"सनातन संस्कृति का दिव्य स्वरूप और समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारी"
~ डॉ. अभिषेक कुमार
हम सभी स्वयं के भीतर भी जाकर क्यों जानने की कोशिश नहीं करते कि जाने मैं कौन हूं..?
अति प्राचीन महाकुंभ कि परंपरा हो या अन्य सनातनी भारतीय सभ्यता संस्कृति के पर्व त्यौहार जहां करोड़ों, अरबों लोगों की आस्था और विश्वास वहीं दूसरी तरफ इक्का-दुक्का गिरी हुई तुच्छ मानसिकता के लोगों के वक्तव्यों पर हम अपना अमूल्य समय बर्बाद करें और देश दुनियां समाज के प्रति अपने दायित्व को नजरअंदाज कर उनके बड़बोलेपन, उनकी मूर्खता पर हम सभी चिंतन, मंथन, प्रतिकार कर रहे हैं यह आत्म चिंतन करने योग्य तथ्य है।
तामस, राजस देह से सनातन के दिव्य स्वरूप, विराट भव्यता को नहीं समझा जा सकता..!
इस देश में बुद्धिजीवियों के विचारों पर चर्चा होनी चाहिए न कि अज्ञानता भरे निरर्थक उलूल जूलूल शब्दों पर...परंतु यह देखा जा रहा कि सनातन धर्म विरोधी लोग ऐसे बयान से खूब चर्चे में है और कुप्रसद्धि पा कर वे आत्मानंद की मस्ती में मस्त अनुभव कर रहे हैं जो यह उनकी निजी सोच है। इन शब्दों को सोशल मीडिया पर प्रसारित करने से व्यूअर तो बढ़ रहे परंतु इसके जरिए उनकी शब्दों को तवज्जो देना और उन्हें और प्रोत्साहित करने जैसा मामला नहीं है कि भविष्य में भी आप ऐसे ही बोलते रहना हम आपके शब्दों को देश के कोने कोने तक पहुंचाएंगे संचार क्रांति के जरिए..? यह अपने देश में चल क्या रहा है..? चिंतनीय है..! बुद्धिजीवियों, मीडिया को यह चाहिए कि ऐसे बेकार के शब्दों पर ध्यान ही केंद्रित न किया जाए ना ही वैसे बड़बोले अमर्यादित शब्दों को कोई तवज्जो दिया जाए..! पाप, पुण्य, कर्म की परिभाषा ऐसे मूर्ख लोग हमें क्या समझाएंगे जिन्हें अपने स्वरूप मानव तन के बारे में ही पता नहीं हैं। ऐसे धर्मविरोधी व्यक्ति अपने शरीर के भीतर गए ही कहा हैं कि उनकी बेकार, मूर्खता अज्ञात भरी बातों पर हम तवज्जो देने लगे।
समाज को नकारात्मकता और व्यर्थ की चर्चाओं से दूर रहकर, रचनात्मक कार्यों की ओर अग्रसर होना चाहिए। धर्म विरोधियों के बयानों पर प्रतिक्रिया देकर उनकी मूर्खताओं को तवज्जो देने के बजाय हमें अपनी ऊर्जा समाज हित, राष्ट्रनिर्माण, और सनातन मूल्यों के प्रसार में लगानी चाहिए।
भौतिक ज्ञान से ऊपर तत्व ज्ञान है। तत्व ज्ञान से ऊपर आत्मज्ञान होता है। आत्मज्ञान से ऊपर परमज्ञान होता है और यही परमज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है। अर्थात ज्ञान का चरमोत्कर्ष बिंदु जो शास्त्र,वेद, पुराण, उपनिषदों में भरा पड़ा है। वास्तव में सत्य सनातन प्राचीन भारतीय ग्रंथों में जीवन के अद्भुत सार और रहस्य छुपा है। इन्हीं शास्त्र वेद पुराणों और उपनिषदों के आधार पर पश्चिमी देशों ने कई क्रांतिकारी वैज्ञानिक खोज, आविष्कार किए हैं। ये वेद पुराण उपनिषद समस्त विश्व के जन कल्याणकारी, परोपकारी है। इन सभी का पठन प्रत्येक मनुष्यों के लिए लाभकारी है।
हिंदू शास्त्रों में वर्णित है निंदा किसी के न करो न सुनो न देखो, इससे भी पाप लगता है। कर्म का बड़ा ही अकाट्य सिद्धांत है जो जैसा करेगा वैसा ही पाएगा। निंदा की जवाब निंदा से की जाए तो सामने वाले और मुझ में फर्क ही क्या है। नवीन पीढ़ियों को यदि हम जाति, पाती, धर्म, सम्प्रदाय, मजहब के ऊंच-नीच, भेद-भाव, वैमनस्व भरी भावना मन में भरेंगे तो समाज में केवल एक दूसरे मान्यतावादी लोगों से रोज संघर्ष, कलह ही होगा। आपसी आनंद चैन नींद रोजी रोजगार सब प्रभावित होगा। क्योंकि बैर से बैर कभी शांत नहीं होता। इस लिए हम सभी को प्रेम के पुष्प खिलाने चाहिए। जो यह मानव तन और पद प्रतिष्ठा मिली है उसे निंदा सुनने और कर के गंवाने में मूर्खता है। हम सभी राष्ट्र हित के लिए कार्य को प्राथमिकता दें न कि किसी के टिका टिप्पणी निंदा को, जो अशिष्ट अमर्यादित अपराधी है उसके लिए कानून की विभिन्न धाराएं और उसका एक अलग से विभाग है यह उनकी दायित्व है कि ऐसे बड़बोलेपन व्यक्तियों पर अंकुश लगाए, नियंत्रण करें। हम सभी अपमान जनित शब्द सुन सकने और प्रतिक्रिया में सामने वाले को भी जैसे को तैसा दोषारोपण करने अथवा प्रदर्शन करने के अलावा और कर ही क्या सकते हैं..? बड़बोलेपन की सजा मुकर्रर तो कानून ही करेगी। क्योंकि इस स्थूल संसार में किसी को दण्ड देने का अधिकार तो कानून के पास ही है।
समाज में अधिकार दिलाने एवं लेने हेतु जो द्वंद चल रहा है, मैं समझता हूं व्यक्ति यदि अपनी सोच के रहस्यमयी ताकत को समझ ले तो खुद से बड़ा पैरवीकार, हक पाने वाला कोई नहीं हो सकता। क्योंकि अमीरी, गरीबी, अगड़ेपन, पिछड़ेपन का मूल कारण जो है वह है सोच..! खासबात यह है कि इस पहलू पर कोई नहीं सोच रहा। हां इतना जरूर हुआ कि हक अधिकार के लड़ाई के नेतृत्व करने वाले लोग राजनैतिक पदों के ऊंची कुर्सी पर जरूर विराजमान हो गए परंतु फिर भी वे वंचितों अनाथ जरूरतमंदों को पूर्ण हक एवं अधिकार नहीं दिला पाएं। क्योंकि हक एवं अधिकार या तो कर्मयोगिता से मिलती है या दिन हीनता से, या फिर राजनैतिक लाभ के महत्वकांक्षा से..!
जाति एक भ्रम व अज्ञानता भरी मानसिकता का सूचक शब्द है। वास्तव में इस पृथ्वीलोक पर मनुष्यों का केवल एक ही जाति है और वह है मानव जाति..! इसके अलावा वास्तव में कोई जाति होता ही नहीं है। पिछले शताब्दियों में किसी विशेष कार्य करने वाले व्यक्तियों को एक नामकरण के तहत श्रेणीगत उपमा दिया जाता था। वह आज भी दिया जाता है जैसे राज मिस्त्री जो मकान का निर्माण करेंगे। राज मिस्त्री तो किसी भी जाती पाती धर्म सम्प्रदाय का हो सकता है। राज मिस्त्री नाम अलंकरण तो केवल समझने के लिए है कि इस प्रकार के लोग मकान का निर्माण करते हैं वस्तुत: है तो वह आदमी या मनुष्य ही।
आज जब जमाना और समय बदला तो पिछले शताब्दियों में किए जा रहे विशेष कार्य या तो समाप्त हो गए या एक नया स्वरूप ले लिया। अर्थात जो जिस जाति नाम उपमा के था अब वह कार्य करे यह जरूरी नहीं है और न कोई कर रहा। कोई कुछ भी सत्कर्म कार्य करने को स्वतंत्र है। इस लिए जाति पाती के ऊंच नीच भरे दुर्भावना को जड़ से समाप्त करना होगा।
कोई भी व्यक्ति जननी, जन्म भूमि, अपने राष्ट्र के गरिमा, मर्यादा से बड़ा नहीं हो सकता। जिस कुल खानदान, जाती धर्म में जन्म लिए हैं वह सदैव आदर सत्कार सम्मान का पहलू है। कोई व्यक्ति यदि जाती धर्म में भेदभाव कर एक दूसरे के बीच वैमनस्व खाई पैदा कर अपनी राजनीति रोटी सेक रहा है अर्थात जाती पाती धर्म सम्प्रदाय के बीच लड़ाई झगड़ा करा कर सत्ता सुख पाने के फिराक में है वह बहुत ही ख़तनक व्यक्ति है। ऐसे व्यक्तियों से लाखों किलोमीटर दूर रहना चाहिए अन्यथा वह एक दिन निश्चित ही समाज को बर्बाद कर के रख देगा। वह अपने निजी हित के लिए देश, समाज को सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, फिलिस्तीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। यदि ऐसे व्यक्ति कोई इर्द गिर्द पनपता है तो शेष जन समुदाय को उससे सावधान होशियार हो जाना चाहिए। सामान्य दृष्टिकोण से लगेगा कि वह व्यक्ति समाज जाती धर्म के लिए हक की लड़ाई लड़ रहा है पर असल में वह अपनी व्यक्तिगत, अपने वारिसों के उज्जवल भविष्य बनाने के दृष्टिगत राजनीतिक कुर्सी के महत्वकांक्षा में लोगों को गोलबंद कर रहा है। ऐसे उन्मादी व्यक्ति के भावनाओं में बहना विनाशकारी साबित होगा।
लेखक अज्ञानता के अंधेरे में नहीं, दूरदर्शिता के उजाले में जीते हैं। वे मोह, माया के बंधन से मुक्त होते हैं इस लिए कड़वे सच लिख सकते हैं या बोल सकते हैं। राजतंत्र के वक्त लेखकों के लेखन, विचारों का बड़ा महत्व था। परंतु वर्तमान प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सत्ताधारी दलों को भीड़ इकट्ठा करने व चुनाव/राज्य जीतने के अलावा फुर्सत नहीं है वहीं जनता जनार्दन को भीड़ की शोभा बनने व टिक टॉक, रील बनाने, मनोरंजन और सोशल मीडिया देखने से फुर्सत कहां है कि वे देश, दुनियां, जन समुदाय के हितार्थ लेखनी को पढ़ सके। लेखक बस आत्मा सुखाए के लिए रचनाएं कर रहे हैं। वर्तमान पीढ़ी को साहित्य से अलगाव शुभ संकेत नहीं है।
बुद्धिजीवियों के विचारों पर चर्चा करना और उनसे सीखना हमारे समाज के विकास के लिए आवश्यक है। हमें उन लोगों का सम्मान करना चाहिए जो ज्ञान और समझ को बढ़ावा देते हैं।
सृष्टि का मूल जो आधार है सहयोग, वह सात्विक, राजसी और तामसिक तीन प्रकार से समाज में विद्यमान है।
1. सात्विक सहयोग: नि:स्वार्थ भाव से किया गया सहयोग, जो किसी प्रकार के स्वार्थ या अपेक्षा से मुक्त होता है, सात्विक सहयोग कहलाता है। प्रकृति प्रदत प्रत्येक वस्तुएं व रचनाएं इसी प्रकार के सात्विक सहयोग तथा परोपकार करते हैं जो सभी के लिए एक मापदंड पर सुलभ होता है। एक्का दुक्का मानव में यह सर्वोतम गुण व कार्य पाया जाता है जिसे परोपकार कहते हैं।
2. राजसी सहयोग: इस प्रकार के सहयोग में व्यक्ति अपने स्वार्थ, महत्वकांक्षा को पूरा करने के लिए दूसरों को जाति पाती धर्म सम्प्रदाय के भेद भाव ,ऊंच नीच के भावना में उलझाकर तथा उन्हें गुमराहकर कर सहयोग लेता, देता है। धन, पद, राजनैतिक प्रतिष्ठा जैसी चीजें हासिल करने के खातिर लिया, दिया गया सहयोग राजसी सहयोग के श्रेणी में आता है।
3. तामसिक सहयोग: यह सहयोग सबसे निम्न स्तर का होता है। इसमें व्यक्ति अपने मोह, लालच, लत और गिरे हुए स्वार्थ को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। नशा, मांसाहार, व्यभिचार, मिलकर करने जैसे काम तामसी सहयोग के उदाहरण हैं।
किन्हीं कारणों से क्रमिक विकास प्रत्येक जीव, जंतु, कीट, पतंगो में होता है जिसके फलस्वरूप उनके स्वरूप, रूप, रंग में मामूली परिवर्तन होता है। परंतु इतना भी नहीं होता कि कोई बंदर मनुष्य बन जाए। इंसान बंदर से नहीं बने बल्कि प्रकृति की एक अनुपम रचना का उदाहरण है। आदि शक्ति माता के भगवान विष्णु के नाभिकमल से सृष्टि रचयिता भगवान ब्रह्म और ब्रह्म जी के अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, मरीचि, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, नारद, सनक, सनन्दन, सनातन, सनतकुमार, शतरूपा, मनु, चित्रगुप्त आदि इन्हीं ऋषि मुनियों से मानव सभ्यता का विकास हुआ है न कि बंदर, भालू से..! यदि बंदर से मानव बनते तो यह प्रक्रिया रुक नहीं जाती आज भी अनवरत चलता रहता। परंतु आज ऐसा नहीं है। इसलिए हम सभी एक ही परमपिता परमेश्वर के संतान हैं।
निष्कर्ष
आत्म-चिंतन, सकारात्मक दृष्टिकोण और सनातन धर्म के मूल्यों को अपनाकर, हम एक बेहतर जीवन जी सकते हैं और एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकते हैं।
डॉ. अभिषेक कुमार
साहित्यकार व विचारक
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