स्व प्रशंसा सुनने की लत, व्यसन समान गर्त..
©आलेख: डॉ. अभिषेक कुमार
आत्म प्रशंसा कह लीजिए या स्व प्रशंसा दोनों एक ही शब्द है जिसकी सुनने की आदत या चाहत किसी व्यक्ति को लग गई तो यह धूम्रपान, बीड़ी, सिगरेट, गुटखा, शराब, शबाब, ज़ुआखोरी जैसे व्यसन से कम ख़तरनाक नहीं है..! धूम्रपान, बीड़ी, सिगरेट, गुटखा, शराब, शबाब और ज़ुआखोरी तो शरीर के अंग, प्रत्यंग उपांग को क्षतिग्रस्त करते हैं और एक दिन धीरे-धीरे जीवन लीला को समाप्त करते हैं वहीं आत्म प्रशंसा, स्व प्रशंसा या कहे खुद की बड़ाई सुनने की लत व्यक्ति के जब लग जाता है तो उसके मन, बुद्धि, विवेक, ज्ञान आत्मा को प्रभावित कर धर्म, ईमान को नष्ट करते हुए नरक के द्वार खोल देता है। तथा अहंकार को उत्पन्न कर चरम सीमा पर पहुंचा देता है। आत्म प्रशंसा, स्व प्रशंसा एक ऐसी आत्ममुग्धता है जो व्यक्ति इसके नशे में शिकार होकर खुद का एवं अपने से जुड़े हुए जन समुदाय का सत्यानाश कर देता है। कारण कि प्रत्येक व्यक्ति का समय अलग-अलग व्यतीत होता है। इस समय चक्र में जब दो व्यक्तियों के अपने-अपने समय का समावेश होता है तो उत्पन्न परिस्थितियां और परिणाम एक दूसरे को प्रभावित करता है।
आत्म प्रशंसा, स्वयं के गुणगान की चाहत रखने वाले व्यक्तियों पीछे चमचे, चापलूस प्रवृत्ति के व्यक्तियों का जमघट होता है। कारण कि प्रशंसा सुनने की चाहत केवल रजोगुणी व्यक्ति के पास होता है। तमोगुणी व्यक्ति तो आलस्य प्रमाद, निद्रा भय, चिंता अज्ञानता में अपना मनुष्य तन पाने का अवसर गवाता रहता है वहीं सत्वगुणी व्यक्ति के पास विवेक होता है इस लिए उसे सत्य असत्य, धर्म अधर्म, पाप पुण्य, प्रकृति के रहस्यों को समझने योग्य होता है इस लिए संसार की माया उसे प्रभावित नहीं करती।
जैसे धरती पर सभी तत्वों, पदार्थों, परिस्थितियों का अनुलोम, विलोम है अर्थात धनात्मक, ऋणात्मक है, ठीक उसी प्रकार आत्म प्रशंसा और चापलूसी एक दूसरे के अनुलोम-विलोम हैं। आत्म प्रशंसा, स्व प्रशंसा जहां धनात्मक अवयव है वहीं चापलूसी ऋणात्मक अवयव है। क्योंकि खुद की प्रशंसा सुनने की चाहत वाले लोगों के पास कुछ न कुछ सामर्थ्य बल, धन बल, अर्थ बल, बाहु बल, सत्ता शक्ति बल, पद बल, कुछ न कुछ बल जरूर रहता है तभी उसके एवज में वह अपनी बड़ाई प्रशंसा सुनने की हसरत रखता है..! यानी उसके पास कुछ न कुछ देने को है इस लिए चमचे, चापलूस प्रवृत्ति के ऋणात्मक ग्रहण करने वाले लोग उनके आगे पीछे भंवरे की भांति मंडराते रहते हैं कि केवल अगले को बड़ाई, प्रशंसा के ही तो झूठे मुठे पुलिंदे गढ़ने हैं और विश्वास में लेकर अपनी स्वार्थ सिद्धि के कार्य करा लेने हैं। चापलूस, चमचे बहुत चतुर, चालाक, होशियार होते हैं वे प्रशंसा सुनके मदमस्त होने वाले व्यक्तियों को प्रशंसा सुना-सुना कर इतना मदहोश कर देते हैं कि वह व्यक्ति के पास जो भी कुछ देने को है वह चमचों, चापलूसों को देने से मना नहीं कर पाता और यही लत एक दिन अपराध में बदल जाता है तथा सलाखों के पीछे पहुंचा देता है।
कुछ अधिकारियों, कर्मचारियोंका ही उदाहरण देख लीजिए कर्म और प्रारब्धावश एक अच्छे सम्मानित पद, प्रतिष्ठा तो मिल गया परंतु देश हित, समाज हित, विभाग हित के लिए कुछ अलग, नवाचार कार्य करेंगे कुछ नहीं परंतु प्रशंसा, मान सम्मान में कमी नहीं होनी चाहिए..! यह आत्म प्रशंसा की लत बहुत खराब है। कुछ फायदा होता भी है तो उनके इर्द गिर्द कामचोर चापलूसों को जो उनकी वाहवाही कर के अपना व्यक्तिगत लाभ लेने में तल्लीन रहते हैं। जब ऐसे अधिकारी, कर्मचारी सेवा निवृत्त होने के पश्चात इनके घर बेटा पुतोहु, पोता पोती अगल बगल के समाज भी नहीं पूछता तो तब पछतावा होता है कि जीवन काल में कुछ सत्कर्म करना चाहिए था। एक जगह पर बैठे-बैठे केवल बर-बर करते अंत अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं और फिर यमपुरी में कर्मों का पूरा हिसाब किताब होता है। नाना प्रकार के दुखदाई नार्को के यातना झेलकर पशु, पक्षी, कीट, पतंगो में जन्म लेना पड़ता है।
संवैधानिक पद धारी कुछ नेताओं को ही देख लीजिए सालाना मिलने वाले निधि के रुपए व्यक्तिगत हित, स्वार्थ में खर्च होने चाहिए और वाहवाही, प्रशंसा सुनने की तमन्ना देव तुल्य जनता जनार्दन से है..! और जनता भी खूब जिंदाबाद के नारे लगाते हैं उस बार नहीं तो क्या पता इस बार ही कुछ मिल जाए। इन शक्ति शाली नेताओं से फायदा उन्हें ही है जो चुंबक के भांति इनसे चिपके चरण वंदना, सेवा सत्कार में लोटपोट दिन रात नतमस्तक होकर प्रशंसा पर प्रशंसा उनकी मान बड़ाई गुणगान करते नहीं थकते..! मरने के बाद इन्हें क्या गति होती है वह मैं आपको बताता हूं... पिछले वर्ष जब मैं केदारनाथ के यात्रा पर था तब वहां ऊंची दुर्गम पहाड़ियों पर चढ़ने के लिए खच्चर मिलते हैं। मेरे साथ में मेरे बड़े भाई राजीव जी का छोटा बेटा था जो ठंड भरे उस दुर्गम चढ़ाई वाले पहाड़ पर चढ़ने में विफल हो रहा था। सभी लोग संकल्प बद्ध थें कि हमलोग केदारनाथ तक की यात्रा पैदल ही करेंगे चाहे जो हो जाए। हम कोई वचनबद्ध संकल्प बद्ध नहीं थे इस लिए वे बोले कि तुम मेरे बेटे को खच्चर पर बैठा कर चढ़ा दो। दरअसल मैं निरजीह प्राणी खच्चर पर बैठने के मूड में नहीं था। मुझे उस बेचारे खच्चर पर दया आ रही थी। पीछे से आता हुआ एक बुजुर्ग आदमी ने मेरे पीठ को ठोकते हुए बोला कि संकोच क्यों खा रहे हो इस खच्चर पर बैठने से..? इस खच्चर के तुम पिछले जनम के बारे में जानते हो..? मैने बोला ये क्या मजाक है..! कोई किसी के पिछले जन्म के बारे में कैसे जान सकता है..? उन्होंने बोला यह तुम्हे नहीं मालूम तो मैं बताता हूं, यह पिछले जन्म में सासंद था और केवल अपना गुणगान, मान बड़ाई, प्रशंसा सुनने का इतना आदि था कि इसके अलावा जनता के दुःख दर्द परेशानियों के बारे में कभी सोच विचार ही नहीं किया, जिसके लिए यह चुना गया था। देह त्यागने के उपरांत कर्मों के हिसाब-किताब चुकाने के लिए इस जन्म में यह खच्चर बना है और अपने पीठ पर बैठा कर तीर्थ यात्रियों को प्रभु का दर्शन करवाने में मदद कर रहा है। यहां पर ढेर सारे जितने खच्चर दिख रहे हैं इनमें से अधिकांश अपने पिछले जन्म में जन प्रतिनिधि थें... इनमें से कोई मुखिया, सरपंच, तो कोई विधायक, सांसद, तो कोई मंत्रीगण थें। ये सब जिस कार्य के लिए चुने गए थें उसमें मन न लगा के इन्हें अपनी प्रशंसा, गुणगान, और माननीय सुनने, बनने का ज्यादा आनंद मिलता था जिस कारण यह इस जन्म में खच्चर का देह धारण किए हुए हैं और देव तुल्य जनता जनार्दन को इस ऊंचे नीचे दुर्गम कष्ट भरे चढ़ाई चढ़ कर ईश्वर से साक्षात् दर्शन करा रहे हैं..! हमने उनकी बात सुन कर एकदम चौक गए और मुंह से निकल पड़ा यह क्या मजाक आप कर रहे हैं बाबा..? आपके इन कटु व्यंगपूर्ण शब्दों से राजनीति में बवाल आ जाएगा..! लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा..! आपके यह शब्द भारतीय जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के उद्देश्यों पर करारा प्रहार है जिसके लिए सरकार आपको बंदी बना सकता है। संविधान के अनुसूची 19 में स्वच्छंदता का मिले अधिकार का मतलब यह नहीं कि आप चाहे जो चाहे वह बोलें..? मैने उन्हें समझाया भगवान श्री कृष्ण ने गीता के 10 वें अध्याय में स्वयं कहा है कि राजा में ईश्वर का अंश होता है तो फिर मुखिया सरपंच, विधायक, सांसद, मंत्रीगण में ईश्वर तत्व क्यों नहीं हो सकता वे तो सर्वे-सर्वा अपने क्षेत्र के राजा हैं। इस प्रकार के अशोभनीय बात आपके मुख से शोभा नहीं देता बाबा..! यह अपने देश के खूबसूरत लोकतांत्रिक व्यवस्था को आप अपमान कर रहे हैं और मजाक बना रहे हैं बाबा..? यह कतई ठीक नहीं है बाबा.. इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। किसी नासमझ बच्चे के उसके नासमझी भरे बचकानी बातों पर उसके पिता मुस्कुरा के टाल देता है ठीक उसी प्रकार बाबा हम पर मुस्कुराते हुए वे भी एक खच्चर पर बैठ आगे बढ़ चले। मेरे पास भी कोई चारा नहीं था मैं भी राजीव भैया के बेटा को गोद में बिठाए खच्चर पर बैठ गया और 23 किलोमीटर दुर्गम पहाड़ियों के ऊंचाई पर चढ़ने हेतु चल पड़ा। पूरा रास्ते मैं उस खच्चर को दुलारते, पुचकारते, सराहते, प्रशंसा करते और बीच-बीच में रुक कर गुड खिलाते, आखिरकार केदारनाथ मंदिर के तलहटी में पहुंच ही गया। उतर के उस खच्चर को खूब गले लगाया और ईश्वर से प्रार्थना किया कि इस जीव आत्मा को अगले जन्म में सद्गति, मोक्ष, उत्तम गति या धनवान मानव बनाना।
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कलयुग के वर्तमान चरण में राजो गुण की प्रधानता और तमोगुण के अपेक्षा सत्व गुण की अधिकता वाले कुछ मानव शरीर धारी व्यक्तियों को संत स्वरूप में पूजित होने, मान बड़ाई कराने और प्रशंसा के लिए संत स्वरूप का चोला ओढ लिए हैं। चूंकि कलयुग का विधान पहले से ही निर्धारित है कि पापी, अधर्मी, भ्रष्टाचारी, अत्याचारी प्रतिष्ठित संत चोले में गेरूआ वस्त्र या सफेद वस्त्र में विचरण करेंगे और पूजित होंगे। दरअसल पहले के युगों में या वर्तमान कलयुग में आज भी ऐसे विरक्त, त्यागी, तपस्वी, गुणी संत, महात्मा, ऋषि, महर्षि, मुनि हैं जो अपने वेश भूषा से पूजित नहीं होते बल्कि अपने साधना, कठोर तप, परिश्रम के कारण उनके अंदर दैविक व आध्यात्मिक शक्ति समावेश होने के कारण वे पूजित हुए या हो रहे हैं। परंतु अब वर्तमान दौर में ये बंगला किसका है जवाब मिलता है त्यागी जी महराज का, ये बच्चे किनके हैं.? उत्तर मिलता है ब्रह्मचारी जी महराज का..! ये शोर इतना कहा हो रहा है..? मौनी बाबा के आश्रम में..! आज के परिवेश में जो संत महात्मा जितना वैभवशाली, धनवान उनकी उतना ही मान बड़ाई, प्रशंसा है। जब तक दो चार देश का भ्रमण न हो जाए पूर्ण रूप से संतत्व प्राप्त नहीं होती। कुछ ऐसे भी संत गण हैं जो अपने ही आश्रम में जीवित अवस्था में ही अपना फोटो फ्रेमिंग कर भक्तजनों को उपलब्ध कराते हैं की घर जा कर मेरी फोटो को पूजना, फूल माला चढ़ना, प्रत्यक्ष दर्शी भगवान और उनकी फोटो अर्थात स्व प्रशंसा, आत्म प्रशंसा की उच्चतम पराकाष्ठा की आकांक्षा उनकी रहती है। यदि कोई भक्त उनके शब्दों, उनके दिव्य आभामंडल से प्रेरणा लेकर खुद से उनको बिना बताए चुपके से एकलव्य की भांति द्रोणाचार्य की मूर्ति से ज्ञान और विद्या सीखे तो इसमें क्या बुराई है.! यह तो उस गुरु के लिए गर्व की बात है। परंतु हम ही अपना खुद का फोटो बेचेंगे और हम ही अपना पूजा करवाने के लिए प्रेरित करेंगे यह पाखंड, स्व प्रशंसा का उच्चतम आदर्श बिंदु नहीं तो और क्या है आप सभी पढ़ने वाले जरूर प्रतिक्रिया व्यक्त करें। बिना तपोबल, ध्यानबल व ब्रह्मांड के आध्यात्मिक ऊर्जा, शक्ति अवशोषण किए मात्र गेरूआ वस्त्र और सफेद वस्त्र धारण किए संत महात्मा के वेश भूषा में कुछ साधारण लोग अपने से बड़े उम्र के लोगों से चरण पखरवाने, सलामी, दंडवत कराने तथा आशीर्वाद देने व पूजित करवाने और अपनी महिमामंडन, प्रशंसा कराने का एक अलग ही शौख और खुमार इस कलिकाल में देखने को मिल रहा है। चूंकि ये कुछ कालनेमी आचरण और त्याग से नहीं बल्कि ये पहनावे, ओढ़ावे से मात्र संत स्वरूप में दिखते हैं। यदि इनके पाप, अधर्म, ढोंग कर्मों को कोई अनादर कर दे तो ये और इनके चाहने वाले कुछ लोग सनातन सभ्यता संस्कृति के मर्यादा पर ठेस समझते हैं।
कुछ प्रमुख नेतागण को अपनी मान बड़ाई, स्व प्रशंसा का इतना आकांक्षा है कि तमाम स्थानों पर लगने वाले बैनर पोस्टर पर केवल हम ही हम रहें दूसरा क्यों न योग्य हो उसका फोटो वहां पर नहीं लगना चाहिए। न्यूज, अखबार, मीडिया में केवल मैं ही मैं छाया रहूं, दूसरों सहयोगियों को मौका न मिले..! यदि मिले भी तो छोटे से कहीं कोने में आदि आदि.. आत्म प्रशंसा, स्व प्रशंसा गुणगान, माननीय बने रहने की इतनी उच्च महत्वकांक्षा पहले के युगों के राजाओं, मंत्रियों, संत्रियों में देखने को नहीं मिलता था..! यदि दूसरा हमसे कहीं ज्यादा मशहूर हो गया तो मेरी प्रशंसा, जय जय कर कौन करेगा..! मेरा कद अगले से छोटा हो जाएगा..! आदि यह सब भावनाएं, मानसिकताएं वर्तमान नेताओं में विद्यमान है। यशस्विता, कर्मयोगिता, चरण चाटुकारिता में हाथ जोड़े लोग केवल मेरी प्रशंसा में लोग लीन रहे, क्यों कि केवल मैं ही विकास पुरुष धरती पर अवतरित हुआ हूं।
'एको अहं द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति'
इन्हें कहां मालूम कि विकास एक सतत प्रक्रिया है जो समय की मांग और जरूरत के अनुसार स्वत: उत्पन्न होने वाली पद्धति है और यह अनवरत चलता रहता है जो कभी रुकता नहीं। एक दिन इसी क्रमबद्ध विकास ने अपनी रफ्तार से चलते-चलते इस स्थूल संसार का अंत और फिर उत्पन्न करता है। इस लिए विकास किसी व्यक्ति विशेष या संगठन के मोहताज नहीं हो सकता। इसे कोई न कोई निरंतर आगे बढ़ाता ही रहेगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनियां के प्रत्येक उत्पन्न वस्तु, परिस्थिति का उदय फिर अंत होता है तत्पश्चात एक नई वस्तु, परिस्थिति उसके स्थान पर नए स्वरूप जगह ले लेती है। यह अनादि काल से होता चला आ रहा है।
राजनीति गलियारों, सरकारी कार्यालयों में हम सभी पहले देश के उन महापुरुषों के फोटो टंगे देखते थें जो परलोक सिधार जाते थें। उनके फोटो से निसंदेह ही वर्तमान अधिकारी, कर्मचारी, नेता, कार्यकर्ता उनके त्याग, अनोखे कर्म से प्रेरणा लेते थें परंतु अब राजनैतिक पार्टी, सत्ताधारी पार्टी के संस्थापक, व्यवस्थापक जीवित अवस्था में ही अपने नियंत्रणाधिकार के समस्त कार्यालयों, सार्वजनिक स्थलों पर अपना फोटो बड़े-बड़े बोल्ड फ्रेमिंग में टंगवा दे रहे हैं कि मरने के बाद यह नसीब हो न हो जीवित अवस्था में ही देख लिया जाए। यह आत्म प्रशंसा, स्व प्रशंसा के उच्चतम पराकाष्ठा नहीं है तो और क्या है..? जरा विचार कीजिए..! मैं अपनी बेटी के साथ एक कार्यालय में गया था। वहां कुछ धरती छोड़ चुके अमर क्रांतिकारियों का तस्वीर लगा था। उन क्रांतिकारियों को फोटो दिखा उनके कर्तव्यों के बारे में अपनी बेटी को समझा रहा था। दूसरे तरफ दिवाल पर कुछ जीवित राजनेताओं का फोटो लगा था उसे देख हमारी नन्हीं बेटी ने बोला कि पापा ये कब मरे और ये क्या करते थें..? तब मेरा माथा ठनका की जीवित व्यक्तियों का फोटो, वे परलोक सिधारे महापुरुषों के फोटो से मिलता जुलता था इसी कारण वह मुझसे पूछ पड़ी.. जब हमने उसे बताया कि बेटा में अमुक पद पर अभी जीवित है और कार्य कर रहे हैं..! वह विश्वास करने को तैयार नहीं थी और बोलने लगी आप झूठ बोल रहे हैं और मम्मी को बता दूंगी कि आप गलत सही बताते हैं।
क्या किसी भी व्यक्ति के लिए अपने कर्म पर ज्यादा भरोसा न करके प्रशंसा गुणगान पर ज्यादा भरोसा कर रहा है तो यह समझ लिए वह खुद भी गर्त में जा रहा है और अपने से जुड़े जनसमुदाय को भी गर्त में गिरा देगा। जो बिना कुछ असाधारण कर्म किए केवल अपनी प्रशंसा कराने के तरह-तरह युक्ति ढूंढता रहता है वह एक खतरनाक व्यक्ति है। ऐसे व्यक्तियों से दूर रहना ही नवीन पीढ़ियों के लिए हितकारी साबित होगा। हमने बहुत सारे ऐसे व्यक्तियों को देखा कि कर्म कुछ भी नहीं है अथवा केवल दिखावा मात्र है और अपेक्षा है कि मेरी प्रशंसा, आत्म बड़ाई के कसीदे कोई उच्च शब्दों में करे, कोई मुझ पर दो चार पांच किताबें लिख दें जिससे मेरी गुणगान इस जन्म में जीते जी होते रहे और मरने की बाद भी मेरे ऊपर लिखी साहित्य गवाही देती रहे। पर उन्हें मालूम नहीं झूठी प्रशंसा कि पुलिंदे उतना ही मजबूत हैं जितना रेत में बालू से बनाया गया खूबसूरत महल। व्यक्ति यदि कुछ ठोस कर्म, परिश्रम, तप करें, कुछ अद्भुत अद्वितीय नवाचार कार्य करे तो उसे प्रचारित प्रसारित करने के लिए खुद से मेहनत नहीं करना पड़ेगा स्वत: ही हो जाएगा यह ईश्वरीय विधि का विधान है। जैसे पाप की गठरी भर जाने पर विस्फोट हो जाता है और वह जगजाहिर हो जाता है ठीक उसी प्रकार अच्छे, उत्तम, अद्वितीय कर्म जब पुष्ट हो जाते हैं तो उसकी यश कीर्ति, गाथा स्वत प्रचारित, प्रसारित हो जाती है तब अखबार, सोशल मीडिया पर रुपया पैसा लगा कर विज्ञापन छपवाने की जरूरत नहीं पड़ेगी स्वत: होगा। भगवान, देवताओं और धरती पर आए तमाम महापुरुषों की यश कीर्ति गाथा जो हम अनादि काल से सुनते आ रहे हैं उस समय संचार क्रांति के उन्नत साधन टीवी, रेडियो, अखबार, सोशल मीडिया का जमाना नहीं था फिर भी उनकी स्मरण एक नवीन सीख संचेतना ऊर्जा का संचार रगों में आज भी दौड़ रहा है।
कर्म कुछ नहीं करेंगे यदि कहीं जाएं तो अपने ही परिचित को बोल दिए दस, बीस, पचास आदमी के साथ फलाने मोड पर पुष्प माला के साथ खड़ा रहना और पहले से वीडियो बनाते रहना, जैसे ही मेरी गाड़ी आए, हम उतरे, फूल माला से मेरा गर्दन लाद देना। फिर इस वीडियो को सोशल मीडिया पर प्रसारित करना की अमुक स्थान पर जाने के क्रम में बीच रास्ते फलाने ग्राम नगर कस्बे के स्थानीय लोगों ने रोक कर सम्मानित किया। अपनी प्रशंसा खुद से करा कर भले ही वे फुले न समाते हों पर सूक्ष्म दृष्टिकोण से यह जग हंसाई मूर्खता से ज्यादा कुछ भी नहीं है। बन सको तो श्री राम के आदर्श मर्यादा अपने अंदर प्रविष्ट करो न कि कोई सबरी तुम्हारे आने के इंतजार में तुम्हारे रहो पर वर्षों से फूल बिछा रही हो। तुम उसके झोपड़पट्टी में चुनाव के वक्त रोटी खाने का जो नाटक करते हो वह असल में जूठन बैर खाओ न तब तेरी यश कीर्ति में इतना इजाफा होगा कि अपनी प्रशंसा कराना नहीं पड़ेगा स्वत: इतना हो जाएगा कि तुम्हारे कान सुनने के लिए पहले की भांति आतुर नहीं रहेंगे। तुम्हारे अंदर सत्व गुण की अमृत विकसित होगा फिर तुम जब परलोक भी जाओगे न वहां भी तुम्हारी सुख सुविधा मान सम्मान में कोई कमी नहीं होगी। उच्चतम लोक, स्वर्ग या फिर दुबारा धरती पर भी आए तो निश्चित ही किसी राजा के घर जन्म लोगो और सुख सुविधा समृद्धि को भागोगे, फिर इसी प्रकार मृत्युलोक में बार-बार आने की इच्छा होगा तो सत्कर्म करना यदि मोक्ष की कामना होगा हिमालय पर बैठ या गृहस्त जीवन में ही अपने त्याग, साधना और परिश्रम के बल पर अपने समस्त कर्मों को स्वाहा कर देना फिर निसंदेह भगवान के परमलोक, सत्यलोक, मोक्षधाम की प्राप्ति होगी। अर्थात जन्म मरण के चक्र से सदा के लिए मुक्त हो कर परम पिता परमेश्वर के आशीर्वाद, दुलार, प्यार, स्नेह मिलेगा जो आत्म प्रशंसा, स्व प्रशंसा, स्व गुणगान के मुकाबले अरबों, खरबों, महा संख्य गुणा ज्यादा आनंदित करने वाला होगा।
जो अपनी प्रशंसा गुणगान सुनकर तनिक भी हर्षित नहीं होता वह असल कर्मयोगी है और वैसे व्यक्तियों की एक दिन जरूर जय जयकार होती है। कोई रोक नहीं पाएगा। पर उतना धैर्य आज के मानवों में कहा है बस सभी को जल्दबाजी है। आप स्वयं ही निर्णय ले लीजिए बिना कर्म किए त्वरित स्व प्रशंसा, आत्म प्रशंसा, गुणगान सुनना चाहते हो या अपने अद्वितीय कर्म साहस पराक्रम से एक दिन जीवित अवस्था में या अंतरिक्ष से अपनी जय जयकार के उद्घोष सुनना चाहते हो..? वीर भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, खुदी राम बॉस, लाल बहादुर शास्त्री जैसे अन्य श्रेष्ठ महानुभावों के नारे से जब यह गुलसिता यह वातावरण यह चमन गुंजायमान होता है तो उनकी आत्माएं जब अंतरिक्ष से सुनती होगी तो उन्हें सच में कितना गर्व और आनन्द होता होगा यह वर्णन कर पाना कठिन है।
संक्षेप में,
आत्म-प्रशंसा की लत: एक व्यसन के समान है जिसे सुनने की लत लगना एक गंभीर समस्या है जो व्यक्ति के जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर देती है। यह निसंदेह एक व्यसन के समान खतरनाक है, जिसमें व्यक्ति बिना कोई उपयुक्त कर्म या मेहनत किए लगातार दूसरों से उसकी एवज में अपनी प्रशंसा सुनने की इच्छा रखता है।
आत्म-प्रशंसा की लत के कारण:
• आत्म-सम्मान की कमी: जिन व्यक्तियों में आत्म-सम्मान की कमी होती है, वे दूसरों से प्रशंसा सुनकर अपनी इस कमी को पूरा करने की कोशिश करते हैं।
• सामाजिक दबाव: आज के समाज में, लोगों पर सफल और लोकप्रिय दिखने का बहुत दबाव होता है। इस दबाव के कारण भी लोग आत्म-प्रशंसा की लत का शिकार हो जाते हैं।
• बचपन के अनुभव: कुछ लोगों को बचपन में माता-पिता, आस पड़ोस या शिक्षकों से पर्याप्त प्रशंसा नहीं मिलती होगी, जिसके कारण वे बड़े होकर आत्म-प्रशंसा की लत का शिकार हो सकते हैं।
आत्म-प्रशंसा की लत के लक्षण:
• लगातार दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनने की इच्छा रखना।
• अपनी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताना।
• दूसरों की आलोचना को सहन न कर पाना।
• प्रशंसा न मिलने पर क्रोधित या उदास हो जाना।
• प्रशंसा पाने के लिए झूठ बोलना या धोखा देना।
आत्म-प्रशंसा की लत के दुष्परिणाम:
• रिश्तों में खटास: आत्म-प्रशंसा की लत के कारण व्यक्ति के रिश्तों में खटास आ सकती है। लोग ऐसे व्यक्ति से दूर रहने लगते हैं जो हमेशा अपनी प्रशंसा करता रहता है और सुनना पसंद करता है।
• सामाजिक अलगाव: आत्म-प्रशंसा की लत के कारण व्यक्ति समाज से अलग-थलग पड़ सकता है।
• मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं: आत्म-प्रशंसा की लत के कारण व्यक्ति को चिंता, तनाव और अवसाद जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं।
आत्म-प्रशंसा की लत से छुटकारा पाने के उपाय:
• आत्म-सम्मान बढ़ाएं: आत्म-सम्मान बढ़ाने के लिए अपनी उपलब्धियों पर ध्यान दें और सकारात्मक लोगों के साथ रहें।
• अपनी कमियों को स्वीकार करें: अपनी कमियों को स्वीकार करें और उन्हें सुधारने की कोशिश करें।
• दूसरों की प्रशंसा करें: दूसरे किसी योग्य व अच्छे व्यक्ति, परिस्थिति की प्रशंसा करने से आपको अपनी प्रशंसा सुनने की इच्छा कम हो जाएगी।
• पेशेवर मदद लें: यदि आपको आत्म-प्रशंसा की लत से छुटकारा पाने में परेशानी हो रही है, तो किसी मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर से मदद लें सकते हैं।
• संत महात्माओं के शरण में जाएं: ईश्वर के कथाओं सुनने उसमें मन लगाने से हृदयस्थ छुपे शत्रु जैसे कि माया, मोह, मूर्खता, अज्ञानता और लोभ का खात्मा होता है जिससे व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति होती है।
निष्कर्ष:
आत्म-प्रशंसा सुनने की लत एक गंभीर समस्या है, लेकिन इससे छुटकारा पाया जा सकता है। यदि आप या आपका कोई प्रियजन इस लत से पीड़ित है, तो उसे जल्द छुटकारा कराएं अन्यथा वह खुद एवं किसी सामाजिक पदों पर आसीन है तो दोनों का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा।
डॉ. अभिषेक कुमार
साहित्यकार, प्रकृति प्रेमी व विचारक
मुख्य प्रबंध निदेशक
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