
ब्लॉग प्रेषक: | मनीष कुमार तिवारी |
पद/पेशा: | |
प्रेषण दिनांक: | 11-03-2022 |
उम्र: | 33 |
पता: | झुरा, गढ़वा, झारखण्ड |
मोबाइल नंबर: | 6203005569 |
लोकतंत्र के मौन मार्गदर्शक
लोकतंत्र के मौन मार्गदर्शक
विचारधारा को फैलने के लिए यह जरूरी है कि विचारों के भांग पूरे कुएं में घोल दिए जाएं।
आज बेशक पूरे देश में भारतीय जनता पार्टी के विचारों का पताका लहरा रहा है। एक समय हुआ करता था जब यह सौभाग्य कांग्रेस पार्टी को प्राप्त था। एकक्षत्र परिस्थितियों के लिए सभी अपने-अपने ढंग से अलग-अलग तथ्य और तर्क प्रस्तुत करते हैं। एक बात तो तय है कि विचार को कर्म और व्यवहार में सिद्ध करने की आवश्यकता हमेशा ही रही है।
वैसे भी राष्ट्रवाद की लहर और चेतना की आयु अधिकतम 15 वर्ष की होती है। 15 वर्षों के बाद आपके सामने एक नई पीढ़ी नये नेता, नयी सोच और नयी तकनीक के साथ आपके विपरीत खड़ी होती है। 15 वर्षों के बाद व्यक्ति/पार्टी के कर्म और बेहतर प्लानिंग ही काम किया करते हैं। अपने पार्टी की योजनाओं को धरातल पर सिद्ध करने में सेकुलर और सांप्रदायिक पार्टियों ने हमेशा ही तत्परता दिखाई है। कांग्रेस के लंबे शासन ने इसे सिद्ध कर दिखाया था और अब भाजपा भी तन्मयता से इस कार्य में लगी हुई है।
पैरेटो ने एक सिद्धांत दिया था "अभिजात वर्गों का परिभ्रमण सिद्धांत"। इसके अनुसार किसी भी सत्ता के इर्द-गिर्द लोमड़ी की तरह चालाक और धूर्त लोग भरे होते हैं,जो घूम फिर कर सत्ता के करीब ही बने रह जाते हैं भले ही उनका नायक यानी *शेर* रुपी शासक हमेशा ही बदल जाए। यह सिद्धांत राजनीति में पूरी तरह फिट बैठता है। मोदी सरकार के मजबूतीकरण में एक लंबा सहयोग भूतपूर्व कांग्रेसी तथा अन्य विरोधी दल के मजबूत और सक्रिय नेताओं का रहा है।
भारतीय मतदाताओं की ओर नजर डालें तो यह आंकडा़ लगभग 50 से 70% तक रहा है। इन आंकड़ों में मूल बात यह है कि आखिर ये 30 से 40% लोग कौन हैं जो मतदान में हिस्सा नहीं लेते?
उनके नहीं लेने के कारणों की समीक्षा कब की जाएगी? क्या भारत में कोई ऐसी सरकार आएगी जो शत प्रतिशत लोगों से मंतव्य जानने के बाद निर्वाचित हो?
क्या भारत में ऐसे जनता की पीढ़ी बनेगी जो सरकार को चुनना अपना कर्तव्य समझे?
क्या कोई ऐसा चुनाव आयोग आएगा जो मतदान न करने वालों को चिन्हित करना सुनिश्चित करेगा?
क्या कोई ऐसा विपक्ष आएगा जो मतदान नहीं करने वाले लोगों को अपने साथ जोड़ पाएगा?
यदि यह सब हो सका तो कोई भी सरकार के नाक में नकेल डालना आसान होगा, अन्यथा भारत की जनता ही सरकार को मनमानी करने की खुली छूट देती है और सरकार के विरोध में खड़ी भी नजर आती है।
यद्यपि भारत में कमजोर विपक्ष का इतिहास रहा है। राज्य में क्षेत्रीय दलों ने अपने बलबूते यदि मजबूत विपक्ष तैयार भी कर लिया तो वह अक्सर बिकने के लिए बाजार सजा बैठते हैं।
यह लोकतंत्र की खूबसूरती है कि इसमे सवाल भी जनता के ही होते हैं और जवाब भी जनता ही देती है। रायशुमारी और चिंतन शिविर तो पार्टी के समीक्षा में ही समय गुजार लेते हैं।
अहम सवाल यह है कि अधिकार की मांग करने वाले जनता को कर्तव्य बोध कौन कराएगा ?
क्या नई पीढ़ी लोकतंत्र का मार्गदर्शक बनने के लिए तैयार है?
लोकतंत्र के मौन मार्गदर्शक कब तक अपनी जिम्मेवारी से कतराएंगे?
— आपको यह ब्लॉग पोस्ट भी प्रेरक लग सकता है।
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