड़क पर इशारा किया।

       _"यहां से सिर्फ..पंद्रह- बीस किलोमीटर का सफ़र शेष रह गया है.."_ सत्तू ने मेरी ओर देखकर कहा- _समझ ले पहुंच ही गए.!"_

       हम उस ओर चल पड़े।मेरी दिल की धड़कन,हल्की सी तेज़ होने लगी..किसी डर की वज़ह से नहीं, अपितु,इतने दशकों बाद वही बचपन वाले चेहरे फिर देखने को मिलेंगे,जो,आख़री इम्तिहान के दिन,पीछे छूट गए थे..एक कौतूहल भरी धड़कन...

          

      तकरीबन दस मिनट बाद, हम एक नवनिर्मित आलीशान कोठी के समक्ष रूके। हमारी पहली नज़र,दीवार पर जड़ी नाम पट्टी पर पड़ी।जिस पर *"साव निवास"* अंकित था।सामने एक सुंदर और विशाल गेट था,जो, कोठी की भव्यता और गरिमा को दर्शा रहा था।गेट फूल मालाओं और कलाकृतियों से सुसज्जित था!

       हमारी कार देखकर,द्वारपाल दौड़ा-दौड़ा पास आया।सत्येंद्र ने जब परिचय दिया तो, द्वारपाल ने तन कर सलाम किया और तनिक झुक कर कहा-

         _"साहब..गाड़ी अंदर ले जाए.."_ फिर ड्राइवर को समझाया- _"दादा..अंदर बाईं ओर पार्किंग की व्यवस्था है वही गाड़ी खड़ी कर दीजिए।"_ 

       शायद रामसेवक ने द्वारपाल को,पहले ही मेहमानों की सूची दे दी थी।तभी तो द्वारपाल ने हमें प्रवेश की अनुमति दी।

       

      कार को आगे बढ़ा ड्राइवर ने लगभग रेंगने की गति से प्रवेश किया।गेट पार करते ही मन गदगद हो गया।चारों ओर चारदीवारी के साथ- साथ "यूकेलिप्टस" के वृक्ष करीने से लगाए गए थे।एक विशाल लोन था..जिस पर नर्म घास का मखमली गलीचा बिछा प्रतीत हो रहा था!घास के मैदान के चारों ओर,उसे घेरती छोटी-छोटी फूलों की क्यारियां और उस पर लगे रंग बिरंगे फूल..मन को मोह रहे थे। लोन के ठीक बीच में एक सुंदर कलात्मक सफेद पत्थर की मूर्ति थी..जिससे फव्वारे की धाराएं निकल रही थीं।उसके ठीक बगल में एक कुर्सी लगा हुआ झूला था, जो ऊपर से धूप बारिश से बचने को ढका हुआ था।चारों और टाइल्स युक्त पथ का निर्माण किया गया था,जो बहुत सुंदर था। और उसके समक्ष आलीशान महल नुमा कोठी..क्या ख़ूब छ्टा बिखेर रही थी..।

     ड्राइवर ने हमें पोर्च में उतारा, और गाड़ी को पार्किंग स्थल पर,पार्क करने चला गया।

      हमें देख कर एक नवयुवक हमारे पास आया और आते ही सतेंद्र के पैरों को छूकर प्रणाम किया।सत्येंद्र ने उसे गले लगा कर आशीर्वाद दिया और मेरी और इशारा करके कहा-

          _"यह भी तुम्हारे अंकल हैं, तुम्हारे पापा के स्कूल के दोस्त.. "हरजीत अंकल".._

       सुनते ही वह मेरे पाओं में झुकने लगा,तो,मैंने उसे बीच में ही रोक कर,अपने सीने से लगा कर आशीर्वाद दिया।

         _"ये रामसेवक का सुपुत्र है..जीते"_ सत्तू ने परिचय दिया, फिर उस नौजवान से पूछो- _"तुम्हारे पापा कहां है बेटा.!"_ 

       _"वे दादा जी और दादी जी को_ _स्टेशन से रिसीव करने गए हैं।"_ उसने कहा- _"गांव से आ रहे हैं ना.."_ 

       _"अच्छा.."_ सत्तू बोला।

      फिर रामसेवक के पुत्र ने,हमें एक और चलने को इशारा करते हुए कहा--

        _"अंकल जी..माफ़ कीजिएगा,गृह प्रवेश का कार्यक्रम है ना..इसलिए घर के अंदर प्रवेश, रीति -रिवाज एवं पूजा -पाठ के बाद ही होगा।तब तक उस ओर इंतज़ाम किया गया है।कृप्या चलें..और भी सब वहीं बैठे हुए हैं।"_ 

       

     हम कोठी के दाहिने ओर चल पड़े।चारों ओर राम भजन की एक मीठी धुन बज रही थी,जो अंतर्मन को सुकून दे रही थी।कोठी के पहलू में विशाल "शामियाना" लगा हुआ था,जो,सुंदर तरीके से सज़ा हुआ था।फर्श पर नरम कालीन बिछी हुई थी और उस पर सलीके से गोल टेबल व कुर्सियां रखी हुई थी।हर टेबल के साथ छः कुर्सियों का इंतज़ाम था,जिस पर आए हुए मेहमान विराजमान थे। बैरों का समूह सब की आवभगत कर रहा था।चारों ओर..सब शांति से बैठे जलपान करते हुए,बातों में मशगूल थे।

        उस महफ़िल में हमारे क़दम रखते ही,सबकी निगाहें हम पर केंद्रित हो गई।अचानक दो जने अपनी कुर्सी से उठे और हमारी ओर लपके।आते की सत्येंद्र और मुझे आलिंगन में ले लिया।

          _"अरे हरजीत सिंह.. धन्यभाग यार,बड़े अरसे बाद तुम्हारे दर्शन हुए!"_ चेहरे तो बदल गए थे पर उनकी आवाज से पहचाना की,वो हमारा सबसे नटखट और शरारती दोस्त प्रदीप सिन्हा था!कद काठी तो बराबर थी,पर चेहरे और शरीर की बनावट काफ़ी बदल चुकी थी।

          _"प्रदीप सिन्हा.. कैसे हो यारा.."_ कहकर मैंने भी उसे भींच लिया।

     फिर सत्येंद्र से मिलने वाले मित्र से मिला जो"प्रतुल श्रीवास्तव" था!

     उन दोनों ने..हम दोनों को लेकर सब मित्रों के पास बैठाया, और हम एक दूसरे को मिलने लगे।कुछ को हमने पहचाना..कुछ ने अपना परिचय ख़ुद दिया! अनजान कोई भी नहीं था..पर, वक्त के थपेड़ों ने,उम्र का पर्दा तान दिया था..!लेकिन,बड़ा सुखद अनुभव व लम्हा था।मन भाव विभोर हो गया था...


               ( _जारी है.._ )

[7/14, 1:49 PM] Harjitsingh: (पृष्ठ- ५.)

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              *एक बहू ऐसी भी..*

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         बहुत सुंदर आयोजन किया गया था।उम्दा अल्पाहार और जलपान की व्यवस्था थी।मित्रों संग बातें करते हुए,हमने नाश्ता समाप्त किया।आज आसमान में बादल घिरे होने के कारण,मौसम सुहाना था..वरना इस गर्मी के मौसम में टिकना मुश्किल हो जाता !


      धीरे धीरे मेहमानों का आगमन होने लगा,तो,हम में से एक दोस्त ने कहा-

      _"चलो यारों..बाहर लोन में जाकर बैठते हैं।आज धूप भी नहीं है और शीतल हवा भी चल रही है।वैसे भी हमें मेज कुर्सियां दूसरे मेहमानों के लिए खाली कर देनी चाहिए.."_ 


      बात तो सही थी.. हम सारे मित्रों ने सहमति जताई और उठ कर बाहर आ गए।वाकई बहुत सुहाना मौसम हो रखा था।वहीं घास पर बैठ,हम फिर आपस में बातें करने लगे।विद्यालय के बाद की जिंदगी के उतार-चढ़ाव और अनुभव- उपलब्धियों को आपस में बांटने लगे।

       मैंने घड़ी देखी तो,दोपहर का एक बजने वाला था।अभी तक रामसेवक नहीं आया था।लेकिन, तभी गेट से "पुरोहित" का आगमन हुआ..साथ में रामसेवक का पुत्र,हाथ में पूजा की सामग्री उठाए हुए चल रहा था।वह कोठी के मुख्य द्वार पर पहुंचकर,सारी सामग्री वहीं पहले से पूजा के लिए निर्धारित स्थल पर रख दी। 'ब्राह्मण देवता' उन सामग्रियों को यथा स्थान स्थापित करने में जुट गए।

       तकरीबन दस मिनट बाद ही,एक "एस्कॉर्ट"कार कोठी के गेट में प्रवेश कर,सीधी पोर्च में आकर खड़ी हुई।ड्राइवर ने नीचे उतरकर,कार का पिछला दरवाज़ा खोलो।कार से "बुजुर्ग दंपति" नीचे उतरे।इसी बीच ड्राइवर के बग़ल वाला दरवाज़ा खोल,एक व्यक्ति उतरा और दंपत्ति को सहारा दिया।

          मैंने प्रश्न सूचक नजरों से, सतेंद्र की ओर देखा,तो मेरी मंशा को भांप कर उसने धीरे से मुझसे कहा-

        _"रामसेवक के माता पिता है.._ फिर उस व्यक्ति की ओर इशारा कर कहा- _"वो "रामसेवक साव" है।"_ 

         मैंने बड़े गौर से रामसेवक को देखा।वो तो बिल्कुल ही बदल गया था। स्कूल के समय में पतला दुबला शरीर होता था..परंतु,अब एक ह्रस्ट पुष्ठ रौबदार व्यक्तित्व हो गया था!


        हम सब खड़े हो गए और रामसेवक की ओर चल पड़े। रामसेवक ने सहारा देकर माता-पिता को पास में पड़ी कुर्सियों पर बैठाया।हम सारे मित्र पास पहुंचकर,बारी-बारी से बुजुर्गों के चरण स्पर्श करने लगे और आशीष बटोरने लगे।


        इसी दौरान..रामसेवक ख़ुद अपने हाथों से माता पिता के लिए जल लेकर आया।उसके संस्कार देख बहुत अच्छा लगा..वरना चाहता तो किसी नौकर को भी यह काम सौंप सकता था।उसका यह कृत्य,हम सब के दिलों में एक ख़ास जगह बना गया..

     जलपान करवाने के बाद, रामसेवक हम सब की ओर मुखातिब होकर बोला-

       _"क्षमा करना दोस्तों.. रेलगाड़ी एक घंटा देर से पहुंचने से विलंब हो गया..पर,आप सब ने अल्पाहार लिया ,कि नहीं!"_

         हम सब ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

       फिर उसने बारी - बारी से सबके साथ हाथ मिलाया और आलिंगन कर,अभिवादन किया। सत्येंद्र ने मेरा परिचय करवाया तो, ख़ुश होकर उसने कहा-

       _"वेलकम..पंजाब के पुत्तर! अरे..तुम्हारे बालों को क्या हुआ! तुम "अमिताभ बच्चन"कट रखते थे ना ।और वो,तुम्हारा फिल्मों में जाने का जुनून पूरा हुआ या यूं ही रह गया.."_ 

        _"कहां यार.. वो सपने,वो जुनून,बचपन की तरह पीछे छूट गए.."_ मैंने कहा- _"पर,दाद देनी पड़ेगी यार..आज तक तुम्हें वह बातें याद है!"_ 

         _"यार.."दोस्त "दूर हुए थे, पर यादें तो दिल के पास थी !कैसे भूल जाते..इन्हीं के सहारे तो तुम सब हमेशा याद आते रहे.."_ उसने कहा।फिर,सब को संबोधित किया-

        _"दोस्तों बहुत वक्त हो गया है..मैं 'फ्रेश 'होकर आता हूं,फिर पूजा पाठ और "गृह प्रवेश "का अनुष्ठान शुरू करते हैं।"_ 

         

           रामसेवक ने इशारे से नौकरों को बुलाया और वहीं मुख्य द्वार के सम्मुख,हम सबके लिए कुर्सियां बिछाने का निर्देश दिया। कुछ पलों में कुर्सियां बिछ गईं, और हम सब वही विराजमान हो गए।


        इसी बीच,पार्किंग हॉल के साथ में एक सर्वेंट रूम से,एक सुंदर स्त्री का आगमन हुआ।उनके हाथों में एक थाल था..जिसमें सुहाग की निशानियां,जैसे-साड़ी, चूड़ियां,सिंदूरी, इत्यादि रखा हुआ था,एवं साथ में एक कलश था.. जिसमें शायद चावल भरे हुए थे।

         वह स्त्री,जैसे ही हमारे सम्मुख आई तो,कई दोस्तों ने उन्हें "नमस्ते भाभी" से संबोधित कर अभिवादन किया! उन्होंने भी प्रतिक्रिया स्वरूप सब को नमस्ते कहा..

       मैं..हालांकि, पहली बार यहां आया था,सवालिया निगाहों से सत्येंद्र की ओर देखा,तो उसने कहा-

        _"ये रामसेवक की धर्म पत्नी "अंजलि जी" हैं.।"_ 

  

      मैंने हल्का सा सिर हिलाया और फिर उधर ही देखने लगा। अपने,स्वच्छ- धवल लिबास में वो,बिल्कुल देवी समान प्रतीत हो रहीं थीं।

       चलते हुए वे पुरोहित के पास गईं,और कलश एवं थाल थमा कर उन्हें कुछ निर्देश दिया।

          पुरोहित ने कुछ मंत्र उच्चारण करके,थाल में रखे सुहाग की सामग्री को,जलार्पण कर शुद्ध किया और फिर 'अंजली भाभी' को लौटा दिया।

        थाल पकड़कर भाभी जी अपने सर पर पल्लू डाल,सास- ससुर के पास आईं,और थाल साथ में खड़ी प्राचारीका को थमा कर,घुटनों के बल भूमि पर बैठ.. पहले ससुर,फ़िर सास के चरणों को प्रणाम किया।बुजुर्गों ने भी उनके सर पर आशीर्वाद भरा हाथ रख स्नेह दिया!


       इतने उच्च संस्कारों को देख, ऐसा महसूस हुआ,जैसे,हम कलयुग में नहीं..सतयुग में विचरण कर रहे हैं!हम सारे दोस्त निशब्द..मंत्रमुग्ध होकर सारे दृश्यों को देख रहे थे।

        कुछ पल उपरांत वो उठीं और सास को सहारा देकर उठाया और ससुर जी से कहा-

          _"पापा..आप ही रूम में चल कर स्नान कर लें,तब तक मां भी तैयार हो जाएंगी.."_ 

      और सब उस सर्वेंट क्वार्टर की ओर चल पड़े..

     

      आज,शायद उस सर्वेंट क्वार्टर का इस्तेमाल इसलिए हो रहा था,क्योंकि कोठी में तो पूजा- पाठ के बाद ही पदार्पण करना था!


     जैसे,दूरदर्शन में चल रहे नाटक की श्रृंखला देख रहे हों, कुछ ऐसा अनुभव हो रहा था.. लेकिन था तो यथार्थ ही ना.!


        हम सब फ़िर उनी कुर्सियों पर बैठ गए और आगे की कार्यवाही का इंतजार करने लगे...


                     _(जारी है..)_

[7/14, 1:52 PM] Harjitsingh: (पृष्ठ- ६.)

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             *एक बहू ऐसी भी..*

               *****************


     ' ब्राह्मण देव ' ने,अग्नि कुंड में होम के लिए लकड़ी सजा दी थी। एक थाल में हवन सामग्री,यज्ञ के लिए तैयार कर ली थी।आम पत्र पल्लव..एक घट पर रख स्वास्तिक का निशान अंकित कर, पुष्प की डलिया तैयार कर ली थी।यानी कुल मिलाकर अपनी ओर से वे प्रस्तुत थे..


       इसी बीच रामसेवक तैयार होकर आ चुका था,और पूजा स्थल के पास बैठने के लिए गद्दों को बिछवा रहा था।


          गद्दों के बिछ जाने से,हम सब कुर्सियों से उठकर,भूमि पर गद्दों पर बैठ गए।यज्ञ कुंड के चारों ओर आसन लगा दिए गए थे।


       रामसेवक ने फिर बारी बारी से हम सब से संक्षिप्त वार्ता की, और फिर पूजा की व्यवस्था में व्यस्त हो गया।


        अपराह्न के दो बजने वाले थे।तभी अंजली भाभी व राम सेवक के माता पिता,तैयार होकर आते दिखे..


       मुझे कुछ देख कर बड़ी हैरानी हुई...अमूमन देखा जाता है,इन सब मामलों में "गृहालक्ष्मी" यानी घर की बहू का ही वर्चस्व कायम रहता है या कायम रखती है..परंतु यहां पर स्थिति विपरीत दिख रही थी! जो वस्त्र एवं सुहाग की निशानियों को शुद्ध कराके वे अपने साथ ले गई थी..वो उनके अपने लिए नहीं..अपितु,वो सारी वस्तुएं उन्होंने,अपनी सासू मां को धारण करवाई थी!बड़ा सात्विक मंजर था।

          

         माताजी के मुख मंडल पर एक ईश्वरीय रूप विद्यमान था। साथ ही सफेद धोती कुर्ते में चल रहे पिताजी,किसी रूहानी दरवेश सा लग रहे थे।


      बड़ी ही अलौकिक अनुभूति हो रही थी,बड़ा स्वर्गीय आभास हो रहा था।अप्रतिम..अति उत्तम!


       चलते हुए सारा परिवार, हवन कुंड के पास रखे गए आसनों पर विराजमान हो गए। पंडित जी मंत्र उच्चारण करने लगे,हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित कर दी गई। "विप्र" के साथ-साथ यज्ञ कुंड में परिवार के सभी सदस्य हवन सामग्री और घी की आहुति देने लगे।समां भक्तिमय हो उठा..मन शांत व आनंदित हो गया।


       तब तक रामसेवक के पुत्र ने,बंद मुख्य द्वार पर रिबन बांध दिया,जो,शायद बाद में काट कर "गृह प्रवेश"होगा।


        तकरीबन आधे घंटे तक पूजा-अर्चना चलती रही।फिर चावल से भरे कलश को,शांति जल से पवित्र किया गया और उसी जल से पुरोहित ने खड़े होकर,हम सब पर छींट कर, "ओम शांति" का उच्चारण किया!


        तत्पश्चात,कंदमूल एवं फलों का भोग भगवान को लगाते हुए, आराधना संपन्न हुई।पंडित जी ने दरवाज़े की चौखट पर,फूलों को बिछा कर..चावल से भरे कलश को स्थापित किया।


    इसी कलश को गृहालक्ष्मी, अपने पैरों की ठोकर से गिरा कर, चौखट के अंदर दाखिल होगी।


      राम ने,माता पिता को उठाकर कुर्सियों पर बैठा दिया। फिर इशारा करके पहले से इंतजाम किए हुए,एक बड़ा थाल व एक जल से भरा पात्र मंगवाया। हम सब कौतूहल वश इस नजारे का अवलोकन करने लगे!


       बड़े थाल को पापा के चरणों के नीचे रख दिया और फिर जल से भरा पात्र जिसमें गुलाब की पंखुड़ियां मिश्रित थीं,से..रामसेवक उनके चरण अभिषेक करने लगा।..वाह! क्या मन भावन दृश्य था! परंतु..यह दृश्य और भावनात्मक तब बन गया,जब अंजली भाभी ने भी अपने पिता तुल्य ससुर के चरणों को जलाभिषेक किया।इसी क्रम में माता के चरणों का भी आशीर्वाद दोनों ने प्राप्त किया.!


       हम सब मूकदर्शक बन एक टक इस कृत्य को देख रहे थे..


     मैं तो बेबाक, इस संस्कारी माहौल में खो सा गया था।सोच रहा था..आए दिन रिश्तों को तार-तार करती,कितनी दर्दनाक घटनाएं सुनने को मिलती हैं। आज की इस मतलबी दुनियां में, वही पुरानी संस्कारी अनुभूति मिलना अकल्पनीय है।परंतु.. प्रत्यक्ष जो परिलक्षित हो रहा था, इसे भी नकारा नहीं जा सकता..। इस अद्भुत लम्हों का हिस्सा बनना मुझे गौरवान्वित कर रहा था।साथ ही अपने मित्र रामसेवक और उसकी पत्नी पर बड़ा नाज़ हो रहा था,जिन्होंने उन पुराने रीति-रिवाजों को जीवित रखा हुआ था।गर्व है तुम पर दोस्त..


       चरण वंदना पूर्ण होते ही, थाल में जो चरणामृत था..उसे अंजली भाभी ने एक खाली पात्र में एकत्रित कर लिया।


फिर भाभी ने भगवान के प्रसाद को प्लेट में सजा कर अपने हाथों से सास ससुर को खिलाया और आशीर्वाद प्राप्त किया ग्राम सेवक ने भी उनका अनुसरण कर माता पिता को प्रसाद का प्रत्यक्ष भोग लगाया और चरण छुए।अद्भुत.. विस्मयकारी!!


    इन सबसे फारीग होने के बाद, रामसेवक एवं अंजली भाभी ने, ख़ुद हम सब को प्रसाद वितरित किया..


                     _(जारी है..)_

[7/14, 1:54 PM] Harjitsingh: (पृष्ठ- ७.)

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             *एक बहू ऐसी भी..*

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                मैंने घड़ी पर नज़र डाली,तो,अपराह्न के ढ़ई बज रहे थे।इशारे से सत्येंद्र को समय के बारे में बताया और एक हाथ पेट को सहलाते हुए,क्षुधा का आभास दिलाया।

          सत्येंद्र खिसक कर मेरे पास आया और कान के पास धीरे से कहा-

          _"बस कुछ देर और यार..पाठ- पूजा संपन्न हो चुका है,बस अब गृह प्रवेश की रस्म पूरी करनी है। वह देख भाभी हाथों में तश्तरी पकड़ी हैं,जिसमें कैंची है। बस,उन्होंने कैची से रिबन काटना है और कलश गिरा कर ,अपने शुभ कदम घर में रखने हैं।केवल दस- बीस मिनट और बर्दाश्त कर.."_ सत्तू मुस्कुराया।

      मैंने सहमति से सिर हिलाया।

      वैसे कोई जल्दीबाजी भी ना थी.. वो तो बस यूं ही कह दिया। सुंदर संस्कारी आयोजन चल रहा था।जिसे हम आनंदित होकर परिलक्षण कर रहे थे!

       कुछ पल बाद रामसेवक ने सबसे आव्हान किया-

       _"आगत समस्त मेहमान एवं दोस्तों.. "गृह प्रवेश" की रस्म शुरू करनी है,सब से मेरा विनम्र अनुरोध है,आप सब पास आएं और अपने आशीर्वाद से हमें अनुग्रहित करें.."_ 

       तभी कुछ सेवक अपने हाथों में,फूलों से भरी थालियां पकड़, हमारे सम्मुख आए। हम सब ने अपने हाथों में फूल उठा लिए। यह फूल आशीर्वाद के रूप में रस्म के वक्त उन पर बरसाए जाने थे।

     पुरोहित ने आगे बढ़कर, 'अंजली भाभी ' के मस्तक पर तिलक लगाकर,'रिबन' काटने का अनुरोध किया..

        भाभी के हाथ में कैंची को देखते ही,सब ने तालियां बजानी शुरू कर दी,परंतु..अचानक भाभी पीछे मुड़ीं और अपने ससुर जी को आगे आने का आग्रह किया।

     पापा जी के आगे आते ही, भाभी ने सर पर पल्लू दुरुस्त किया..अपने हाथों में पकड़ी कैंची को,उन्हें थमा दिया और कहा-

        _"लीजिए पापा..आप रिबन काटकर उद्घघाटन कीजिए.."_ 

       इस अप्रत्यक्ष घटना को देख, सब स्तब्ध रह गए!सबकी सवालिया नजरें उनकी ओर देखने लगीं..

       यहां तक की रामसेवक भी प्रश्न सूचक निगाहें से अपनी पत्नी की ओर देखने लगे।शायद इस अप्रत्यक्षित क़दम का उसे भी पता नहीं था!

     जब भाभी ने अपनी ओर, जिज्ञासा भरी निगाहों को उठा पाया..तो उन्होंने मुस्कुरा कर जवाब दिया-

         _"माना..मैं इस घर की बहू हूं ..पर,मैंने कभी इसे अपना ससुराल नहीं समझा।क्योंकि.. मैंने इस घर में बहू नहीं,"बेटी "बनकर कदम रखा था.."_ फिर पास ही खड़े "अपने मां-बाप" की ओर इशारा कर कहा- _"वो मेरे जनक हो सकते हैं। इन्होंने ही मुझे पाल पोस कर बड़ा किया..संस्कार दिए,इतना काबिल बनाया,कि मैं इस घर के लायक बन सकूं।पर,इन (रामसेवक) से परिणय सूत्र में बंधते वक्त,पिताजी ने मेरे कानों में कहा था.. ("बेटी..इस चौखट से जब तू विदा होगी,तो,पीछे मुड़कर मत देखना,क्योंकि..यह आंगन तेरे लिए अब पराया हो जाएगा। और अपने ससुराल की चौखट के अंदर क़दम रखते ही..उस आंगन की मिट्टी को अपने शीश पर लगाना,क्योंकि..अब वही तेरा अपना संसार होगा ! वहां जो सास-ससुर होंगे,उन्हें बहू नहीं.. बल्कि "बेटी " बनकर स्वीकार करना ।उनकी मान मर्यादा और प्रतिष्ठा को,हमेशा शीर्ष पर रखना।कभी ख़ुद को वहां.. "साबित "करने की कोशिश ना करना..लोभ,मोह,कलह को त्याग कर..निस्वार्थ सेवा भाव रखना। और सदा उनके सम्मुख.. नतमस्तक रहना।मेरी सीख को गांठ बांध लेना बेटी..मेरी पगड़ी को कभी दाग़ ना लगने देना। देखना..तुझे कभी दुःख का सामना नहीं करना पड़ेगा..")_ कहते हुए,भाभी की आंखों में अश्रु थे।कुछ क्षण रुक कर कहा-

      _"तो,उन्हीं की दी हुई शिक्षा के आधार पर..और इस घर की बेटी होने के नाते,मैं अपने पापा के अधिकार कैसे छीन सकती हूं! यह नश्वर धन दौलत का लालच क्यों..जबकि शाश्वत "देव तुल्य"मां बाप के आशीष की दौलत पास हो! इसलिए..इस घर की बुनियाद और सबसे बड़े होने के कारण,यह हक़ इन्हीं को जाता है.."_ फिर क्षण भर रुक कर उन्होंने कहा- _"आइए पापा.. रिबन काटिए।"_  

   पापा जी (ससुर)भी हतप्रभ थे.. इस अकस्मात घटनाक्रम के लिए, वे भी प्रस्तुत ना थे।उनके चेहरे के भावों से प्रतीत होता था,कि,इतनी प्रतिभावान ' बहू रूपी बेटी ' को पाकर,वो फूले नहीं समा रहे थे.. बस व्यक्त करने के लिए,आंखों में आंसू बहना ही शेष रह गया था!

       उपस्थित ऐसा कोई मेहमान ना होगा,जिनकी आंखें इस वक्त नम ना थीं। मैंने भी अपनी आंखों के कोर से,नन्हीं अश्रु बूंद निकलती ही महसूस की..जिसे मैंने फ़ौरन उंगलियों से थाम लिया।

      पीछे खड़े,"भाभी के माता पिता"जो रुमाल से अपनी आंखें साफ कर रहे थे,आज कितना नाज़ कर रहे होंगे,कि उनकी बेटी ने,उनके दिए गए संस्कारों की मर्यादा का मान और उनकी पगड़ी की शान..कितने पवित्र तरीक़े से कायम रखी।

      आश्चर्यचकित रामसेवक, अपलक अपनी भार्या को देख रहा था।शायद..इस क़दर की स्थिति के बारे में,उसने भी सोचा ना था! निश्चित ही अगर एकांत होता,तो पत्नी को भावावेश एवं प्रेमावेश अपने वक्ष में भींच लेता..

       पापा जी ने,आपके कांपते हाथों से रिबन को बीच से काट दिया।साथ ही पुष्प वर्षा और तालियों की गड़गड़ाहट होने लगी। भावपूर्ण माहौल अब थोड़ा खुशनुमा हो गया।

       पापा(ससुर) के वृद्ध हाथ, बहू के सिर पर,आशीर्वाद के लिए उठ गए।स्नेह से सर पर हाथ फेरते हुए जैसे,जीवन की संजोई सारी ममता..आज उस पर उड़ेल दी हो।

     सत्येंद्र इस सारे घटनाक्रम को, अपने मोबाइल पर क़ैद कर रहा था।

      लेकिन मैं तो अभी तक वहीं अटका पड़ा था।सोच रहा था.. "मैं कहीं राम युग में तो नहीं.!"आज की जीवन शैली और मानसिक विचारधारा में,ऐसे किरदार मिलने नामुमकिन है।सोच रहा था..

  *"क्या ऐसी बहू भी हो सकती है !...* 

                   _(जारी है...)_

              एक बहू ऐसी भी..

    ऐसे अलौकिक अनुभूति में,मैं खोया हुआ था कि,पुरोहित की आवाज़ से तंद्रा भंग हुई-

         _"यजमान.. श्रीफल (नारियल) मंगवाई ।क्योंकि,द्वार खुलने से पूर्व..श्री (लक्ष्मी) की उपस्थिति आवश्यक है.."_ 

      दरअसल..नारियल को ही संस्कृत भाषा में श्रीफल कहा गया है। "श्री" यानी "माता लक्ष्मी" और "मां लक्ष्मी"के बिना कोई भी शुभ कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। इसलिए शुभ कार्यों में,श्रीफल अवश्य रखा जाता है।

     रामसेवक ने अपने पुत्र को इशारा किया।उसने कुछ पलों में पूजा सामग्री से,नारियल थाल में सजाकर प्रस्तुत किया।

       पुरोहित ने बेलपत्र एवं शांति जल अर्पण कर नारियल को शुद्ध किया और कहा-

       _"दरवाजे के सामने इसे फोड़_ _कर कपाट खोलिए। श्रीफल फोड़ने से पूर्व,परिवार के सब सदस्य से स्पर्श करें,जो कि आप सब का आशीर्वाद होगा"_

      सबने नारियल को स्पर्श कर प्रणाम किया और फिर रामसेवक ने अपने पुत्र से,दरवाजे के सम्मुख उसे फोड़ने को कहा। उसके पुत्र ने.."जय श्री गणेश" का उच्चारण कर,नारियल भूमि पर फोड़ दिया।फिर पुष्पों की बारिश हुई।

       _"अब, द्वार का कुंडा खोल कर..कपाट खोलिए"_ ब्राह्मण ने कहा।

      राम सेवक ने इशारे से अपनी पत्नी को कहा। अंजली भाभी ने किवाड़ के कपाट खोल दिए सबने तालियों से शुभकामनाएं दीं...

       कोठी का दरवाजा खुलते ही..कोठी के अंदर का नज़ारा अवलोकित हुआ।कोठी की सुसज्जिता..उसकी भव्यता बयां कर रही थी!ऐसा लग रहा था जैसे..कोई राजमहल हो!पूर्ण सलीके से बनाई गई कोठी,इस वक्त किसी मंदिर से कम ना लग रही थी!दरवाज़े पर आम एवं बेलपत्र की शुभ लड़ियां टंगी हुई थी।फूलों की खूबसूरत लड़कियां चौखट पर लटक रही थी,जैसे.. कोई दुल्हन चेहरे पर घूंघट ओढ़े हो! एक मिलाजुला एहसास.. "गृहस्थ और अध्यात्मक" का हो रहा था।और क्यों ना हो..जिस घर में मां बाप की संस्कारों सहित आराधना पूजा हो,वह घर वैसे ही "पवित्र धाम" बन जाता है!यहां मौजूद हर जन,इस श्रद्धा भक्ति से लवलेश था..सुंदर अति सुंदर..

        _"अब,गृहलक्ष्मी से आग्रह है कि,अपने बाएं पांव से इस कलश को चौखट के अंदर उड़ेल कर,साथ ही चौखट पार वायां कदम रखें..और ज़रा जल्दी करें, क्योंकि शुभ मुहूर्त निकला जा रहा है!"_ ब्राह्मण देव ने घड़ी देखकर कहा।

     सबकी निगाहें अंजली भाभी की ओर उठ गई..अंजली भाभी उठीं और कलश के पास आईं, फिर पलट कर अपनी सासू मां की ओर चल पड़ी,जो एक तरफ़ खड़ी थी।पास आकर अपनी सास का हाथ पकड़ कलश तक ले गईं और मुस्कुराकर कहा-

           _"मां.. यह शुभ कार्य आप संपन्न करें! पंडित जी आप मंत्र उच्चारण करें.."_ 

      आश्चर्य..अचंभित नजरों से माताजी ने अपनी बहू की ओर देख कर कहा-

         _"नहीं-नहीं बहू..देख,तू मेरी सबसे अच्छी और नेक बेटी है। तुझे पाकर हम वैसे ही धन्य हैं। तू..हमारी उस परमात्मा से की हुई आराधना का फल है.. परंतु यह अधिकार तेरा है बेटी।तू इस घर की अन्नपूर्णा है!यह रस्म तू ही पूर्ण कर बेटी.."_ माता ने बहू के सर पर हाथ रख कर कहा।

         भाभी ने सास का हाथ अपने हाथों में थाम मुस्कुरा कर कहा- _"मां..मेरे अन्नपूर्णा या गृहालक्ष्मी बनने से पहले,आप उस आधार की जननी है..जिनके कारण आज मैं इस लायक बनी। आपने तो मुझे अपने जिगर के टुकड़े को,मेरे जीवन से जोड़कर, वैसे ही धनवान कर दिया है।मेरी दौलत तो मेरा पति है ! ज़रा सोचिए मां..अगर आप अपनी सृष्टि मुझे ना सौंपती,तो क्या यह ऐश्वर्या मुझे मिलता.!तो,मेरे से पहले आप हम सब की महालक्ष्मी हैं और महालक्ष्मी माता के आगे, मैं कभी शीश नहीं उठा सकती। यह शुभ कार्य तो,आप ही संपन्न करें.."_ 

       भाभी जी के खूबसूरत उत्तर के आगे,उनकी सास बेबाक हो गईं।मां की आंखों से ख़ुशी के आंसू बहने लगे कुछ कहने को होंठ खोलें,पर थरथरा कर रह गए। बस..मां ने 'बेटी रूपी बहू' को अपने वक्ष में समेटकर,ललाट पर ममता भरा चुंबन किया..

       हम सब मूकदर्शक बन,इन सारी कार्यकलापों को निहार रहे थे।माहौल फिर बेहद मार्मिक हो गया था..मानो,समय रुक सा गया था ; लेकिन,कोई इस खूबसूरत लम्हे को छोड़ना नहीं चाहता था‌! ऐसे दिव्या वातावरण में मानों,सब खो गए थे।

       स्थिति और भी मार्मिक हो जाती,अगर पंडित जी मौन भंग ना करते-

      _"भाभी जी,ज़रा जल्दी करें..मुहूर्त सिर्फ दस मिनट का रह गया है!"_ 

        इस बार रामसेवक भी भावुक हो उठा था!मैंने उसे,अपने रुमाल से आंखें पूछते हुए देखा। वो आगे बढ़ा और मां के कंधे पर हाथ रख कहा-

             _"मां चलिए..अंजलि सही कह रही है!यह हक़ सर्वदा आपका ही है.."_ और उन्हें कलश तक ले आया।

       ब्राह्मण देव ने,एक लाल कपड़े की पोटली,माता जी को थमा दी,जिसमें मांगलिक वस्तुएं जैसे- नारियल,हल्दी,गुड़,चावल धूप,आदि थीं।तत्पश्चात उन्होंने शंख ध्वनि करते हुए,रसम शुरू करने का इशारा किया।माता ने अपने बाएं पैर के अंगूठे से,कलश को हल्की टक्कर मार,चौखट के अंदर गिरा दिया,जिसमें से चावल के दाने फर्श पर बिखर गए और साथ ही मां ने क़दम अदर रखा। सब ने फूल बरसाए और तालियों से स्वागत किया।

         उनके प्रवेश करते ही,उनके पीछे रामसेवक ने अपना दाहिना एवं भाभी ने अपना बायां पांव चौखट के पार रखा।हम सब उनके पीछे ही थे..    

       अंदर प्रवेश करते ही,एक अचंभा और प्रतीक्षा कर रहा था! जो अब तक के कार्यकलापों की पराकाष्ठा थी!क्या ग़ज़ब सोच थी अंजली भाभी की!उस अचंभे को देख हम सब के दिलों में,भाभी के प्रति श्रद्धा का संचार और प्रगाढ़ हो गया था।अब उनमें हम सबको देवत्व दिख रहा था...                       

                  (जारी है...)

             *एक बहू ऐसी भी..* 

             *****************

       प्रवेश द्वार के सम्मुख ही "लॉबी" थी,जिस के सामने उस पार,पहली मंजिल तक चढ़ती "सोपान" थी। "जीने" के दोनों ओर कमरे बने हुए थे।वहीं दाहिनी ओर,ठीक कमरे के साथ, एक छोटा सा "कक्ष" था।यह शायद पूजा कक्ष था..क्योंकि लॉबी में फर्श पर,मुख्य द्वार से लेकर उस कक्ष तक,फूलों को बिछाकर एक संकरी सी डगर बनाई गई थी।मुख्य दरवाज़े के सामने फर्श पर,एक बड़ी परात नुमा पात्र में,सुर्ख लाल कुमकुम का तरल भरा पड़ा था और उसी के पास एक तख्ती को,एक बड़े सफेद कोरे कागज़ से मोड कर रखा गया था।जैसे किसी तस्वीर का फ्रेम हो..

       अंदर की सजावट देखकर हम सब आत्ममुग्ध हो गए! राम भजन की धीमी मधुर संगीत की धुन वातावरण को भक्तिमय बना रही थी।एक जिज्ञासा वश हम सब उत्सुकता से आगे की कार्यवाही देखने को ललायित थे।

         सामने कुमकुम देखकर,मां ने राम सेवक की ओर देखा। मां को अपनी ओर देखते पाकर, रामसेवक में अंजली भाभी की ओर देखा।ऐसा प्रतीत हुआ जैसे, इस कार्य विधि से वह भी बिल्कुल अनभिज्ञ था।उसने पत्नी से इस बारे में इशारे से पूछा,तो,वे मुस्कुरा कर बोली-

           _"मां जी..आप अपने दोनों पांवों को,इस कुमकुम में भिगोकर..उसे सफेद तख्ती पर खड़े हो जाइए, जिससे आपके पांव के निशान उस तख्ती पर अंकित हो जाएं..।"_ 

        _"परंतु..ऐसा क्यों बेटी!"_ मां ने अचरज से बहू की ओर देखा।

          _"मां,आज के यह खूबसूरत और यादगार पल,कल समय के साथ लुप्त हो जाएंगे! परंतु..आप के पद चिन्ह,इन पलों की याद को हमेशा जीवित रखेंगे। यह हमें सदा आप का एहसास दिलाते रहेंगे और यह पवित्र पदचिन्ह सदा हमें सही राह पर चलने की प्रेरणा देते रहेंगे।"_ भाभी ने मुस्कुराकर रामसेवक की ओर देखकर कहा- _"इस बारे में_ _मैंने आपको भी नहीं बताया।जब आप मां पिताजी को स्टेशन लेने गए थे..तभी ये सारा इंतज़ाम अपने बेटे से कहकर करवाया था।"_ फिर थोड़ा रुक कर कहा- _"मुझे पता नहीं मां..मैं यह सही कर रही हूं या गलत,पर,यह मेरे मन की मंशा है और मैं आशा करती हूं आप मुझे मायूस ना करेंगे।"_

        मां के सब्र का बांध,इस बार टूट गया।नयनों के भरसक प्रयास के बावजूद..आंसुओं की धारा बह पड़ी।मां ने मुड़ कर पीछे खड़े अपने पति (रामसेवक के पिता) की ओर देखा..मानो,जैसे पूछ रही हों ' क्या करूं..आप बड़े हैं, कुछ सुझाव दीजिए '! पापा ने अपने दोनों हाथों का इशारा कर, उन्हें बच्चों के आग्रह को पूरा करने की अनुमति दे दी।

        _"आईए मां..अपने पांव कुमकुम में रखिए।"_ और एक हाथ पकड़ कर सहारा दिया।

      _"आप भी मां को सहारा दीजिए.."_ उन्होंने रामसेवक से कहा।

     रामसेवक ने मां के दूसरे बाजू को पकड़कर सहारा दिया।मां ने कुमकुम की परात में से चलते हुए,सफेद तख्ती पर अपने दोनों पांव रखें।तालियों और फूलों की बरसात इस बार जमकर हुई.. क्योंकि,आज जो वाक्या घटित हो रहा था,शायद आज तक ना किसी ने देखा और ना सुना था! इसलिए..इस समय हर कोई इस स्वर्गीय अनुभूति से वशीभूत था!

        कुछ क्षण तख्ती पर ठहरने के बाद,भाभी ने मां से "पूजा घर" की ओर चलने को कहा।

         मां नीचे उतर कर,फर्श पर बिछे फूलों को बचाकर चलने लगी,तो भाभी ने उन्हें रोक कर कहा-

       _”नहीं मां..आप इन फूलों के बने पथ पर चलकर पूजा घर में पधारें,क्योंकि..इस वक्त आप इस घर की महालक्ष्मी का रूप हैं, इसलिए,आप फर्श से नहीं,फूलों पर चलकर आएंगी..चलिए मां!"_ 

         उनके आगे क़दम बढ़ाते ही,रामसेवक के पुत्र ने मां के कदमों के निशान वाली तख्ती,बड़े आदर से उठाई और पूजा गृह की ओर,पीछे पीछे चल पड़ा।

    एक विलक्षण नज़ारा था।ऐसा लग रहा था जैसे,स्वयं मां लक्ष्मी का आगमन हो रहा था।मां के चेहरे पर भी रूहानी नूर खिल आया था!एक अद्भुत तेज प्रकाश मान हो उठा था।अपने होठों से कुछ बुदबुदा रही थी।मां शायद सारे जीवन का कमाया हुआ आराधना का फल..आज इस घर परिवार पर उड़ेल देना चाहती थी! बड़ा ही रूहानी अवसर था! वाह..!

     सत्येंद्र हर दुर्लभ दृश्य को, अपने मोबाइल में क़ैद करते जा रहा था.. मैंने भी उसे बुलाने की कोशिश ना की।

      मां फूलों के पथ पर चलते चलते,पूजा घर तक पहुंचीं।

      सामने "मां लक्ष्मी और गणेश जी" की अप्रतिम पत्थर की मूर्तियां,एक मंदिर बना कर स्थापित की गई थीं।पास ही "श्री राम परिवार"की मूर्ति विराजमान थी।एक ओर " मां अमृतानंदमई, 'अम्मा ' जी" विराजित थीं..जिन के रामसेवक अनन्य भक्त हैं! लेकिन,दूसरी ओर एक स्थान रिक्त रखा हुआ था।

        मां वहीं मंदिर के समक्ष बैठ गईं।सामने ही घी की जोत पड़ी हुई थी,मां ने माचिस उठाकर ज्योत प्रज्वलित की,तो..भाभी ने शंखनाद किया!फिर धूप जला कर,मां ने गणेश वंदना की।झुक कर माथा टेका और हाथ जोड़कर मंगल कामना की..

         सारे परिवार ने शीश नवाकर माथा टेका!हम सब ने भी हाथ जोड़कर नमस्कार किया।

      इसी दौरान रामसेवक के पुत्र ने,उस रिक्त स्थान पर माताजी के पद चिन्ह अंकित तख्ती,स्थापित कर दी.. फिर वही पात्र लाकर भाभी जी को दिया,जिसमें माता पिता के धोए हुए चरणों का जल था।

      भाभी जी ने रामसेवक को बुलाकर कुछ समझाया। फिर रामसेवक ने पात्र थाम कर,उस जल को पूरे घर में छींटा। वाह.! क्या सोच थी..इससे उस पवित्र जल का अपमान भी ना हुआ और उससे पूरे घर को पवित्रता भी मिली..

    आज आस्था और श्रद्धा का, एक अनूठा रिश्ता देखने को मिला!

    यह घटनाक्रम अगर कोई "नास्तिक" देखता..तो निश्चित ही इसे ढकोसलों का नाम देता,परंतु, "आस्तिक" व्यक्तित्व के लिए, अत्यंत ही पूजनीय कृत्य था!

  *"मानो तुम गंगा मां हो..ना मानो तो बहता पानी.."* 

      बहरहाल"गृह प्रवेश"का कार्यक्रम संपन्न होते ही..सब रामसेवक को बधाइयां देने लगे। परंतु,रामसेवक ने सब को रोककर अनुरोध किया-

         _"मैं सबका आभारी हूं.. और क्षमा मांगता हूं की,पूजा पाठ में कुछ विलंब हो गया..बधाइयां- शुभकामनाएं हम बाद में ले लेंगे, परंतु पहले विनती है आप सब भोजन ग्रहण करें.."_ वह सब की ओर हाथ जोड़ रहा था!

    मैंने घड़ी देखी तो,तीन बज चुके थे।लेकिन,अब कोई अफसोस ना था!क्योंकि,खानपान तो सारा जीवन चलता रहेगा.. परंतु, इतने नेक,पवित्र,संस्कारी व्यक्तित्व के दर्शन,शायद ही जीवन में कभी हो.!

   मैं दावे के साथ कह सकता हूं.. आज सबके दिलों में अंजली भाभी ने ऐसी छाप छोड़ी है,जो, सारी उम्र धूमिल ना होगी!एक बहू इस युग में..बेटी का अप्रतिम उदाहरण बन सकती है.. अविश्वसनीय.!!    

     इसी सोच के साथ हम सब भोजन कक्ष की ओर बढ़ गए..

                   

              एक बहू ऐसी भी..

               ****************

          राम सेवक ने बहुत ही उत्कृष्ट और लजीज़ भोजन का प्रबंध किया हुआ था।हर तरह के पकवानों से परिपूर्ण था यह "भोजन गृह"! परंतु..सब की अंतरात्मा तो आज जैसे,श्रद्धा और तहजीब रूपी खुराक़ पाकर तृप्त हो चुकी थी।श्रद्धा और भक्ति रूपी ऊर्जा के समक्ष, अन्न रुपी ऊर्जा का महत्व फीका पड़ गया था।

     रामसेवक,हर टेबल के पास जाकर मेहमानों और दोस्तों से विलंब के लिए खेद प्रकट कर रहा था।उसके आग्रह से हमने भोजन शुरू किया..लेकिन,आज के अनुष्ठान का फितूर दिमाग़ में जादू कर गया था।

         हम सब भोजन करते हुए चर्चा करने लगे..पर विषय वही, आज का अनूठा कार्यक्रम था! हमारा मुख्य प्रवक्ता इस वक्त, सत्येंद्र ही था।

          _"यारों, जिस प्रकार आज रामसेवक और अंजली भाभी ने, हर लम्हा यादगार बनाया है..क्यों ना हम भी कुछ ऐसा करें कि,उम्र भर उन्हें भी हम याद आए!"_ सतेंद्र बोला- _"देखो भाई..मैंने तो इस सारी प्रक्रिया की 'वीडियो रिकॉर्डिंग 'कर ली है,जिसे मैं एक सुंदर लघु फिल्म का रूप देने वाला हूं ।यह उन्हें उम्र भर इसकी याद दिलाती रहेगी।लेकिन, हम सब दोस्तों को मिलकर कुछ ऐसा तोहफा देना चाहिए,जो एक अमिट छाप छोड़ जाए !तो..फिर सोचो क्या उपहार दें.!"_     

        हम सब सोचने लग गए। इसी दौरान कई सुझाव भी मित्रों ने सुझाए,पर..पसंद ना आए। अंत में,दिल्ली से आए एक मित्र "राजकिशोर" के सुझाव को मान्यता दी गई।

      सत्येंद्र ने सब मित्रों के साथ, गुप्त मंत्रणा की और "प्रदीप" और "राकेश" को कुछ निर्देश देकर, इसको व्यवस्थित करने की जिम्मेदारी सौंप दी।

        भोजन से निवृत्त होकर हम भोजन कक्ष से बाहर आए।अभी कई मेहमान भोजन के लिए शेष थे।रामसेवक उनकी सेवा सत्कार में व्यस्त हो गया।

     _"तुम दोनों हमारी कार से, नज़दीक के बाज़ार से तोहफ़ा पैक करके ले आओ,तब तक हम यहां घूम फिर लेते हैं.."_ सत्येंद्र ने कहा।

        वे चले गए,तो हम बातें करते हुए चहल कदमी करने लगे।कुछ दोस्त बाहर जाकर पान,तंबाकू और कारतूसों का नज़ारा लेने लगे।हम तीन चार दोस्त घूमते हुए कोठी के मेन हॉल में पहुंचे,वहां भाभी जी कई महिलाओं के संग व्यस्त दिखीं..

      हमें देख कर,वे हमारे पास आकर मुस्कुराकर बोलीं-

        _"आप सब ने भोजन ग्रहण कर लिया..कि नहीं।"_ 

        _"जी भाभी जी..बहुत ही सुंदर और व्यवस्थित आयोजन हुआ..लाज़वाब और अविस्मरणीय!आपके पवित्र व्यक्तित्व को नमन। नए आवास की अशेष शुभकामनाएं..!"_ सत्येंद्र के साथ हम सब ने कृतज्ञता प्रकट की।

       _"अरे नहीं भाई साहब.. आप सब एक अच्छे इंसान हैं, इसलिए आपको सब में पवित्रता दिखती है।बाकी अपना अपना दृष्टिकोण होता है।आप सब का बहुत आभार व्यक्त करती हूं,जो, आप सब अपना कीमती वक्त निकालकर हमें आशीर्वाद देने आए...धन्यवाद!"_ भाभी ने अपने स्वभाव के अनुरूप उत्तर दिया- _"आप सब विराजिए,मैं ज़रा महिला मंडल से निवृत्त होकर आती हूं.."_

        _"जी भाभी जी.."_ हमने कहा और बाजू में रखे सोफे की ओर बढ़ गए,जहां भाभी जी के माता-पिता बैठे हुए थे।उनका अभिवादन कर,हमने अपना परिचय दिया।बहुत प्रसन्नता से उन्होंने आशीष दी।हम वहीं बैठ कर उनसे बातचीत करने लगे।

       थोड़ी देर बाद,वहीं राम सेवक के माता-पिता भी आ गए। उन्हें देखकर हम सब खड़े हो गए।भाभी जी के मां- बाप भी, उनके सम्मान में उठ गए।आते ही..अप्रत्यक्ष रूप से,राम सेवक के पापा,उनके कदमों में झुकने लगे।भाभी जी के पिता ने उन्हें बीच में ही रोककर गले लगा कर कहा-

             _"ये आप क्या कर रहे हैं,भाई साहब.!आप हमसे बड़े हैं..रिश्ते में भी और उम्र में भी! ऐसा करके आप मुझे,ईश्वर की निगाहों में पाप का भागीदार ना बनाएं।"_ हाथ जोड़कर उन्होंने कहा।

     उनके जुड़े हाथों को,अपने हाथों में थाम कर,राम सेवक के पापा ने कहा-

           _"नहीं भाई साहब.. इंसान रिश्ते या उम्र में बड़ा नहीं होता.. वो तो उसके संस्कार ही हैं जो उसे वरीयता प्रदान करते हैं। आप तो संस्कारों का वो खज़ाना हो,जो हज़ारों जन्मों के बाद भी उपलब्ध नहीं होता!आपने वही संस्कार रूपी खज़ाना..अपने बच्चों रुपी तिजोरी में संचित कर दीया।"_ उन्होंने कहा- _"परंतु.. इससे भी महान आपकी उदारता है,जो,आपने बेटी रूपी संस्कारों का धन हमें सौंप दिया।आपके इस कृत्य के आगे हम गौण्य हैं!आपकी महानता का कद,हम सब से कहीं ऊंचा दर्ज़ा रखता है। आपके परिवार से नाता जोड़ कर हम धन्य हैं..हमारा कुनबा आपका सदा आभारी रहेगा.!"_ उनके चेहरे के भावों में अटूट सच्चाई का पुट था।वे जो भी कह रहे थे,अपनी अंतरात्मा से कह रहे थे।उनकी आंखें झिलमिल थीं।

     दोनों संबंधियों ने एक दूसरे को गले लगा लिया।यह अदभुत मिलन हमें "भरत मिलाप" से भी अब्बल लगा।दिल को छू जाने वाला..

     दरअसल,जीवन में सारा खेल संस्कारों का ही होता है..यह आज प्रत्यक्ष देख लिया था!संस्कार ही इंसान का दर्ज़ा निहित करते हैं। ये संस्कार ही हैं,जो,मनुष्य को "फर्श से अर्श" तक का सफ़र तय कराते हैं!संस्कारों से ही इंसान में स्वभाव का रूपांतर होता है, और सौम्य स्वभाव से आप हर किसी के दिलों पर राज कर सकते हैं। बड़े से बड़े रुतबे को अपने सम्मुख नतमस्तक कर सकते हैं! सारी दुनिया जीत सकते हैं...

               *एक बहू ऐसी भी..*

                ****************

        एक के बाद एक.. इतने सुंदर घटना चक्र को देखकर,हम सब का हृदय जैसे..शांत,निर्मल, पवित्र हो गया था। वरना,एक स्थान पर बचपन के सारे मित्र इकट्ठे हों,और शरारत या नटखट पन ना हो,ऐसा असंभव था! परंतु,ऐसा जादू जहां देखने को मिल रहा था। हर कोई संजीदा नजर आ रहा था।

        तभी "पोर्च"मैं गाड़ी रुकने की आवाज सुनकर सत्येंद्र ने कहा-

      _"शायद.. दोनों आ गए। चलो देखते हैं.."_ 

         कहकर,सत्येंद्र और हम सब मुख्य द्वार के बाहर आ गए। प्रदीप और राकेश कार से उतर कर,उपहार निकालने लगे तो सतेंद्र ने मना करते हुए कहा-

          _"अभी इसे कार में ही रहने दो।रामसेवक और भाभी अभी व्यस्त हैं..जब फुर्सत में होंगे तो फिर "भेंट "कर देंगे.."_ फिर मेरी ओर मुड़कर कहा- _"जीते.. तुम एक काम करो,जो भी रकम इस उपहार को क्रय करने में लगी है..उसे जोड़ कर सब दोस्तों से उनके हिस्से की रकम इकट्ठी कर लो, ताकि किसी की भागीदारी इस शुभ कार्य में रह न जाए।"_ 

         मैंने तुरंत ही जोड़,घटाव, भाग,करके हल निकाला और सब दोस्तों को,उनके हिस्से आई रकम का व्योरा दे दिया।सब मित्रों ने रकम इकट्ठा कर राकेश को दे दी.. क्योंकि,संपूर्ण विक्रय की राशि उसी ने दी थी।

      इधर,हमारा हिसाब- किताब पूर्ण हुआ..उधर,रामसेवक कार्य संपूर्ण कर हमारे पास आ गया।

        _"क्या तुमने भोजन किया.. रामसेवक?_ सतेंद्र ने पूछा।

        _"हां कर लिया..तुम मित्रों में से,कोई भोजन से वंचित तो नहीं रह गया ना..भागा दौड़ी में,मैं तुम लोगों की ओर ध्यान नहीं दे पाया,क्षमा चाहता हूं।"_ रामसेवक ने खेद प्रकट किया।

     _"कर लिया भाई..सब ने भोजन कर लिया।अब तुम,दो मिनट हमारे साथ भी बैठ लो.. तुम्हारे संग तो ढंग से बातचीत भी ना हो पाई है यार.."_ सत्येंद्र ने हम सब की ओर से,रामसेवक को शिकायत जताई।

         _"हां..हां,क्यों नहीं यारों, अब मैं फुरसत में हूं।मैं यही लौन में बैठने का प्रबंध करवाता हूं, फिर गपशप लड़ाते हैं.."_ रामसेवक ने कहा ही था कि बूंदाबूंदी शुरू हो गई।

      _"लो..बारिश भी शुरू हो गई.._ फिर उत्सुक हो कर रामसेवक ने कहा- _"कोई बात नहीं..चलो यारों अंदर चलते हैं।मैं तुम्हें अपना घर दिखाता हूं!"_ 

      हम सब कोठी के अंदर चल पड़े।बारिश भी तेज हो गई थी। हम दोबारा मुख्य द्वार के अंदर प्रवेश कर "लोबी" में आए और रामसेवक के पीछे पीछे सीढ़ियां चढ़,पहली मंज़िल पर पहुंचे।घर बड़ा शानदार बनवाया था रामसेवक ने।संपूर्ण घर संगमरमर से निर्मित था।रामसेवक के सारे आवास को,हम सब ने बड़ी उत्सुकता से देखने के बाद.. कोठी की बनावट की सराहना करते हुए,बधाई दी..

     घूमते..घुमाते हम वापस 'लोबी' में आ गए,तो रामसेवक ने कहा- 

      _"बाहर बारिश हो रही है,तो हम यहीं बैठ जाते हैं।मैं अभी व्यवस्था करता हूं।"    

       उसने इशारे से एक नौकर को बुलाया और 'लोबी' में कुर्सियां बिछाने का निर्देश दिया..कुछ देर में ही वहां कुर्सियां बिछ गईं।हम सब वहीं बैठे बातें करने लगे।

    अभी थोड़ा ही वक्त बीता होगा की,अंजली भाभी अपने साथ एक बड़ा टेबल ले कर आईं।जिसे दो लोगों ने उठा रखा था,वहीं सोफे के बग़ल में उसे बिछा दिया..

       रामसेवक के पुत्र ने, बहुत सारे छोटे छोटे"गिफ्ट पैक"उस टेबल पर रख दिए।

         अंजली भाभी भी राम सेवक के पास ही,एक कुर्सी पर विराजमान हो गईं।हमारी बातों में वे भी घुल मिल गईं।         

       तभी वहां पंडित जी पधारे और प्रस्थान की अनुमति मांगने लगे।

      बड़ा अच्छा लगा..यह देख कर की,जैसे ही पंडित जी का आगमन हुआ,दोनों पति-पत्नी उनके समक्ष सम्मान में हाथ जोड़कर खड़े हो गए।

  "आयुष्मान भव: ...सौभाग्यवती भाव:"..का आशीर्वाद देकर,वो जैसे ही जाने को मुड़े..तो,अंजली भाभी ने उन्हें रोकते हुए कहा-

       _"ज़रा रुकिए पुरोहित जी.. कृपया विराजीए "_ कहकर 'गिफ्ट पैक' वाले टेबल से,एक बड़ा थाल उठाकर (जो एक सुंदर रुमाल से ढका हुआ था)पास में ही सोफे पर बैठे अपने माता- पिता एवं सास-ससुर के पास जाकर बोली- _"आप सब,इस सामग्री को स्पर्श करें,ताकि.. दक्षिणा के रूप में,ब्राह्मण देव को समर्पित कर सकें.."_ और ऊपर से रुमाल को हटा दिया।

       उस थाल में,सफेद रंग का कुर्ता एवं धोती,एक पीले रंग का "ऊं" लिखा हुआ अंग वस्त्र,एक नारियल...एक खूबसूरत छोटी सी चांदी की गणेश जी की प्रतिमा एवं कुछ धनराशि थी।

     पूरे परिवार ने उसे हाथों से स्पर्श किया,फिर रामसेवक ने भी स्पर्श कर नमन किया और तब, भाभी ने बड़ी श्रद्धा से अपने सिर पर पल्लू क़ायम कर..झुककर ब्राह्मण देवता को दक्षिणा सौंपते हुए कहा-

        _"विप्र..ईश्वर का रूप होता है..वो पुरोहित ही होता है,जो, आह्वान कर के..ईश्वरीय शुभता को स्थापित करता है।इसलिए उनका "स्वागत एवं प्रस्थान " खाली नहीं होना चाहिए!_ फिर थाल बढ़ाते हुए कहा- _"ये हमारे परिवार की ओर से,छोटी सी भेंट स्वीकार करें श्रद्धेय.."_ 

     यह क्या हो रहा था..हम सब जैसे,उनके आचरण से,वशीकरण की धारा में बहते चले जा रहे थे! दीन दुनिया से बेखबर हम जैसे.. फिर से "राम राज्य" में पहुंच गए थे!आज के इस युग में,कोई कलयुगी इंसान,इतना सटीक कैसे हो सकता था!अपूर्व..भाभी,जैसे हर एक बात को..हर एक रस्म को..इतनी बारीकी से निभा रही थी,कि,हर कोई विस्मित एवं मंत्रमुग्ध था।वाह.!क्या बात थी..

      पुरोहित ने सहर्ष भेंट स्वीकार की और प्रसन्न चित्त मुद्रा में प्रणाम कर,रुखसत हो गए।

        इसी बीच,बैरों ने आकर सबको चाय "सर्व" की।तभी रामसेवक ने कहा-

        _"मेरी सब दोस्तों से गुज़ारिश है के,सब आज रात यहीं रुकें।हम सब रात को "बैचलर पार्टी "मनाएंगे।थोड़ी मस्ती..थोड़ी शरारत का लुफ़्त उठाएंगे...क्या बोलते हो यारों.."_ 

        एक पल तो सब मौन हो गए,फिर सत्येंद्र ने ही मौन भंग किया-

       _"तुम्हारा आग्रह सर आंखों पर मित्र..लेकिन "बैचलर पार्टी " आज नहीं !आज इतने शानदार, पवित्र अनुष्ठान की गरिमा बनी रहने दो। हमें यहां से आज बहुत सारी उपलब्धियां एवं संस्कारिक स्मृतियां समेट कर ले जाने दो। पार्टी करके,इसे हम धूमिल नहीं करना चाहते। "बैचलर पार्टी "फिर कभी करेंगे..तुम पर ऋण रहा। क्यों दोस्तों..सब सहमत हो ना.?!"_ 

      _"हां भाई..सत्येंद्र बिल्कुल सही कह रहा है !हम सब इस मौके की पवित्रता को लेकर जाना चाहते हैं।आप सब के आदर्श और शुद्धता का वर्णन हम गर्व से,हर स्थान पर कर सकें..यही इच्छा है।"_ राकेश ने कहा।

    हम सब ने सहमति व्यक्त की..

     सब ने चाय समाप्त की,सत्येंद्र ने उठते हुए कहा-

     _"अच्छा दोस्त..अब हम प्रस्थान की अनुमति चाहते हैं। हम सबका यहां आना सार्थक हो गया।अंजली भाभी का व्यक्तित्व.. अंतरात्मा में अमिट छाप छोड़ गया है,जिसे,चिरकाल तक भुलाया नहीं जाएगा.!"_ 

           _"अरे रुकिए भाई साहब, थोड़ी देर और बैठीए.."_ फिर खिड़की से बाहर झांकते हुए, मुस्कुरा कर भाभी ने कहा- _"वैसे भी बाहर मूसलाधार बारिश हो रही है !आप सब ने हमारे सरल स्वभाव को इतना महान बना दिया..जितना कि है नहीं !सबका हमारी इस शुभ घड़ी में शामिल होने का आंतरिक धन्यवाद!चंद पल और बैठीए.."_ कह कर वे उठीं और रामसेवक को इशारे से साथ चलने को कहा..

       हम बैठे रहे और आगे होने वाले विस्मय का इंतजार करने लगे।

        कुछ वक्त बाद,भाभी और रामसेवक वापस आए।भाभी के हाथों में एक बड़ी सी तश्तरी थी, जिस पर कुछ 'गिफ्ट पैक' रखे हुए थे।

         वो दोनों बारी बारी से हम सब के पास आते रहे और बड़े विनम्र भाव से,एक एक 'गिफ्ट पैक' सबको देते रहे।

     हम सब ने रोमांचित हो कर गिफ्ट पैक खोले तो,उन की सद्भावना से अभिभूत हो गए। उस उपहार में एक बहुत ही प्यारी सी बाल गोपाल की चांदी की मूर्ति थी!..."श्री कृष्ण बालक के रूप में,घुटनों के बल रेंगते हुए माखन खा रहे हैं.."अति सुंदर!

     साथ ही एक चांदी से निर्मित "ब्रेसलेट"था,जिस पर लिखा था "सप्रेम भेंट..रामसेवक!"

      अभी हम इस मोह पाश से बाहर भी ना निकले थे कि,राम सेवक के संबोधन ने सबका ध्यान आकर्षित किया-

        _"दोस्तों..जिंदगी किसी के फ़रियाद की मोहताज नहीं होती! आज हैं..क्या पता कल हों ना हों। पर,वर्तमान के पल पर हमारा अधिपत्य है..इसलिए इसे संजो कर रखना चाहिए।यह भेंट आप सबको आज के पलों की याद दिलाती रहेगी.।"_ 

       उसकी आवाज़ में इतनी कशिश थी,कि,अपना दिल डूबता सा महसूस हुआ।जैसे- किसी अज़ीज़ से,बिछड़ने का दर्द सा महसूस होने लगता है..

     भारी कदमों से हम सब उठे और खामोशी से द्वार की ओर चल पड़े। दरवाजे तक पहुंचते ही, सत्येंद्र ने सब को रोक लिया।फिर प्रदीप को इशारा किया..प्रदीप इशारे को समझ गया और बाहर खड़ी कार की ओर लपक पड़ा..

    अगले क्षण,हाथों में सुंदर रंगीन कागजों में लिपटे हुए उपहार ले आया।

     सत्येंद्र ने राम सेवक एवं अंजली भाभी की ओर देखकर कहा-

        _"दोस्त..आप दोनों के आदर- सत्कार एवं तहजीब के समक्ष,जो भी नज़राना पेश किया जाए..तुच्छ है !लेकिन,यादगारी तो हम सब की ओर से भी बनती है।इसलिए,आप लोगों के स्वभाव एवं व्यक्तित्व के अनुरूप.. ताल मेल हो सके,ऐसी एक नग्णय कोशिश की है..कृपया इसे स्वीकार करें।"_ कहते हुए,बड़ा पैकेट राम सेवक को सौंप दिया, और छोटा लेकिन खूबसूरत पैकेट..अंजली भाभी को भेंट कर दिया।

     राम सेवक कुतूहल वश पैकेट खोलने लगा-

       _"क्या है इस में भाई.."_ वो खुश होकर,पैकेट खोलते ही विस्मित होकर बोला-

          _"अरे वाह..लाफिंग बुद्धा '!"_ 

         _"हां मित्र..मान्यता है कि मुख्य द्वार पर,'लाफिंग बुद्धा 'की प्रतिमा स्थापित करने से,सुख समृद्धि में बढ़ोतरी होती है।उस घर में खुशियां बेशुमार रहती हैं। वैसे,जिस घर में बड़ों का आदर होता है..मां बाप की पूजा होती है..संस्कार जीवित हैं..उस घर में किसी चीज़ की कमी नहीं होती.. परंतु,यह तोहफ़ा,हम सब की ओर से शुभकामना के तौर पर, हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा ! ख़ुश रहो..और अपना स्वभाव सदैव,इसी तरह सौहार्द बनाए रखना।"_ सत्येंद्र ने कहा।

     रामसेवक ने तोहफे को होठों से चुमा और अपने वक्ष में समेट लिया।

     _"थैंक यू दोस्त.. इससे बेहतर नजराना..और हो ही नहीं सकता था!"_ उसकी आंखें नम हो गईं।

       _"पर इसमें क्या है.?"_ भाभी ने कहा और अपने तोहफे को खोलने लगीं।जैसे ही तोहफ़ा आवरण रहित हुआ..तो अनायास ही उनके मुंह से निकला.."भगवत गीता!!".. फिर हम सब की ओर देखा और सिर पर पल्लू दुरुस्त कर,अपने मस्तक से लगाकर माथा टेका।

      _"जी भाभी.."_ सत्येंद्र ने फिर कहना शुरू किया- _"भगवत गीता"..इस महान एवं पवित्र ग्रंथ को,तोहफे के रुप में किसी को भेंट स्वरूप नहीं देना चाहिए, क्योंकि..हर कोई इसकी मर्यादा क़ायम नहीं रख सकता !परंतु, हम सब ने आपके पाक एवं संस्कारी व्यक्तित्व और सेवा सत्कार,श्रद्धा,भक्ति को चश्मदीद परिलक्षित किया है !हमें पूर्ण विश्वास है,आप इसकी मान- मर्यादा का संपूर्ण ध्यान रखेंगे। और वैसे भी..आप में स्वयं एक दैवीय गुण विद्यमान है !आप स्वयं एक सद्गुणों की खान है।इसलिए हमें यह भेंट..आपके अनुकूल लगा।इसके अध्ययन से आपके सुंदर चरित्र की आभा..और भी प्रकाशित होगी!हम सब की ओर से यह भेंट स्वीकार करें भाभी..।"_ 

      भाभी वैसे तो मुस्कुरा रही थीं,पर आंसू की एक बूंद हमने उनकी आंखों से लुढ़कते देखा। हमने महसूस किया कि वह ख़ुशी के आंसू थे!वो कुछ बोली नहीं, पलट कर पूजा कक्ष में जाकर,"श्री भगवत गीता" को भगवान के स्थान पर छोड़ कर वापस आईं।

    _"आप लोगों के दिए हुए उपहार.. सदैव हमारे हृदय में संचित रहेंगे! ऐसे उपहारों का चयन,कोई नेक दिल इंसान ही कर सकता है!मुझे गर्व है अपने पति पर,जिनकी संगत में इतने नेक दिल मित्र हैं! मैं प्रार्थना करती हूं परमात्मा से..वे आप सबको हमेशा इसी रूप में रखें.."_ थोड़ा चुप हो कर भाभी बोली- _"आप सब मेरे स्वामी के मित्र हो सकते हैं..लेकिन आज आप सब से,एक रिश्ता मैं भी जोड़ना चाहती हूं..आज से आप सबको मैं अपना "भाई "मानती हूं.. और आप सबको भाई के रूप में पाकर मैं धन्य हूं..।"_

        हम सब ने उनका अभिवादन किया।

       रामसेवक से रहा न गया..वो दौड़ कर हम सब के पास आकर गले लगने लगा।हम सब दोस्त एक दूसरे के कंधे पर हाथ रख, एक गोल घेरा बनाने लगे,जैसे बचपन में क्रिकेट के मैदान में बनाते थे!बड़े ही भावुक क्षण थे वो..

     कुछ देर बाद हम अलग हुए। बाहर बरसात भी थम चुकी थी। हम सब लौन की पगडंडी पर चलते हुए,बाहर गेट तक पहुंचे। रामसेवक भी साथ ही था।

    धीरे-धीरे सब दोस्त हाथ मिला कर विदा होने लगे। जो दूर से आए थे,जिन्हें रेल यात्रा करनी थी,उनको स्टेशन पहुंचाने के लिए रामसेवक ने वाहनों का इंतजाम कर रखा था।

      सब के विदा होने के बाद, अंत में हम विदाई लेने लगे..तो मन उदास हो गया।हाथ मिलाते वक्त,बस ज़ुबान से इतना ही निकला-- " फिर मिलेंगे.."

      घर वापसी के सफर में,हम उन सुखद पलों की चर्चा करते रहे।इन कुछ घंटों में हमने,इस युग में "राम राज्य" का सुख भोगा था! एक संस्कारी बहु देखी थी..एक आदर्शवादी बेटी देखी थी..मां बाप के आशीष की जन्नत महसूस की थी..एक बेटी के तहजीब दार पिता देखे थे!और सर्वोपरि.. सतयुग जैसे रस्मों को जीवंत पाया था।

       घर लौटते वक्त,ना जाने कितने "कारतूसों" का क़त्ल हमने कर दिया! विलम्ब से भोजन करने से,रास्ते में भूख भी ना लगी..

     क़रीब रात के नौ बजे हम घर पहुंचे। मुझे घर छोड़कर,सत्येंद्र अपने घर चला गया।मेरे लाख अनुग्रह पर भी,वह मेरे पास ना रुका।

     गाड़ी की आवाज़ सुनकर, अंजू (मेरी पत्नी) ने पहले ही द्वार खोल दिया था।

      मैं घर के अंदर प्रवेश कर, थोड़ी देर सुस्ताने के बाद,उठ कर तरोताजा हो गया।इसी बीच अंजू ने पूछा-

        _"कैसा रहा सफ़र और अनुष्ठान.."_ 

      _"लाज़वाब..यादगार.."_ मैंने कहा- _"सत्येंद्र ने सारी गतिविधि 'रिकॉर्ड ' की थी! देखना चाहोगी।"_ 

       उसकी सहमति पाकर मैंने अपना मोबाइल फोन अपने स्मार्ट टीवी के साथ जोड़कर ऑन कर दिया तकरीबन दो घंटे तक,हम सारा कार्यक्रम देखते रहे।

       मेरी पत्नी भी भावुक हो उठी थी।यह कार्यक्रम..शायद उसके भी दिल को छू गया था!उसने अपना सर मेरे कांधे पर टिका दिया।

  मैं सोच रहा था..काश!इस युग में "अंजली भाभी" जैसी,बहूएं हो जाएं तो घर स्वर्ग बन जाए..!!

     अब तो हमेशा याद रहेगा...

        *_बेटी के रूप में देखी है.._* 

         *_एक "बहू "ऐसी भी.!!_* 

                     *समाप्त!* 

 *_(एक नई सोच एवं परिवर्तन_ _के साथ.!)_*

यह कहानी कल्पनिक है..इसका यथार्थ में किसी भी घटना से कोई संबंध नहीं है!कहानी में पात्रों के नाम(जो मेरे बाल्यकाल के दोस्त हैं) एवं स्थानों के नाम वास्तविक हैं।


     प्रिय पाठकों..यह कहानी आपको कैसी लगी.. अपनी प्रतिक्रियाओं एवं समीक्षाओं के माध्यम से अवश्य अवगत कराएं!

मेरा संपर्क माध्यम,अंत में प्रकाशित है..

              सविनय निवेदन!

                             प्रतीक्षारत..

                     हरजीत सिंह मेहरा।  

                               🙏🙏 

 *स्वरचित@-*  

 *हरजीत सिंह मेहरा.* 

 *मकान नंबर- 179,*  

 *ज्योति मॉडल स्कूल वाली गली,*  

 *गगनदीप कॉलोनी,भट्टीयां बेट,* 

 *लुधियाना,पंजाब,भारत।* 

 *फोन- 85289-96698.*

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