बाल कहानी-अधूरा सपना

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ब्लॉग प्रेषक: SHAMA PARVEEN
पद/पेशा: लेखिका
प्रेषण दिनांक: 24-05-2023
उम्र: **
पता: BAHRAICH Uttar Pradesh
मोबाइल नंबर: **********

बाल कहानी-अधूरा सपना

        बात उन दिनों की है, जब मैं बहुत छोटा था। मैं तकरीबन बारह साल का था। मैं उस समय कक्षा सात का छात्र था। मुझे अच्छी तरह से याद है। घर के पास ही एक प्राइमरी स्कूल था, जिसमें मेरा छोटा भाई कक्षा पाँच और छोटी बहन कक्षा तीन में पढ़ती थी।उसके कुछ ही दूरी पर उच्च प्राथमिक विद्यालय था, जहाँ मैं कक्षा सात में पढ़ता था। मैं पढ़ने में बहुत अच्छा था। मैं प्रतिदिन समय पर विद्यालय जाता था। मेरी आखों में बहुत से सपनें थे, जिन्हें मुझे पढ़-लिखकर पूरा करना था।
विद्यालय में सभी शिक्षक बहुत मेहनत से पढ़ाते थे। एक दिन शिक्षक कक्षा में सभी से प्रश्न पूछ रहे थे कि-, "बताओ! आप बड़े होकर क्या बनोगे? जब मेरी बारी आयी और मुझ से पूछा गया-, "सोनू! बताओ तुम बड़े होकर क्या बनोगे? क्या सपने हैं तुम्हारे? कुछ सोचा हैं कि नहीं?"
मैनें बहुत उत्साह और विश्वास के साथ उत्तर दिया कि-, "मैं बड़ा होकर डाक्टर बनूँगा।"
गाँव में ही अस्पताल खोलूँगा। सभी की खूब सेवा करुँगा। अपने साथ-साथ परिवार, समाज और देश के लिये इस सपने को साकार करुँगा। खूब मेहनत से पढ़ाई करुँगा, ताकि मेरा सपना समय पर पूरा हो सके।" मेरी बात सुनकर सभी ने ताली बजायी। उसके बाद छुट्टी का समय हो गया मैं विद्यालय से घर आ गया। घर आके देखता हूँ कि माँ और पिताजी सामान पैक कर रहें हैं।
उन्होंने मुझ से भी तैयार होने को कहा। मैं भी तैयार हो गया। कुछ देर बाद हम सब सफ़र करने लगे। इससे पहले मैं कुछ पूछता, मेरे भाई बहनों ने बताया कि हम सब लोग नानी के यहाँ शहर जा रहे हैं। मुझे लगा कि हम सब लोग कुछ दिनों के लिए घूमने जा रहे होगें, फिर वापस आ जायेंगे, पर नहीं मेरी सोच गलत थी।
कुछ दिनों के बाद पिता जी ने शहर में ही एक होटल खोल लिया। उस होटल में वह समोसा बेचने लगे और मैं उनके साथ काम करने लगा। मेरे सारे सपने टूट गये।
कुछ साल के बाद पिता जी बीमार हो गये। सारी जिम्मेदारी मुझ पर आ गयी। मैं पूरी ईमानदारी से पिता जी का अधूरा काम पूरा करने लगा।
इस तरह से मेरी पढ़ाई अधूरी रही। मैनें अपने छोटे भाई बहन का नाम पास के ही स्कूल में लिखवा दिया। घर की जिम्मेदारी, पिता का इलाज़ का खर्च पूरा करने के लिये मेरे दिन रात होटल पर ही बीतते रहे। भाई-बहन की फीस भी मैं समय पर देता रहा।  मैं खुद नहीं पढ़ सका, पर भाई-बहन को पढ़ा दिया।
आज मेरी उम्र 30 साल की है।
मेरा आज भी मन करता हैं कि मैं स्कूल जाऊँ, पर सच ये हैं कि मेरा सपना अधूरा रह गया।

शिक्षा
हमें अपने सपने के बारे में घर के बड़ों को समझाने का प्रयास करना चाहिए ताकि बाद में पछतावा न रहे।


शमा परवीन 
बहराइच (उत्तर प्रदेश)
#trshamaparveen 

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