
ब्लॉग प्रेषक: | राजीव भारद्वाज |
पद/पेशा: | साहित्यकार |
प्रेषण दिनांक: | 06-02-2025 |
उम्र: | 37 |
पता: | गढ़वा झारखंड |
मोबाइल नंबर: | 9006726655 |
वेदना - हृदय की करुण व्यथा
वेदना - हृदय की करुण व्यथा।
रोज रोज की किच किच और ताना ने मेरे हृदय को छेद दिया था। एक फैसला लेना था, कड़ा फैसला। क्योंकि संवारना था मुझे अपने बच्चे का भविष्य और चाह थी सुख शांति की।
चलने फिरने में लाचार मेरी वयोवृद्ध माताजी जो मेरे घर पर बोझ बनी हुई थी, हो सकता है उन्होंने मुझ से उम्मीद कुछ ज्यादा ही पाल रखी थी। लेकिन मैं पैदा तो मर्द हुआ था जो बीतते वक्त के साथ मउगा में परिवर्तित हो चला था। मैं कोख और रक्तरूपी दूध का कर्ज उतारने में शायद सक्षम नहीं था। एक आदमी को चौबीस घंटे मां के देखभाल के लिए चाहिए था। संयुक्त परिवार नहीं था इसलिए इसकी संपूर्ण जिम्मेदारी मेरे कंधो पर थी।
काश मैने सोचा होता कि जिंदगी की खुशियों को दामन में समेटे जब दांपत्य जीवन में शिशु का आगमन होता है तो माता-पिता की सारी दुनिया उसके इर्द-गिर्द ही सिमट जाती है. मुस्कराहटें ठहाकों में बदल जाती हैं और हर पल उस बच्चे के नाम पर ही गुजार देने में, उसकी परवरिश में ही जिंदगी की शाम हो जाती है। बच्चों के वैवाहिक जीवन की पूर्णता के साथ ही जिम्मेदारियों के कर्त्तव्यों से अपनी इति श्री समझकर माता-पिता एक सुकून भरी जिंदगी की कामना करते हैं किंतु मां-बाप के त्याग, बलिदान, प्रेम, आत्मीयता को भूलाकर बच्चे अपने जीवन की आजादी में उन्हें ही रोड़ा मानने लगते हैं। उन्हीं माता पिता की उपस्थिति असहनीय हो जाती है, उनसे ही अलग होने का मन बना लेते हैं. जो बच्चे मां-बाप की आरजू हैं, जिंदगी का सहारा होते हैं, बुढ़ापे की लाठी होते हैं वे ही अपने बड़ों से अलग होने का मन बना लेते हैं. उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं। लेकिन इससे बड़ी बदनामी होगी सोच कर मैने एक प्लान बनाया। एक सौ चवालीस वर्ष बाद कुंभ का आयोजन और उसमें बेतहाशा भीड़ में मैने अपने प्लान को रचा।
बड़े आदर भाव से मैने अपनी माता जी को कुंभ स्नान का प्रलोभन दिया। धार्मिक प्रवृति की थी मेरी मां, तुरंत तैयार हो गई।
कुंभ स्नान के लिए भीड़ में जब मैने उसका हाथ पकड़ा तो मुझे वो दिन याद आया जब पहली बार विद्यालय ले जाने के लिए मेरा हाथ पकड़ कर मां अपने साथ ले गई थी। अचानक मैने धीरे से उसका हाथ छोड़ा और सिर्फ दो कदम पीछे हो लिया। मेरा काम हो गया था। मैने मुक्ति पा ली थी, उस बोझ से जिसका निर्वहन मेरा धर्म था, उस भार से जिसका हाथ कभी चावल दाल के कौर को उठा कर मेरे मुख में डाला जाता था, उस बोझ से जो मेरे सिकुड़े हाथ और पैर को सरसों तेल से दिन में पांच पांच बार सोट कर चलने लायक बनाया था। उस बोझ से जिसने मेरी नहीं कलाई को अपने हाथ में थाम कर चलना सिखाया था। उस बोझ से जिसने मां बोलना सिखाया था।
धीरे धीरे मैं साइड हुआ, मेरा कदम लड़खड़ा रहा था। मैं चुप था, विस्मय में था। तभी लाउड स्पीकर से आवाज आया। बेटा, हम तुम्हारी मां। बेटा हम भुला गए हैं, बेटा ले चल हमरा, हमरा खाना मत देना बेटा, हम तोरा देख के जी लेंगे। हमरा ले चल बेटा। हम भगदड़ से नहीं मरना चाहते, हम तोर गोद में मरना चाहते हैं बेटा। हमरा ले चल, हम खोया पाया केंद्र में हैं।
इतना सुनते ही मेरे आंख से आंसू नहीं रक्त की धार अनवरत बहती जा रही थी। मैने सोचा जब बुढ़ापे में अकेला ही रहना है तो औलाद क्यों पैदा करें उन्हें क्यों काबिल बनाएं जो हमें बुढ़ापे में दर-दर के ठोकरें खाने के लिए छोड़ दे ।बच्चे मां-बाप की आरजू हैं, जिंदगी का सहारा होते हैं, बुढ़ापे की लाठी होते हैं वे ही अपने बड़ों से अलग होने का मन बना लेते हैं. उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं. कैसा जिगर होता होगा जो स्नेही रिश्तों को तड़पने को विवश कर देते होंगें?
मैं दौड़ा और इतना तेज दौड़ा कि महज कुछ ही सेकंड में अपने मां के पास था, उसकी गोद में सर रख कर खूब रोया और अपनी घृणित मानसिकता को महाकुंभ में त्याग कर मां को साथ लाया।
क्या इस पवित्रता के लिए महाकुंभ को धन्यवाद नहीं देंगे। हम जो आज करेंगे, कल बिल्कुल वही हमारे साथ होगा। बस इतना ही सोच हो तो हिंदुस्तान का हर वृद्धाश्रम बंद हो जाएगा।
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