
ब्लॉग प्रेषक: | हरजीत सिंह मेहरा |
पद/पेशा: | ऑटो चालक.. |
प्रेषण दिनांक: | 04-08-2022 |
उम्र: | 53 वर्ष |
पता: | मकान नंबर 179,ज्योति मॉडल स्कूल वाली गली,गगनदीप कॉलोनी,भट्टियां बेट,लुधियाना,पंजाब,भारत।पिन नंबर 141008. |
मोबाइल नंबर: | 8528996698. |
अनोखा..अनमोल तोहफ़ा!
कहानी!
पृष्ठ-१.
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अनोखा..अनमोल तोहफा!
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आज "15 अगस्त.. स्वतंत्रता दिवस" की चहल-पहल चारों ओर थी,परंतु,लुधियाना रेलवे स्टेशन के जी०आर०पी० एफ०(government Railway Police Force) के थाना प्रांगण को,कुछ अलग तरह से सजाया गया था।साफ सफाई का खास ख्याल रखा गया था।"ध्वजा रोहण" के लिए बड़े सलीके से तैयारियां की गई थी।सारा महकमा मुस्तैद नज़र आ रहा था। चारों और तिरंगे की छोटी-छोटी झंडीयों की लड़ियां सजाई हुई थीं, सड़क के किनारे सफेद चूने से लकीरें उकेरी गई थी।तत्कालीन एस०एच०ओ०(Station House Officer) साहब,सरदार दिलबाग सिंह "बग्गा"स्वयं हर हरकत एवं व्यवस्था का संज्ञान ले रहे थे।पुलिस थाने की रंगत,और दिनों की तुलना में,कुछ ज़्यादा ही चमक रही थी!
इस तैयारी और व्यवस्था का कारण था,आज के विशिष्ट अतिथियों का आगमन होना..जिन्होंने यहां आकर "तिरंगा फहराना"था।और वह विशिष्ट अतिथि थे,पुलिस कमिश्नर सरदार कुलदीप सिंह "औलख" एवं नए आई०पी०एस०(Indian Police service) ऑफिसर, जिनकी नई तैनाती लुधियाने में हुई थी।इनकी शान में कोई गुस्ताखी ना हो,इसलिए एस०एच०ओ० साहब ख़ुद दौड़-धूप कर रहे थे!
_"अरे सुंदरलाल.. वह पुलिस बैंड आ गया कि नहीं।"_ दिलबाग सिंह (एस०एच०ओ०) ने पूछा- _"और नाश्ते वगैरह का क्या सीन है..तैयार है ना.!_
सुंदरलाल..थाने में मुंशी के पद पर आसीन था।उसने फ़ौरन एस०एच०ओ० साहब को सैल्यूट कर कहा-
_"जी जनाब..सब दुरुस्त है।पुलिस बैंड भी आ चुका है जी।"_
_"वदिया.. देखीं कोई कमी ना रह जावे,अपनी इज्जत का सवाल है!"-_ (बढ़िया..देखना कोई कमी ना रह जाए,अपनी इज्जत का सवाल है।)- दिलबाग सिंह ने चेताया।
_"तुसी फिकर ना करो जनाब_ _सब कुछ ठीक-ठाक है_ _जी।"_ सुंदरलाल ने मुस्तैदी से कहा।
_"चल ठीक या..मैं चल के बाहर देखना हां..तू संभाल लईं।"_ दिलबाग ने कहा।
_"जी..श्रीमान जी.."_ और फिर सेल्यूट किया सुंदरलाल ने।
दिलबाग सिंह बरामदे में चहलकदमी कर रहे थे कि,उनकी फ़ोन की घंटी बज उठी।अपने मोबाइल को जेब से निकाल.. कॉल रिसीव की।कुछ देर बातें कर,तुरंत बरामदे से नीचे उतर कर, थाना प्रांगण परिसर में आए और हेड कांस्टेबल से कहा-
_"पवन कुमार..सारे जवानां नूं..लाइन हाज़िर करीं।"_
_"अभी जनाब.."_ कहकर पवन ने सब को कमांड किया।
चंद क्षणों उपरांत,सारे पुलिसकर्मी एक कतार में खड़े हो गए।
दिलबाग सिंह ने सब की ओर देखा और कहा-
_"कमिश्नर साहब का काफ़िला चल पड़ा है,कुछ ही देर में यहां पहुंच जाएगा।सबको जो ज़िम्मेदारी सौंपी गई है..उस पर अमल करो।कहीं चूक ना होने पाए.."_
_"जी जनाब.."-_
सबने एक सम्मिलित स्वीकृति दी और अपने अपने कार्य पूर्ण करने में लग गए।
फिर दिलबाग "बैंड पार्टी" की ओर देखकर बोले-
_"काफ़िले के उस गेट से अंदर आते ही,सुंदर सी धुन बजाकर उनका स्वागत करना.. फिर जब वो पताका फहराने जाएं,तो 'सारे जहां से अच्छा ' वाली धुन बजाना।पता लग गया सारेया नूं..कोई ग़लती ना करेओ.."_
_"जी..जनाब जी। फिकर ना करो श्रीमान जी.."_ बैंड मास्टर ने जवाब दिया।
सब कुछ दुरुस्त कर एस० एच०ओ० दिलबाग सिंह मैं एक दीर्घ श्वास ली..
कुछ..बीस मिनट बाद,कमिश्नर साहब का दलबल सहित,पूरा दस्ता थाना प्रांगण में दाखिल हुआ।पहले दो मोटरसाइकिलों पर पुलिसकर्मी,फिर एक काली जिप्सी..जिस पर सशस्त्र पुलिस टुकड़ी मौजूद थी,फिर एक सफ़ेद अंबेसडर कार..एक बोलेरो और अंत में फिर एक जिप्सी का आगमन हुआ।
काफ़िले के गेट से दाखिल होते ही पुलिस बैंड की स्वागत धुन चालू हो गई थी।
जैसे ही प्रांगण में गाड़ियां रुकीं..अर्दली दौड़ता हुआ अंबेसडर की ओर गया,और कार का दरवाज़ा खोल कर,अदब से सैल्यूट किया।
दरवाज़ा खुलते ही बड़े रौबदार व्यक्तित्व वाले वर्दीधारी सरदार ने नीचे क़दम रखा।उनके छाती पर जड़े मेडल ही उनके ओहदे का वर्णन कर रहे थे।ये थे-- कमिश्नर,सरदार कुलदीप सिंह "औलख"। फिर साथ वाले दरवाजे को बड़े अदब से ड्राइवर ने खोला,तो एक नौजवान युवती ने बाहर क़दम रखा।उसने भी वर्दी पहन रखी थी।सर पर टोपी आंखों पर धूप वाला काला चश्मा, वर्दी की बेल्ट के साथ सर्विस रिवाल्वर उसको और भी रौबीला बना रहा था।उसे देख सब हतप्रभ थे!
दूर खड़े दिलबाग सिंह,लपक कर उनके पास आए,और आते ही एड़ियां पटक कर सावधान की मुद्रा में तन कर,एक करारा सेल्यूट ठोक कर अभिवादन किया।
_"आपका स्वागत है सर.."_ कहकर दिलबाग उसी मुद्रा में खड़े हो गए।
_"आराम से दिलबाग सिंह.._ _एट इज।"_ कमिश्नर साहब ने कहा- _"इनसे मिलो.."_ (उस युवती की ओर इशारा कर) _"ये यहां की नए आई०पी०एस० ऑफिसर.."दीपशिखा चौहान"हैं। आज से ही कार्यभार संभालेंगीं।"_
सब विस्मित होकर उसकी ओर देखने लगे।इतनी कमसिन और कम उम्र वाली लड़की.. इतने बड़े ओहदे पर,सब अचंभित थे!
सारे महकमे ने,उनके सम्मान में सैल्यूट ठोका..।
स्वागत की प्रक्रिया पूर्ण होते ही,कमिश्नर ने सारे जवानों को 'आराम से ' का इशारा किया,जो अभी तक सावधान की मुद्रा में खड़े थे।
दिलबाग सिंह ने सबको अपने दिए हुए कार्य को संभालने की हिदायत देते हुए,कमिश्नर साहब और मैडम जी को पुलिस चौकी के अंदर,व्यवस्थित विश्राम स्थल की ओर चलने का आग्रह किया...
(जारी है...)
[8/4, 3:45 PM] Harjitsingh: (पृष्ठ- २)
दिलबाग सिंह के साथ चलते चलते कमिश्नर साहिब ने कहा-
_"वैसे दिलबाग ,अगर हम पहले ध्वजारोहण कर लेते,तो अधिक अच्छा होता।"_ कलाई घड़ी देखते हुए कहा- _"हमें और भी कई काम निपटाने हैं।मैडम जी को भी,कुछ खास गतिविधियों का ब्यौरा देना है।"_
_"जी जनाब.. बस दस मिनट।लड़के व्यवस्था कर रहे हैं,शीघ्र ही हम समारोह संपन्न करेंगे।"_ मिन्नत के लहजे से बोले दिलबाग सिंह।
_"ठीक है..जल्दी करो.."_ कहकर कमिश्नर साहब थाने में प्रवेश हुए और वहां रखी कुर्सियों पर पहले दीपशिखा मैडम को बैठने का अनुरोध किया,फिर ख़ुद विराजमान हुए।
थाने में मुंशी सुंदरलाल ने, ठंडा पेय..एक ' ट्रे ' में रखकर पेश किया और फिर अदब से सलाम कर,एक और खड़ा हो गया।
_"दिलबाग सिंह..कैसा चल रहा है सब.."_ कमिश्नर ने पूछा।
_"जी वदिया (बढ़िया) श्रीमान जी..सारा काम ठीक है जनाब।"_ दिलबाग बोले।
_"अच्छा दिलबाग..ये रेलवेज का माल गोदाम,तुम्हारे ही अधीन है ना.."_ कुलदीप सिंह ने पूछा।
_"जी श्रीमान.. क्या बात हो गई साहब!"_ दिलबाग अचानक पूछे गए,इस सवाल से कुछ हड़बड़ा गए।
_"कुछ नहीं..बस वैसे ही।"_ तनिक रुक कर कमिश्नर बोले- _"अच्छा पता लगाओ.. "रमन कुमार बोहता "नाम का कोई व्यक्ति,जो रेलवे माल गोदाम में,पेटियां ढोने का काम करता था,आज भी यहां मौजूद है..कि नहीं।अगर हो तो उसे यहां पेश होने का फ़रमान भेजो।"_
_"की गल्ल हो गई साहब.. तुसी मैनू दस्सो,मैं हल कर देवांगा।_ (क्या बात हो गई साहब..आप मुझे बताइए,मैं हल कर देता हूं)-- दिलबाग सकपका कर बोले।
_"अरे नहीं,कोई ख़ास बात नहीं..बस उससे मिलना था।"_ कमिशनर कुलदीप सिंह मुस्कुरा कर बोले।
_"जी जनाब.."_ अन मनस भाव से दिलबाग ने कहा।
दिलबाग सोच रहे थे कि,एक मामूली से माल ढोने वाले इंसान को,जनाब ने क्यों तलब किया। क्या काम हो सकता है उससे.. सोचते हुए मुंशी के पास जाकर, उसे ढूंढ कर लाने का निर्देश दिया। मुंशी सुंदरलाल चला गया।
तभी,एक सिपाही ने आकर "ध्वजारोहण"की सारी तैयारी मुकम्मल होने की इत्तिला दी।
दिलबाग सिंह अंदर गए और बड़े शिष्टता से कमिश्नर से बोले-
_"चलिए सर..आइए मैडम जी.. सारी तैयारियां हो चुकी हैं। 'ध्वजा रोहण 'के लिए आपका स्वागत है।_
कमिश्नर एवं आई०पी०एस० ऑफिसर्स,अपने स्थान से उठे एवं अपनी वर्दी और टोपी को दुरुस्त कर,थाना परिसर की ओर चल पड़े।
चौंकी के बरामदे के बाहर.. चौंकी से लेकर ' ध्वजारोहण ' स्थल तक,एक कालीन बिछा दी गई थी। जिस पर चलकर दोनों अफसर,वहां तक पहुंचे।एक ओर "पुलिस बैंड" की धीमी सी धुन बज रही थी.." सारे जहां से अच्छा.."।ध्वजारोहण मंच के सामने ही,सारे जवान सलीके से कतार बनाकर खड़े थे।
कमिश्नर साहब एवं मैडम जी के ' पताका स्टैंड ' पर पहुंचते ही,सारे जवान सावधान की मुद्रा में मुस्तैद हो गए।बैंड की धुन शांत हो गई।कमिश्नर साहब ने ध्वजारोहण के लिए "दीप शिखा" को आमंत्रित किया!
लेकिन दीपशिखा बड़े अदब से बोली-
_"नहीं सर,यह शुभ काम_ _आप के हवाले है।आप हमसे उम्र_ _में बड़े हैं एवं अभी तक मैंने_ _यहां का चार्ज नहीं संभाला_ _है।तो यह काम आपके_ _कर कमलों से होना चाहिए।"_
_"ओके..नो प्रॉब्लम.."_ कहते हुए कमिश्नर साहब ने आगे बढ़कर ध्वजा से बंधी रस्सी को, धीरे-धीरे खींचकर ध्वजा ऊपर तक ले गए।फिर साथ वाली बंधी रस्सी को खींच कर, बांधे गए तिरंगे को खोला।तिरंगे के फहराते ही..पुष्पों की बारिश होने लगी।
कमिश्नर साहब ने लहराते हुए झंडे को देख.."सेल्यूट" से तिरंगे का सम्मान किया।बिगुल की ध्वनि वातावरण में गूंज उठी,और तालियों की गड़गड़ाहट ने स्वागत किया।
बिगुल,तालियां एवं सेल्यूट की प्रक्रिया के बाद,राष्ट्रीय गान.. "जन गण मन.." का गुणगान हुआ।
सारी प्रक्रिया के बाद,एक छोटा सा संबोधन कमिश्रर साहब एवं मैडम दीप शिखा की ओर से प्रसारित हुआ।और ध्वजारोहण कार्यक्रम संपन्न हुआ।
कमिश्नर साहब एवं मैडम जी, प्रांगण से थाने में वापिस आ गए। बाहर स्वतंत्र दिवस के उपलक्ष में, मिठाईयां बांटी जाने लगीं।
आगत अतिथियों के लिए, उत्तम अल्पाहार का इंतज़ाम किया गया था।बड़े आदर से उन्हें "सर्व" किया गया।
कमिश्नर साहब एवं मैडम जी,अल्पाहार से फारिग हो रहे थे, कि,तभी मोतीलाल (अर्दली) ने दिलबाग को सूचना दी,कि," रमन कुमार बोहता " हाज़िर हो गया है..।
दिलबाग सिंह ने उसे बाहर बिठाने को कहा...
(जारी है..)
[8/4, 3:49 PM] Harjitsingh: (पृष्ठ- ३)
नाश्ता समाप्त होने के बाद दिलबाग सिंह ने कमिश्नर साहब को "रमन कुमार" के मौजूद होने की सूचना दी।
_"हां..ओनु एथे ही बुला लवो।"_ (उसे यहीं बुला लो) कुलदीप सिंह बोले।
दिलबाग ने,सुंदरलाल (मुंशी)को उसे अंदर लाने का इशारा किया।
कुछ पल बाद,एक साधारण सा शख्स..जिसकी उम्र लगभग 55 के इर्द-गिर्द होगी; साधारण सा लिबास,लेकिन साफ सुथरा। आंखों पर नज़र वाली ऐनक,अद कच्चे-पक्के बाल.. चेहरे पर हल्की कच्ची पक्की दाढ़ी,कंधे पर पुराना एक अंगोछा।दरमियांना सा कद,पांव में हवाई चप्पल पहने, हाथ जोड़े हुए दरवाजे से ऑफिस के अंदर दाखिल हुआ।अपने चेहरे पर अनिश्चितता के भाव लिए,बड़े संजीदा लहजे में बोला-
_"सत श्री अकाल..श्रीमान जी!तुसी मेनू बुलाया साहब!मेथों (मुझसे) की गलती हो गई जनाब?!"_
_"तेरा नाम 'रमन कुमार बोहता' है ना..जो माल गोदाम विच पेटियां ढोंनदा (ढोता) है।"_ कमिश्नर ने पूछा।
_"जी जनाब..मैं वही हां। पर,मेरे कोलों की गुनाह हो गया, सर.."_ हिचकिचाते हुए रमन ने पूछा और एक दृष्टि गुरनाम सिंह (एस० एच० ओ०)पर भी डाली।
गुरनाम सिंह तो पहले से ही इस कार्यवाही से अनभिज्ञ थे।
रमन कुमार पिछले तीस पैंतीस सालों से,लुधियाना रेलवे स्टेशन पर "माल पेटी" ढुलाई का काम कर रहा था।वह बहुत ही कर्मठ एवं विश्वसनीय व्यक्ति था। व्यापारियों का माल रेलगाड़ियों से उतारना एवं चढ़ाना उसके जिम्मे था।उसकी सत्यता की मिसाल हर व्यापारी देता थी।आज तक उसे के रहते,उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ था।बड़ा ही मृदुभाषी और दयालु प्रवृत्ति रखता था।अपने सामर्थ्य के अनुसार सबकी भलाई करता था।आज तक थाने में उसका चरित्र साफ सुथरा था। उसके विरुद्ध शिकायत तक ना दर्ज थी!
इन्हीं कारणों से ' रमन कुमार 'और ' दिलबाग सिंह ' असमंजस में थे,कि उसकी पेशी कमिश्नर साहब ने क्यों मांगी!
_"ओए..घबरा ना रमन,तू_ _कुछ नहीं कीत्ता.. बस दो गल्लां करनीयां हां,तेरे नाल.."_ (बस दो बातें करनी है तेरे साथ) कमिश्नर साहब बोले और पास पड़ी कुर्सी की ओर इशारा कर कहा- _"आ.. बैठ इत्थे.।_ (आओ..यहां बैठो)
अब रमन के माथे पर,पसीने की बूंदें झलकने लगी थीं।सांसे हलक में अटकती सी महसूस हो रही थी।भरसक कोशिश करके.. फंसी आवाज़ में बोला-
_"न...नहीं साब..म...मैं ऐद्दां ही ठीक हां।"_ (नहीं साहब मैं ऐसे ही ठीक हूं)
उसकी स्थिति भांप कर कमिश्नर साहब मुस्कुरा कर बोले-
_"ओए.. डर मत,तू कोई जुर्म में ही कित्ता..बैजा.."_(बैठो)
सकपकाते हुए,भारी कदमों से कुर्सी की ओर जाकर,रमन कुर्सी पर बैठ गया।
_"जे तेनु सज़ा देनी हुंदी तां,तेनु क़ैद वी कर सकते सी..पर कमलेया..तू ज़िंदगी विच्च एक ऐसा कम्म कित्ता है..जिस दे कारण असीं तेनु एक..अनमोल तोहफ़ा देना चांहदे हां!"_
(अगर तुझे सज़ा देनी होती,तो तुम्हें कभी भी गिरफ़्तार कर सकते थे।पर पगले..तूने जीवन में एक ऐसा काम किया है,जिस कारण हम तुम्हें अनमोल तोहफ़ा देना चाहते हैं)
_"तोहफ़ा..!कैसा काम किया मैंने जनाब।"_ बड़े आश्चर्यचकित होकर उसने निहारा।
अब रमन थोड़ा सा सहज महसूस करने लगा था। वो कुर्सी पर थोड़ा सा पहलू बदल कर,आराम से बैठ गया।
कुलदीप सिंह ने मुस्कुराकर, सामने रखी "कोल्ड्रिंक" की बोतल से एक गिलास में पेय भरकर, रमन की ओर सरकाते हुए कहा-
_"ले पी ले.."_
रमन ने इनकार किया तो उन्होंने कहा- _"पी ले..शर्मा ना.."_
रमन ने गिलास हाथ में उठा लिया और टकटकी बांधे,मैडम जी और कमिश्नर की ओर देखने लगा।
_"कितने दिन हो गए,यह काम करते हुए तुम्हें..रमन।"_ कुलदीप ने पूछा।
_"जी यही कोई..तीस पैंतीस साल!_
_"अच्छा..!पर तुमने कोई_ _तरक्की क्यों नहीं की! कोई खास वज़ह..कोई दुःख,तकलीफ.."_ कुलदीप ने माहौल को सहज करने की कोशिश की।
_"जी नहीं जनाब..बस वैसे ही।"_ कहकर रमन ने सिर झुका लिया।
_"क्या बात है..खुल कर बता।"_ कुलदीप बोले।
एक लंबी सांस लेकर रमन ने कहना शुरू किया--
_"ऐसी बात नहीं है साहब.. पैसा तो बहुत कमाया..रब्ब ने बहुत दित्ता,पर परमात्मा ने मेनू, पारिवारिक सुख नहीं दित्ता। (दीया)जब मैं कुंवारा था,कोई बीस बाइस साल की उम्र में,मेरे पापा का देहांत हो गया ।घर की जिम्मेदारीयां मुझ पर आ गई। पापा के जाने के ग़म में,माता हमेशा बीमार रहने लगीं।उन्हें कैंसर हो गया।उनके इलाज़ में,जो भी कमाता ख़र्च हो जाता।जमा पूंजी भी हौले हौले ख़त्म होने लगी।तीन साल इलाज़ चलने के बावजूद,मां की हालत बिगड़ती गई।आखिरकार एक दिन,माता ने मुझे कहा- "बेटा..मेरे जीते जी तू अपना घर बसा ले।मरने से पहले, मैं अपने पोते का मुंह देख लूं,तो चैन से जा सकूंगी।"खानदान में मामा के अलावा और कोई नहीं था मेरा।उसने दौड़-धूप करके मेरी शादी कर दी..घर में खुशियों की बहार आ गई।दिन बीतते गए.. माली हालात भी खस्ता होने लगी।मां की दवाई और गृहस्ती चलनी मुश्किल हो गई,पर मैंने हिम्मत नहीं हारी साहब! यूं ही तीन चार साल बीत गए..और एक दिन पोते की ख्वाहिश दिल में बसाकर,मां दुनिया से चली गई.."_ रमन ने आंखों से ऐनक हटा.. अंगोछे से आंखों में भरे आंसुओं को साफ़ किया- _"बड़ी मुश्किल से अपने आपको संभाला मैंने।खैर,दिन कटने लगे की,एक एहसास ने जैसे मेरी दुनिया उजाड़ दी!हुआ यूं कि एक दिन, मेरी पत्नी छत की सीढ़ियों से उतर रही थी,की पांव फिसलने से गिर पड़ी।उस वक्त वो पेट से थी। काफ़ी चोटें आईं,पर रब्ब का शुक्र कि बच गई।लेकिन गर्भ में पल रहे बच्चे को ना बचा सकें।चलो.. मैंने अपनी पत्नी को समझाया, 'कोई बात नहीं,ईश्वर फिर झोली भर देगा..' पर साहब पूरे सात साल बाद गर्भ हरी हुई थी।ठेंस तो लगती है ना।इलाज़ के बाद जब हम अस्पताल से छुट्टी लेकर घर वापस आ रहे थे तो,डॉक्टर साहब ने मुझे अपने 'चेंबर 'मैं मिलने को कहा।मैं अपनी घरवाली को चेंबर के बाहर बैठा कर,अंदर डॉक्टर की बात सुने चला गया।डॉक्टर ने मुझे कुछ हिदायतें दी और एक दिल हिला देने वाली ख़बर सुनाइ.."तुम्हारी पत्नी अब कभी मां नहीं बन सकती.."जब डॉक्टर ने ऐसा कहा,तो,मानो पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई।जैसे मेरी दुनिया ही उजड़ गई।अपना मन मार कर,जैसे ही उठकर पीछे मुड़ा तो,पत्नी को खड़ा पाया। जैसे सिर पर बिजली गिर गई हो, उसने सब कुछ सुन लिया था साहब...सब कुछ !मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश की..ऐसा कुछ नहीं है,कई बार डॉक्टर से भी चूक हो जाती है ..पर,बात उसके दिल पर गहरा असर कर गई।मां ना बन पाने की बात का सदमा,इतना गहरा हो गया कि, उसका खाना पीना छूट गया।वो गुमसुम सी रहने लगी और एक विक्षिप्त सी हालत हो गई !उसका भी बहुत इलाज़ कराया..पर वो मेरे साथ दस- बारह साल ही रहीं और..छोड़ गई!"_ एक सिसकी सी निकल गई रमन की आंसुओं की धार बह गई आंखों से..
उसकी व्यथा सुन कर,कक्ष में मौजूद कमिश्नर साहब,एस० एच० ओ० साहब,यहां तक की मैडम की आंखें भी भर आईं।
_"हुन तुसी दस्सों हजूर.. (अब आप बताएं हजूर) मैं तरक्की करके कि कराना मेरा ना कोई अग्गे (आगे )ना कोई पिच्छे (पीछे),बस जितना परमात्मा देते हैं,मुझ अकेले मानस के लिए बहुत है।"_ कह कर रमन चुप हो गया और अपने अंगोछे से आंखें पोछने लगा।
कक्ष में कुछ पलों का सन्नाटा छा गया।
_"बड़ी दुःख भरी दास्तान है तेरी..रमनेया"_ कमिश्नर ने सन्नाटा तोड़ा।
_"फिर तूने उस नवजात बच्ची को क्यों नहीं पाला..जो तुझे कहीं से मिली थी.."_
नवजात बच्ची का जिक्र करते ही जैसे कमिश्नर ने धमाका किया हो..रमन तो उछल ही पड़ा और विस्मित नजरों से कमिश्नर को देखने लगा....
(जारी है..)
[8/4, 3:56 PM] Harjitsingh: (पृष्ठ- ४)
बड़े अचरज और कौतूहल भरी आवाज़ से रमन ने पूछा-
_"पर जनाब.. उस नवजात शिशु के बारे में आपको कैसे पता.!"_
कमीशन ने धीरे-धीरे अपने सिर को सकारात्मक की मुद्रा में हिलाते हुए..अपनी ऐनक उतारकर मेज़ पर रखी और कहा-
_"शायद तुमने अभी तक_ _मुझे पहचाना नहीं।"_ थोड़ा रुक कर- _"मैं इसी थाने में,आज से तीस साल पहले,मुंशी हुआ करता था।तुम सब "मुंशी औलख" कहते थे मुझे,याद है...उस रात तुमने लाकर मुझे ही तो उस नवजात को सौंपा था.. आया याद!"_
रमन का मुंह खुला का खुला रह गया।अपनी ऐनक को आंखों पर दुरुस्त कर..बड़े गौर से कमिश्नर को देखने लगा।
_"परंतु जनाब..मुंशी जी तो आपकी सेहत से बिल्कुल आधे थे,और उस समय दाढ़ी भी "शेभ "करके रखते थे।सर पर पगड़ी नुमा टोपी होती थी!अब तो ज़मीन-आसमान का अंतर है..कैसे पहचानूंगा आपको !अगर उस नवजात का जिक्र ना किया होता,तो पहचानना नामुमकिन था!"_ रमन रोमांचित था।
एक के बाद एक,विस्फोट हो रहे थे आज।अब रमन बिल्कुल सहज हो गया था।
_"हां भाई..वक्त के साथ सब कुछ बदल गया।इसलिए तो तुम्हारे बारे में पूछा,क्योंकि मुझे तुम्हारे बारे में सब पता है!"_ कुलदीप बोले- _"उस रात मुझे भी_ _"रौनक सिंह रंधावा "..जो उस समय,यहां के थाना प्रभारी थे,के साथ दौरे पर जाना था।तो, आनन-फानन..उस नवजात को लेडी कांस्टेबल "सरबजीत कौर " को सौंप कर,मुझे निकलना पड़ा था।फिर वो दो दिनों का दौरा, हफ्ते तक तब्दील हो गया।जब मैं दौरे से वापस आया तो,तुम कई दिनों तक मिले ही नहीं.."_ कुलदीप सिंह बोले।
_"हां साहब..उस वक्त मेरी माता का देहांत हो गया था,और मैं करीब एक डेढ़ महीने काम पर नहीं आया था।"_ रमन ने कहा।
_"हां शायद,ऐसा ही हुआ होगा.. फिर तभी मेरा तबादला खन्ना रेलवे स्टेशन पर ए०एस०आई० के ओहदे के साथ हो गया,और बात आई -गई हो गई।पर आज मौक़ा था और कुछ समय भी हाथ में था..तो दिल की जिज्ञासा उमड़ पड़ी.."_ फिर रमन की ओर देखकर कुलदीप बोले- _"सारा वाक्या विस्तार से बताओ.."_
कुलदीप ने मैडम की ओर देखा,जो बड़ी दिलचस्पी से सारी बातें सुन रही थीं।
तभी अर्दली में आकर चाय मेज पर रख दी।
रमन ने दीर्घ श्वास ली और आंखों को सिकोड़ कर,सोचने वाले भाव में पहुंच..कहना शुरू किया-
_"वो भी गर्मियों के ही दिन थे शायद..रात तकरीबन 11:30 का समय था।"पूजा एक्सप्रेस "जो अमृतसर से जयपुर की ओर जाती है,के आने का वक्त था।हम रेहड़े पर पेटियां लादकर,गोदाम से चार नंबर प्लेटफार्म पर छोड़ रहे थे।वहीं गोदाम के बग़ल,रेल पट्टी के बाजू में,एक बहुत बड़ा कूड़े का अंबार है। "चौड़े बाज़ार " का सारा कूड़ा वहीं फेंका जाता है।उसी के बगल से सीमेंट की पतली पगडंडी बनी है..जिस पर रेहड़ा खींचकर हम पेटियां ढ़ोते हैं।दूसरे गेड़े,हम जब माल छोड़ने जा रहे थे,तो कुछ बच्चे जो कूड़ा बीनते हैं..उस कूड़े के ढेर से फेंकी हुई खराब बिजली की तारों को एक स्थान पर इकट्ठा कर जला रहे थे। तो मैंने उन्हें डांट कर कहा- 'दूर हो के अग्ग लगा ओए.. सारे कूड़े नूं अग्ग लग गई तां,अग्ग फैल सकदी है।'पर वह माने नहीं और वही हुआ..आग फैलने लगी। हमने भी खास ध्यान ना दिया।था तो कूड़ा ही।तीसरे गेड़े के लिए जब हम माल छोड़ने जा रहे थे,तो उस कूड़े के ढेर से,किसी शिशु के रोने की आवाज़ सुनाई दी।मैंने अपने साथियों से भी कहा कि, किसी बच्चे की रोने की आवाज़ आ रही है।लेकिन उन्होंने कहा.. तेरे कान बज रहे हैं।खैर हम माल छोड़ने चले गए।बस अब आख़री गेड़ा ही बाकी था,और ट्रेन का समय भी हो रहा था !तो जल्दी जल्दी हम गोदाम की ओर चल पड़े।तब तक कूड़े की आग काफ़ी भड़क चुकी थी। इस बार,जब हम कूड़े के ढेर के पास पहुंचे,तो बच्चे की आवाज़ काफ़ी तेज थी और सब ने भी सुनी।मैंने साथियों से कहा 'चलो यार देखते हैं '..लेकिन सब ने कहा,पहले गाड़ी पर माल चढ़ा देते हैं,नहीं तो जुर्माना लग जाएगा।मेरा दिल नहीं माना,मैंने सब से कहा 'तुम लोग जाओ मैं देख कर आता हूं '।उनके मना करने पर भी मैं कूड़े के ढेर की ओर दौड़ पड़ा।गर्मी का मौसम और उस पर आग का सेक, बर्दाश्त से बाहर हो रहा था।फिर भी मैंने अपने अंगोछे से अपना मुंह सिर लपेटा और शिशु को ढूंढने लग गया।ज़्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी,क्योंकि बच्चा लगाता रो रहा था,तो दिशा पता लग गई। जनाब..!जैसे ही मैं उस तक पहुंचा तो देख कर मेरी रूह हिल गई!वो मंजर आज भी याद करता हूं..तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं!आग का दायरा उस नवजात से सिर्फ एक फुट की दूरी तक रह गया था।और उस नवजात का शरीर..तपते हुए लोहे के जैसा लाल हो चुका था!मैंने आव देखा ना ताव,अपना अंगोछा खोला और शिशु को फ़ौरन ढका और उठाकर अपने सीने से लगाया, और गोदाम की ओर भागा। गोदाम में हमने कूलर की व्यवस्था की हुई थी,जिस के तले हम सब आराम करते थे।उस वक्त भी कूलर चल रहा था..पर वहां कोई साथी नहीं था।शायद रेलगाड़ी में पेटियां लोड कर रहे थे।मैं वहीं बच्चे को लेकर बैठ गया,पर बदन से अंगोछा नहीं उतारा।क्योंकि हो सकता था सर्द गर्म को शिशु बर्दाश्त न कर पाता।करीब दस मिनट बाद,मैंने धीरे से शिशु को अपने वक्ष से अलग किया और जांचा तो,अब नवजात शांत था। उसकी सांसे भी चल रही थीं। अंगोछा हटाकर पहली बार उस शिशु के मुंख को देखा..तो उसका सौंदर्य रूप देखकर मैं मुग्ध हो गया।मैंने अंगोछा हटाकर उसके शरीर को जांचा,कि,कहीं चोट तो नहीं!तो देखा उसके बाजू पर ताप के कारण गहरा घाव हो गया था। उसे जांचने के दौरान ही मुझे पता चला कि,नवजात शिशु लड़की है। मेरा मन आनंदित हो उठा!एक बार फिर उसे सीने से लगाया.. जैसे वो मेरी ही संतान हो।उस समय पत्नी का भी त्रासदी का दौर झेल रहा था और संतान सुख से वंचित था। एक क्षण में मैंने निर्णय ले लिया,की इसे मैं अपनी संतान के रूप में गोद ले लूंगा।मैंने उसे लपेटा और जाने के लिए उठा ही था,कि, मेरे साथी आ गए।हाथ में बच्चा देखकर कई सवाल करने लगे।मैंने उनसे अपने दिल की मंशा बताई कि,मैं ही इसे पाल लूंगा।पर,मेरे दोस्तों ने मुझे भयभीत कर दिया कि..इस लफड़े में मत पड़ना..लेने के देने पड़ जाएंगे..पुलिस तुम्हें नाजायज फंसा देगी..तुझे झेल जेल हो गई, तो भाभी का क्या होगा!मैं जनाब..अनपढ़ बंदा,उनकी बातों से डर गया और उनकी राय से थाने चल गया।वहां आप मुझे मिले,तो मैंने उसे आप के हवाले कर दिया।काश.!उस वक्त भी अगर हिम्मत करके,उस शिशु को मांग लेता..तो शायद आज वो मेरे घर की परी होती!"_ कुछ देर सांस लेकर रमन फिर बोला- _"मैं सारी रात सो नहीं पाया था।बार-बार उस नन्हीं जान का चेहरा आंखों में घूमता रहा!सुबह फिर साहस बटोर कर थाने पहुंचा..कि वहां से उसे मांग लूंगा,लेकिन थाने में आप थे नहीं।एक सिपाही से जब इस बारे में पूछा,तो उसने कहा कि बच्ची को अनाथालय भेज दिया गया है।यहां फिर मेरी किस्मत ने धोखा दे दिया था..सर! चंद पल ख़ुशी के आए थे,जो मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गए।आज़ भी मुझे वह बहुत याद आती है.. जनाब!"_ कहकर रमन सिसकियों के साथ रोने लगा..
इधर..ख़ामोश बैठी मैडम, जिसने धूप वाला चश्मा पहन रखा था..के एक कोने में से आंसुओं की धार बह रही थी!
कमिश्नर ने भी ख़ुद को व्यथित महसूस किया। कई क्षण चुप्पी छाई रही।
कमिश्नर ने मौन बंद करते हुए कहा-
_"तूने उसे ढूंढा नहीं.? किसी अनाथालय या कहीं और.?"_
_"नहीं साहब..कहां ढूंढता उसे।दूध मुंहे बच्चे तो एक जैसे होते हैं।कोई पूछता तो क्या पहचान बताता।और अनपढ़ होने के नाते,कोई मेरे साथ चलता भी नहीं ना.."_ रमन ने उदास होकर कहा।
_"कोई पहचान तो होगी, जो_ _तुम्हें याद हो..अगर बता दो_ _तो मैं शायद मदद कर सकूं!"_ कमिश्नर साहब ने पूछा।
_"बस साहब..अगर पहचान है,तो मेरा वह अंगोछा या फिर वो बाजू पर गहरे घाव का निशान.. अगर मिट ना गया होगा तो.!पर, अब यह कहां मुमकिन है।क्या पता किस हाल में होगी.. और होगी भी या नहीं.."_
(जारी है..)
[8/4, 4:00 PM] Harjitsingh: (पृष्ठ- ५.)
काफी देर तक ख़ामोशी रही। कमिश्नर कुलदीप सिंह ने अपनी नज़रें फर्श की ओर झुका लीं और सोच में डूब गए।
_"अच्छा रमन.. अगर वह तुम्हें कहीं मिल जाए..या तुम उसे ढूंढ लो तो तुम्हें कैसा अनुभव होगा..या..तुम्हें कैसा लगेगा!"_ कमिश्नर बोले।
_"पता नहीं साहब..वह चंद पलों का एहसास,किस रूप में ज़ाहिर होगा और उसमें कितना अपनापन होगा..मालूम नहीं !पर इससे बड़ी बात..वो फूल सी परी, अब बड़ी होकर मेरी कहानी और जज्बातों को कितना समझ पाएगी..पता नहीं!"_ रमन मायूस सा बोला। फिर कुछ पल सोचने के बाद पूछा- _"पर जनाब, आज..जलसे वाले दिन,लकीर से हटकर मेरी आपबीती सुनने का मकसद,कुछ समझ नहीं आ रहा.. गल्ल की है साहब!"_ (बात क्या है साहब)
_"मैं समझाता हूं..इस दुनिया में,कई ऐसे नेक दिल इंसान मौजूद हैं, जो नेकी तो करते हैं पर,उन्हें पहचान मिलने के बजाय गुमनामी मिलती है। हमारे महकमे में "रिकॉर्ड रूम " होता हैं..जिसमें अच्छी बुरी वारदातों का सारा ब्यौरा,फाइलों में दर्ज़ रहता है।कुछ दिन पहले इसी तरह,किसी मुजरिम की फाइल तलाश रहे थे..तो एक ओर रखी कुछ फाइलों पर नज़र पड़ी। अपने अफसरों से इस बारे पूछा, तो पता चला कि ये वह फाइलें हैं, जिसमें उन लोगों के साहसिक और नेक कारनामे दर्ज़ हैं जिनकी मौजूदगी तो कागजों में है..पर उनके दावेदार या तो नदारद हैं.. या इनकी सुध ही नहीं ली गई है!"_ कुलदीप सिंह बोले- _"कोतुहल वश मैंने उन फाइलों को मंगवाया और उनका अध्ययन किया।कई साहसिक और शौर्य पूर्ण कारनामे दर्ज थे।उन्हीं फाइलों में एक तुम्हारी फाइल भी थी..जो किसी 'सतीश बजाज ' नामक क्लर्क ने तैयार की थी। मैंने जब उसका ब्यौरा पड़ा,तो मुझे तुम याद आ गए। वो फाइल मैंने निकाल ली और अपने ऑफिस में रख ली।यह सब कुछ ही दिनों पहले की बात है!इसी दौरान "दीपशिखा "का लुधियाना चार्ज संभालने की ख़बर मिली। दीपशिखा जब मुझसे मिली,तो मैंने उन्हें लुधियाना रेलवे स्टेशन में,"15 अगस्त "का "पताका रोहण " पर चलने को कहा,तो यह मान गई।मैंने इन्हें तुम्हारी घटना के बारे में बताया,तो बहुत प्रभावित हुई और इन्हीं के सुझाव से,तुम्हें इस कारनामे की एवज में ' तोहफ़ा 'देने की राय दी !इसलिए पहले तुम्हारे मुंह से सारी घटना सुनी.."_
रमन की आंखें फिर छलक आईं और हाथ जोड़कर बोला-
_"नहीं साब..आप मुझे यह तोहफा ना दें..क्योंकि,उस नन्हीं की जान मैंने तोहफ़े की लालच में नहीं बचाई।उसे सीने से लगा कर,मुझे चंद लम्हें ही सही..ऐसा प्रतीत हुआ था,जैसे,मेरे ही दिल का टुकड़ा हो!चंद पलों का ही रिश्ता था हमारा,लेकिन उसको आपके हाथों में सौंपते हुए,ऐसा लगा था..जैसे अपने जिस्म का कोई अंग काटकर,आपको दे रहा हूं !तोहफ़ा लेकर मैं उस रिश्ते.. उस एहसास को दागदार नहीं करना चाहता।अभी वह मेरे पास ना सही,पर मैं अपनी यादों में उसे अपनी "पुत्री "मान बैठा हूं!वो जहां भी हो..वाहेगुरु से अरदास है कि सुखी हो.!"_ कहकर रमन चुप हो गया।
_"तो अपनी पुत्री से मिलना_ _नहीं चाहोगे..रमन!"_ कमिश्नर कुलदीप सिंह बोले।
रमन असमंजस में उठ कर खड़ा हो गया।हतप्रभ..अचंभित.. हैरान होकर,कमिश्नर को देखने लगा..
उसी वक्त दीपशिखा अपना "पुलिस हैट" और चश्मा उतार कर टेबल पर रख चुकी थी और खड़ी होकर..दौड़ती हुई रमन के सम्मुख बैठकर,उसके चरणों को पकड़ रोने लगी!
हड़बड़ा कर रमन एक कदम पीछे हट गया और कहा- _"य..ये..आप क्या कर रही हैं मैडम जी.."_
_"ओए कमलेया..तू हाल्ले वी नहीं समझेया.!ए मैडम जी नहीं,तेरी वही नन्ही परी है,जिन्नू तू.. अग्ग चों सड़न तो बचाया सी.! और पागला..एही तां ओ अनमोल तोहफ़ा ए..जो तेनु देन आया सी..!"_
(अरे नादान यह मैडम जी नहीं तेरी वही नन्ही परी है..जिसे तूने आग में जलने से बचाया था।और पगले.. यही तो वह अनमोल तोहफ़ा है..जो तुझे देने आए थे.!)
कहकर इस बार कुलदीप भी अपने आप को ना रोक सके और रोने लगे।
परिस्थिति के अप्रत्यक्षित मोड़ से बौखलाए,रमन ने कभी कमिश्नर..कभी एस०एच०ओ०.. कभी मुंशी की ओर देखा..फिर एक हाथ अपने दिल पर रख छाती को भींच लिया,और चेहरा आसमान की ओर कर,आंखें बंद कर ली..जैसे,अचानक आई इतनी खुशी को बर्दाश्त करने की कोशिश कर रहा हो...
फिर आंसुओं से भीगी आंखों से,नीचे बैठी दीपशिखा के सर पर धीरे से हाथ फेरा,और कंधों से पकड़ कर उसे खड़ा किया।ऊपर से लेकर नीचे तक दीपशिखा को निहारा,और.."मेरी बच्ची.." कहकर अपने सीने से लगा लिया।
ऐसा कोई नहीं था उस कक्ष में..जिसकी आंखें रो ना रही हों। इतना वेदना पूर्ण और भावुक मंजर था..कि किसी का भी दिल पसीज उठता।
माहौल को सहज करने के मकसद से,कुछ देर बाद कमिश्नर साहब कुर्सी से उठे और दोनों के पास आकर उनके कंधों पर हाथ रख कर,दोनों को भावुकता से बाहर आने को कहा-
_"चुप हो जाओ मेरी बच्ची..ओए रमन,संभाल ख़ुद को यार !चलो बैठ जाओ..बैठ कर बातें करते हैं.."_
तीनों कुर्सियों पर बैठ गए। मुंशी के इशारे से,अर्दली एक ट्रे में पानी के चार गिलास लाकर सब को 'सर्व' किया और चाय के खाली कप उठा कर ले गया।
कुछ देर की चुप्पी को रमन ने तोड़ा-
_"लेकिन मैडम आपको.."_
बस इतना ही कह पाया था,कि दीपशिखा ने अपने हाथों से रमन का हाथ पकड़ कर कहा-
_"नहीं पापा..मुझे मैडम कह कर पराया ना करें।मुझे मेरे नाम से ,या बेटी कह कर ही पुकारें। मेरे मां-बाप ने मुझे जन्म देकर, कूड़े के ढेर पर फेंक दिया था ।यह सांसे..यह जिंदगी तो आपकी ही दी हुई है!अरे..उन्होंने तो मुझे अपने सीने से भी नहीं लगाया होगा !वह आप थे..जिसकी ममता भरी बाहों की छांव और वक्ष की गर्मी का..पहली बार एहसास मिला।भले ही मुझे पालने वाले पिता कोई और थे,पर मुझे इस संसार में जिंदा रखने वाले तो आप हैं।अगर चंद लम्हों की देर.. उस रात हो गई होती,तो आज मेरा वजूद ही ना होता !आप ही तो मेरे राखन हार हो,मेरे पिता.. इसलिए मुझे अपने से दूर ना कीजिए,मुझे अपना लीजिए...मुझे बेटी कहीए..."_
दीपशिखा की गुहार में वो असर था..जो पत्थर को भी पिघला देता..रमन तो इंसान था! अपने जज़्बात को काबू में रखते हुए,उसने अपना दूसरा हाथ दीपशिखा के हाथों पर रखकर.. थपथपाया।सूखे हलक से थूक निगल कर,हलक तर किया और बात आगे बढ़ाई-
_"ठीक है बेटी...लेकिन तुम्हें कैसे मेरे बारे में,,कमिश्नर साहब के बारे में,,और यहां के बारे में पता चला..या इस घटना के बारे में पता चला.?!_ रमन ने आसक्त होकर पूछा...
(जारी है..)
[8/4, 4:03 PM] Harjitsingh: (भाग- ६.)
_"ये भी..इत्तेफाक ही था!"_ कमिश्नर कुलदीप सिंह बोले-
_"हुआ यूं..परसों दोपहर मैं,अपने दफ़्तर में तुम्हारी ही फाइल देख रहा था,की,उसमें दर्ज एक फोन नंबर पर नज़र पड़ी, और साथ ही दर्ज़ था की,वो नन्हीं बच्ची को इसी शख्स ने गोद लिया था। "सुरेंद्र कुमार चौहान "एक नाम लिखा हुआ था।मैंने अपना मोबाइल निकाला और सोचा,इस नंबर पर डायल करके देखते हैं! पर,फिर सोचा क्या पता इतने अर्से बाद यह नंबर चल भी रहा है या नहीं!पर,मैंने नंबर डायल कर दिया।"_
_"अभी रिंग भी नहीं गई थी की,दीपशिखा मेरे दफ़्तर में दाख़िल हुई। इसके आने की सूचना,मुझे पहले से ही थी।मैंने इसे बैठने का इशारा किया।पहली बार डायल नंबर लगा नहीं.. लेकिन दोबारा डायल करने पर, रिंग चली गई।उसी समय दीप शिखा के भी फोन की घंटी बज उठी।मैंने सोचा उसको भी किसी का कॉल आ रहा होगा,और अपना फोन कानों से लगाकर इंतजार करने लगा.._
_दीप शिखा ने जब अपना_ _मोबाइल चेक किया_ _तो,मेरा नंबर देख..मेरी ओर_ _देखकर कहा-_
_"सर लगता है आपने गलती से_ _मेरा नंबर डायल कर_ _दिया है । मेरे फोन पर_ _आपका नंबर शो हो रहा है!"_
_बात सुनते ही मैं अचरज में पड़ गया और मैंने कहा- नहीं तो,मैं तो वो "सुरेंद्र कुमार चौहान" नामक व्यक्ति का नंबर डायल कर रहा था।तुम्हारा नंबर तो मेरे पास फीड है।"_
_क्या कहा सर..सुरेंद्र कुमार चौहान!यह तो मेरे पापा का नाम है..आप मेरे पापा को कैसे जानते हैं ?!उनका नंबर आपके पास कैसे आया.!दीपशिखा ने एक ही सांस में पूछ लिया।_
_मैं सोच रहा था..अगर यह इसके पापा का नंबर है,तो,इसके पापा के पास होना चाहिए था, इसके पास में नंबर कैसे!दिल चाहा पूछ लूं,पर फिर दीप शिखा को ज़्यादा उलझाना ठीक ना समझा ।सोचा यह बात किसी और दिन पूछ लूंगा,अभी इतना ही काफी था कि नंबर चल रहा था।_
_लेकिन,मेरी समझ में कुछ कुछ आने लगा था।दिमाग ने एक खाका बुनना शुरू कर दिया था। मैंने परमात्मा को दिल में याद किया और सोचा,कहीं मैं जो समझ रहा हूं,वह सत्य तो नहीं! पर,इसे प्रमाणित करने का जरिया,मेरे सामने बैठी युवती ही एकमात्र माध्यम थी।मैंने गहरी नजरों से दीपशिखा को देखा और तुम्हारी फ़ाइल उसकी और बढ़ा दी! दीपशिखा भी हतप्रभ मेरे चेहरे को निहारती फाइल पकड़ ली।मैंने उसे फाइल पढ़ने का इशारा किया और उसके चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगा।_
_"दीपशिखा जैसे-जैसे फाइल पड़ती गई,उसके चेहरे के भाव बदलते गए !वह कभी फाइल पड़ती..तो कभी नजरें उठा मेरी ओर देखती।मैंने देखा दर्द और जिज्ञासा के कई भाव उसके चेहरे पर आ जा रहे थे!_
_"य..य..यह तो मेरी कहानी है सर।जिस बच्ची..जिस शख़्स का जिक्र और जिस घटन का ब्यौरा दिया गया है,अक्षराक्ष वैसा ही है,जैसा मेरे पापा ने मुझे बताया था।उन्होंने कोई "परमजीत कौर " का जिक्र भी किया था,जिन से मुझे गोद लिया था!लुधियाना के.. अदालत के दस्तावेज भी मेरे पास मौजूद हैं.. कहते हुए दीपशिखा की आंखें भर आई थीं.._
_फिर कुछ देर ख़ामोश रहकर मुझसे बोली- 'मुझे इस कहानी के तह तक जाना है सर। क्या आप मेरी मदद करेंगे.?!'_
_मैंने दिल ही दिल मैं वाहेगुरु जी का शुक्रिया अदा किया कि,उस परमात्मा ने इस नेक काम को अंज़ाम देने में मुझे जरिया बनाया!इस करिश्मे में, शामिल होने के लिए,मैंने फ़ौरन हां कर दी!मेरी हां करते ही दीपशिखा को जैसे आत्मिक शांति मिल गई थी।_
_"फिर हम दोनों ने मिलकर, इस कहानी को पूर्ण रूप देने की युक्ति सोची। वैसे मेरा आज का कार्यक्रम "पैरेड ग्राउंड"मैं था,जहां मुझे 'ध्वजारोहण 'करना था और सलामी देनी थी !पर इस नेक काम को अंज़ाम देने के लिए,मुझे अपने सीनियर्स को झूठ बोलना पड़ा की,अचानक मेरी तबीयत बिगड़ने के कारण..मुझे डॉक्टर ने आराम करने की हिदायत दी है। इसलिए अपने असिस्टेंट को अपनी जगह भेज रहा हूं।फिर दिलबाग सिंह को संदेशा भेजा कि, हम "स्वतंत्रता दिवस "में तुम्हारे थाने का दौरा करेंगे और साथ ही सख़्त हिदायत दी कि, इसकी भनक मीडिया वालों को ना मिले।वरना झूठ की पोल खुल जाएगी और मेरी नौकरी को ख़तरा हो सकता है!..है ना.."_
कमिश्नर ने दिलबाग की ओर इशारा किया..दिलबाग ने स्वीकृति से सिर हिलाया।
_"मुझे और दीप शिखा को इस घटनाक्रम को पूर्ण रूप से जानना था।इसलिए हम दोनों ने तय किया कि,सारी घटना हम उसी के मुंह से सुनेंगे,जो इसका सूत्रधार है।और सुबह से हम कई तरह की भूमिकाएं बांधकर,तुम्हारे ही मुंह से..तुम्हारी नजरों से इस घटना को प्रत्यक्ष देखा और जान लिया.."_ इतना कहकर कमिश्नर चुप हो गए।
_"यह देखिए पापा.."_ दीपिका ने अपने बाएं हाथ की वर्दी का आस्तीन कोहनी तक उठाकर, बाजू पर वो निशान दिखाया,जैसा रमन ने कहा था- _"..और पापा.. आपका वह अंगोछा भी मेरे पास मौजूद है।"_
इन सब निशानियां को रूबरू देखकर,रमन का रहा सहा संशय भी दूर हो गया था!बड़े प्यार से रमन ने दीप शिखा के सर पर हाथ फेर कर पूछा-
_"लेकिन बेटा..तुम्हें अपनी जीवनी इतने विस्तार से कैसे पता.!क्या तुम अपने बारे में शुरू से ही जानती थी!?"_
_"नहीं पापा..मेरी आत्म कथा मेरे पिता (सुरेंद्र कुमार चौहान )ने बताई थी मुझे.._ दीपशिखा बोली।
_"बताई थी..!थी का क्या मतलब.? कहां है सुरेंद्र जी..!"_ रमन ने संदेह पूर्वक पूछा।
सुनते ही दीप शिखा फफक पड़ी....
(जारी है..)
[8/4, 4:08 PM] Harjitsingh: (पृष्ठ- ७.)
_"क्या हुआ बच्ची.."_ रमन ने ममता भरा हाथ,सिर पर फिरते हुए पूछा- _"कोई अनहोनी हो गई है क्या.!"_
_"हां..हां..बोलो शिखा। दरअसल मैं भी सुरेंद्र जी के बारे में तुमसे जानना चाहता था,पर तुम ज्यादा उलझ ना जाओ इसलिए नहीं पूछा था ।चलो,अब बात चली है तो बताओ.."_ कमिश्नर साहब ने भी सहमति जताई।
अपने आप को संतुलित कर दीपशिखा ने बताना शुरू किया-
_"मेरे पिताजी (सुरेंद्र कुमार)_ _अब इस दुनिया में नहीं है.."_ सुनते ही,रमन और कमिश्नर ने एक दूसरे की और देखा, शिखा ने कहना जारी रखा-
_लेकिन मृत्यु से पहले उन्होंने मुझे..मेरी सच्चाई से अवगत करा दिया था।पिताजी दिल के मरीज़ थे !ये रोग उन्हें तब लगा था,जब मां पिताजी और मेरा एकमात्र सौतेला भाई..जिसे मैंने तो नहीं देखा,पिता जी के मुख से सुना था..शिमला छुट्टियां बिताने गए थे।पिताजी एक मशहूर उद्योगपति थे।हमारी दिल्ली नोएडा में कपड़े की दो फर्में है , "चौहान टैक्सटाइल्स" के नाम से।धन दौलत पैसों की कोई कमी नहीं थी।पिताजी का जब भी मन करता था,घूमने निकल जाते।मेरे भैया की उम्र उस वक्त कोई छ: -सात साल की रही होगी। सारे परिवार को,पिताजी अपनी लग्जरी कार में ले गए थे। बहुत खुश थे तीनों.._
_शिमले मैं होटल पहले से आरक्षित था।तीन दिनों का टूर था। मुख्य आकर्षण था.._ _"स्नोफॉल" देखना।परंतु दो दिनों तक इंतजार करने के बाद भी,जब बर्फ नहीं गिरी तो,सब मायूस हो गए..घर वापसी की तैयारी कर_ _रहे थे,की,"गाइड"ने आ_
_कर सूचना दी के,शिमला से भी ऊपर "कुफरी"नामक जगह में बर्फबारी होने की आशा है। आनन फानन पिताजी सारा सामान कार में रखकर,कुफरी के लिए प्रस्थान किये।दोपहर तक कुफरी पहुंचे और होटल का कमरा बुक करा कर,सामान रखा ही था कि,बर्फ गीरनी चालू हो गई!पापा कहते थे कि सबसे ज्यादा उत्साहित मेरी मां थी !उन्हीं की ज़िद से सब (भाई पिताजी और मां )उस गिरती बर्फ में बाहर निकल गए।हालांकि पापा ने मना भी किया था कि अभी बर्फ में ना निकलो..लेकिन मां के आगे एक ना चली।सब बाहर गिरती बर्फबारी में मौज मस्ती करने लगे।तभी भैया दौड़ते हुए उस ओर चले गए..जहां जाना वर्जित था !वहां खतरा होने की वजह से कोई नहीं जाता था! पर इसका ध्यान किसी को ना हुआ। बर्फबारी के कारण,तब वहां सुरक्षाकर्मी भी नहीं थे। लेकिन पापा ने जब अचानक उसको देखा,तो दौड़ते हुए भाई के पीछे चल पड़े, आवाज दी..लेकिन तब तक देर हो चुकी थी!_
_उस वर्जित क्षेत्र में,बर्फ की "दलदल"थी।यानी ऊपरी सतह तो आपको ठोस दिखेगी,परंतु उस पर पांव रखते ही,क्षण में आप उसमें धस जाएंगे और ओझल हो जाएंगे ।यानी "मौत का कुआं "।_
_वही हुआ..!आवाज़ लगाते लगाते भैया का पांव उस स्थान पर पड़ा..और वो धसने लगे। पिताजी ने छलांग लगाकर उसका हाथ थामा जरूर..पर उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे,भाई को अंदर से कोई खींच रहा हो !भरसक प्रयास करने के बावजूद,भाई का हाथ पिताजी के हाथ से फिसल गया और वह आंखों से ओझल हो गए।पिताजी पागलों की तरह उसे पुकारते रहे..हाथों से बर्फ को हटाने का प्रयास करते रहे,लेकिन सब व्यर्थ!इस आघात को पिताजी बर्दाश्त ना कर पाए और तभी उन्हें दिल का दौरा पड़ गया.._
_मां ने जब यह मंजर देखा, तो चीख़ते हुए उस स्थान पर आईं और भाई को ढूंढने के प्रयास में आगे बढ़ने लगीं!लेकिन तब तक सुरक्षाकर्मियों की टोली,जो वहां पहुंच चुकी थी,ने मां को रोक लिया!उधर लोगों ने सावधानी से पिताजी को एंबुलेंस में डाल अस्पताल में पहुंचाया।मां को चौतरफा झटका लगा जिसका सदमा वो बर्दाश्त ना कर पाई और बेहोश हो गई!उन्हें भी तुरंत हॉस्पिटल में दाख़िल कराया गया। एक निमिष में,एक हंसता खेलता परिवार..दुखों के बवंडर में तहस-नहस हो गया..।_
_दिल्ली के बड़े अस्पताल में दोनों का इलाज़ चला।पिताजी तो कुछ दिनों बाद ठीक हो गए, लेकिन मां उस हादसे के बाद होश में ही ना आईं.. वो "कोमा "में चली गईं।ऐसी परिस्थिति की लड़ाई में,पिताजी अकेले पड़ गए। कारोबार के साथ-साथ,मां की जिम्मेदारी भी सर पर आन पड़ी। ख़ुद की तबीयत ख़राब होने के बावजूद,हिम्मत नहीं हारी।दिन बीतते गए,पिताजी ने सारे जतन कर लिए की,मां की चेतना वापस आ जाए..लेकिन कोई फ़र्क नहीं पड़ा।_
_फिर, पिताजी के किसी दोस्त ने उनको सुझाव दिया 'क्यों ना एक बच्चा गोद ले लो..शायद रौनकें देखकर तुम्हारी पत्नी भी ठीक हो जाए!' पिताजी को सुझाव अच्छा लगा।उन्होंने गोद लेने को शिशु की तलाश शुरू कर दी।कइ जगह गए,पर बात ना बनी। तभी अचानक व्यापार के सिलसिले में,पिताजी को 'लुधियाना 'आना पड़ा! यहां उनके एक मित्र "संदीप खुराना " थे, जो पेशे में वकील थे।अक्सर पिताजी जब भी इधर आया करते थे,तो उन्हीं के पास ठहराते थे।बातों बातों में पिताजी ने,बच्चा गोद लेने की बात उन्हें कही। इन्हीं दिनों मुझे भी कस्टडी में लेकर, अनाथालय भेजने की चर्चा हो रही थी।शनिवार को मुझे अदालत लाया गया था,ताकि मेरे दस्तावेज बनाए जा सकें और अनाथ आश्रम को सौंप दिया जा सके। लेकिन,जज साहब अनुपस्थित थे,और अगले दिन इतवार होने के नाते,बात सोमवार तक टल गई थी.!_
_पिताजी की बात सुनते ही "खुराना अंकल"के कान खड़े हो गए! उन्होंने पिताजी को पूछा 'तुम्हें लड़का चाहिए या लड़की.. 'पिताजी ने कहा 'जो भी सर्वप्रथम मिल जाए,उसे सहर्ष स्वीकार कर लूंगा!'..'तो फिर सोमवार यहां मेरे साथ कोर्ट में चलना..तुझे एक बच्ची की कस्टडी,सारी कार्यवाही एवं दस्तावेजों सहीत सोंप दूंगा।'_
_उस रात को खुराना अंकल ने ही,मेरी सारी आपबीती पिताजी को सुना दी।पिताजी कहते थे- 'तेरी_ _कहानी सुनकर मैं बहुत प्रभावित हुआ और तुम्हें ही अपनी पुत्री बनाऊंगा,दिल में ऐसा ठान लिया था। मैंने तो तुम्हारा नाम भी सोच लिया था.. "दीपशिखा", यानी "अग्नि शिखा " से निकलकर ,मेरे घर को "दीपक" की तरह रोशन करेगी..मेरी दीपशिखा.!_
_"मुझे गोद लेने की सारी प्रक्रिया पूर्ण कर,मुझे लेकर पिताजी घर वापस आए।मेरी परवरिश के लिए पूरे इंतजाम किए।घर में रौनक सी आ गई थी..बहुत ख़ुश थे वो!लेकिन जिस मकसद से मुझे गोद लिया था,वो सार्थक ना हुआ।मां से मुझे मिलाने के बाद भी,उनकी सेहत में कोई बदलाव ना आया।काफी सालों तक यह सिलसिला चला।मां कमज़ोर होती चली गई।उस वक्त मेरी उम्र कोई दस साल थी..जब मां ने आख़िरी सांसे गिनी।_
_मां की मृत्यु की ख़बर सुनते ही,पिताजी को दूसरी बार दिल का दौरा पड़ा!इस बार पिताजी की हालत नाज़ुक थी।लेकिन बड़ी जद्दोजहद से,उन्हें बचा लिया गया।पिताजी कहते थे 'दीपशिखा..पुत्री अगर तुम ना होती तो शायद मैं भी दम तोड़ देता,लेकिन सिर्फ तेरे लिए..मेरी जीने की आस जिंदा रही।'_
_फिर पिताजी ने सारा ध्यान मेरी परवरिश पर लगा दिया।वे कहते थे,"मेरा अब तुम्हारे सिवा, दुनिया में कोई नहीं बेटा।"उन्होंने मुझे अच्छी से अच्छी तालीम दिलाई,मुझे बेहतरीन संस्कार दिए।और जब मैं सोलह- सत्रह साल की हुई,तो मुझे अपनी "फार्म "में ले जाने लगे।धीरे-धीरे व्यापार की बारीकियां और दस्तावेजों से अवगत करवाने लगे।वह मुझे कारोबार के सारे गुण सिखाने लगे।लेकिन,मेरा मन देश के लिए कुछ करने को हमेशा लालायित रहता था।मैं भारतीय सेना में देश सेवा करना चाहती थी। जब पिताजी को दिल की मंशा बताई,तो,वे बहुत ख़ुश हुए!मेरी पीठ ठोकर बड़े फक्र से कहा- 'मुझे नाज़ है तुम पर..मेरी बच्ची, तू आगे बढ़ मैं तेरे साथ हूं..'_
_पढ़ाई में अब्बल होने के फल स्वरुप और पिताजी की हौसला अफजाई से,मैं सारी प्रतिस्पर्धाओं मैं उत्तीर्ण हो गई और आई०पी०एस० की तैयारी करने लगी।_
_तभी,एक रोज सुबह पिताजी की सेहत बिगड़ने लगी। सांसें उखड़ने लगी तो उन्होंने मुझे पास बुला कर,अलमारी की चाबी देते हुए कहा "लॉकर में एक बड़ा लिफाफा है ..उसे ले आ।"मैंने लिफाफा लिया और पिताजी के पास आकर बैठ गई।मैं परेशान हो गई थी "आप ठीक तो हैं ना प.. पिताजी.!"_
_हां मैं ठीक हूं,उन्होंने उखड़़ति सांसों से कहा,तू बैठे यहां।और फिर मुझे मेरी सारी हक़ीक़त बता दी।सब बताने के बाद,लिफाफे से अदालती दस्तावेज..अपनी प्रॉपर्टी के कागजात,जो मेरे नाम कर दिए थे उन्होंने,और आप का वही "अंगोछा",जो संभाल के रखा हुआ था,मुझे दिया और प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए कहा.. "तू आई०पी०एस० अफसर अवश्य बनना।तू कभी डोलना नहीं..मैं सदा तेरे साथ रहूंगा।तुझे मैंने जन्म तो नहीं दिया..पर रब्ब से अरदास करता हूं कि..हर जन्म में तुझ को ही मेरी बेटी बना कर भेजें! स..स..सदा सुखी रहना..." कहते हुए उनका शरीर शिथिल हो गया,आंखें पथरा गई..उन्होंने प्राण त्याग दीए.! मैं सुन्न हो गई.. कई पल तक आंसू ही नहीं निकले,पर धीरे-धीरे जब चेतना आई,तो मेरा हृदय चीत्कार कर उठा.. मैं पिताजी से लिपट कर रोने लगी थी!_
_पिताजी के जाने के बाद, मैं फिर अपने आप को उसी स्थान पर महसूस कर रही थी,जहां से मेरी कहानी शुरू हुई थी!..अनजान थी..वजूद मिला.. नाम मिला..परिवार मिला.. और आज फिर से अजनबी हो गई.._
_लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी पापा,(रमन कुमार)मैंने आई०पी०एस० के परीक्षाओं में भाग लिया और उत्तीर्ण भी हुई। ट्रेनिंग ली और अफसर बन गई। जब मेरी पोस्टिंग की बात हुई,तो तीन शहरों के ऑप्शन थे, अंबाला,लुधियाना और पठानकोट। लुधियाना को देख कर,मेरे दिल में भी अपनी कहानी के सच्चाई को परखने की इच्छा हुई..तो इसे चुन लिया।यह बात दिल में ठान कर ही आई थी,कि अपनी आत्मकथा की गहराई तक जाऊंगी.. और देखिए "माता रानी "ने पहले से ही सब कुछ तय कर रखा था!" _ दीपशिखा ने रमन के हाथों को मुट्ठी में पकड़कर,होठों से चूम लिया- _"आज फिर मुझे मेरा परिवार मिल गया!"_
काफी देर तक खामोशी छाई रही।
_"बेहद दर्द भरी दास्तान थी..बेटी! परंतु एक अच्छे इंसान से मिलने के सुख से वंचित रह गया।भगवान उन्हें (सुरेंद्र चौहान) अपने चरणों में स्थान दें।"_ रमन ने कहा- _"इस छोटी सी उम्र में बहुत दुख झेले हैं तुमने बेटी, परमात्मा तुम्हें रहमत बक्शें.."_
' हे करतारे..तेरे रंग न्यारे..'कमिश्नर ने दिल ही दिल में सोचा।"तेरा किया..तू ही जाने!" एक तरफ़ तू जिसे देता है..वो इस की कदर नहीं करते!इसे कूड़े के भाव फेंक देते हैं..
दूसरी ओर,जो पाता है..जो चाहता है,तू उसे प्यासा..तड़पता छोड़ देता है..
और जिसे मिलता है..जो इसे तराशता है..संवारता है..उसको इसका फल भोगने नहीं देता, उसकी सांसे ही छीन लेता है..
एक मां जन्म देकर अपनाती नहीं..दूसरी फिर मां ना बन पाने की तड़फ से,दुनिया छोड़ जाती है..और तीसरी के हाथ में आया हुआ फल छिन जाता है.. नियति तू इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती हो.!!
'हे करतार..मेहर रखीं.'अंतर्मन में मनन करते हुए कमिश्नर उठकर दोनों के पास आए,और दीपशिखा के कंधे पर स्नेह भरा हाथ रखा कहा-
_"मलाल ना कर मेरी बच्ची..देर आए दुरुस्त आए!जो होता है भले के लिए ही होता है! जितनी तकलीफें झेलनी थी,तूने झेल लीं,अब आगे तुम्हारा सुनहरा भविष्य है..उसे हासिल करो। उसकी "छननी " में छन कर,तुम दोनों श्रेष्ठ बनकर उभरे हो।उस वाहेगुरु का शुक्र मना कर,जीवन की नई शुरुआत करो..।"_ फिर रमन की ओर देखकर कहा- _"तुम जैसे नेक इंसानों से ही, दुनिया का वजूद टिका हुआ है।क्योंकि,तुम जैसे व्यक्तित्व वाले सज्जन..दीपक की तरह होते हैं, चाहे जहां भी रख दो,प्रकाश ही फैलाते हैं!जीवन में परोपकारी और भलाई करना कभी ना छोड़ना!"_ थोड़ा रुक कर बोले- _"आज मैं भी तुम दोनों से,एक रिश्ता जोड़ता हूं।आज से रमन को 'छोटा भाई 'और दीप शिखा को 'भतीजी 'का दर्ज़ा देता हूं!"_
रमन,दीपशिखा और कमिश्नर,खड़े होकर एक दूसरे की बाहों के घेरे में समा गए!एक आत्मिक दृश्य था..एक अनोखा रिश्ता प्रत्यक्ष था..
_"दीपशिखा कई कसौटियों पर घिस कर,अनमोल हो चुकी है..और कई हाथों से होते हुए, अनोखे तरीके से तुम्हारे पास वापस आ गई है रमन!अब यह *"अनोखा..अनमोल तोहफ़ा "* तुम्हें समर्पित करता हूं!अब इसे खोना नहीं..सदा सुखी रहो..."_
कहते हुए "कमिश्नर कुलदीप सिंह औलख"अलग हुए।थोड़े फासले पर जाकर मुड़े..भरपूर निगाहों से 'बाप-बेटी' को देखा और सैलूट किया।फिर मुड़कर थाने के दरवाज़े से बाहर चल पड़े।उनकी आंखें छलक रही थीं!
पीछे दीपशिखा अपने पापा रमन के वक्ष में सिमट गई थी। रमन को उसे सीने से लगा कर.. वही नन्ही परी जैसा स्पर्श महसूस हो रहा था..
*(समाप्त)*
🙏
यह कहानी काल्पनिक है। इसका किसी भी घटना से या यथार्थ से कोई संबंध नहीं है।
_यह कहानी आपको कैसी लगी..इसका निष्कर्ष अवश्य प्रेषित करें। आपके निष्कर्षों के बदौलत ही,आने वाली कहानियां प्रतिफलित होंगी। मेरी कहानी को आशीर्वाद देने का बहुत-बहुत शुक्रिया।🙏🙏_
*स्वरचित@-*
*हरजीत सिंह मेहरा,*
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