राजतंत्र, प्रजातंत्र से अलग सरकार चलाने का एक नया विकल्प संगणकतंत्र (तुलनात्मक विश्लेषण)
राजतंत्र, प्रजातंत्र से अलग सरकार चलाने का एक नया विकल्प संगणकतंत्र (तुलनात्मक विश्लेषण)
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©आलेख: डॉ. अभिषेक कुमार
किसी भी देश को नियंत्रित, समृद्ध तथा संतुलन में रखने के लिए सरकार की महत्ती भूमिका होती है। किसी भी राष्ट्र संचालन के लिए सरकार का होना अत्यंत आवश्यक है। अभी तक किसी देश में सरकार चलाने के लिए हम सभी राजतंत्र और प्रजातंत्र के बारे में ही जानते आएं हैं, तीसरा विकल्प के बारे में क्या अपने विचार किया है..? संगणक तंत्र तीसरा विकल्प हो सकता है जिसका विश्लेषण हम आगे करेंगें। पहले राजतंत्र और प्रजातंत्र के दुर्गुणों पर प्रकाश डाल लें।
सरकारी और राजनैतिक व्यवस्था कैसी होनी चाहिए इसका आदर्श मर्यादा का निर्धारण अनादि काल से होता चला आ रहा है। कुछ राजाओं तथा सरकारों ने नीति निर्देशक तत्व नियमों का पालन किया तो कुछ ने ताख पर रख के अनीति, अनाचार, भ्रष्टाचार तथा मर्यादाओं का खण्डन एवम लूट-पाट कत्लेआम मचाया। राजतंत्र का दीपक कब का बुझ गया है। एक समय था जब राजदरबार, राज घरानों में हर सुबह रंगीन और प्रत्येक शाम दिवाली होती थी। दास दासियां, नौकर चाकर वह मोटी-मोटी सुरक्षा की दिवारे, गगन चुम्बी बेस कीमती पत्थरों से निर्मित किला का चकाचौंध आज ऐसे खंडार, वीरान और काले हो गए जैसे डूबते हुए सूरज के साथ रंगीन बदल। इस वसुंधरा, मृत्युलोक में जिसका उदय हुआ है उसका अस्त होना निश्चित है चाहे वह भौतिक वस्तु हो या अदृश्य परिस्थितियां। योग्यताओं के दरकिनार कर आने वाला अज्ञात भविष्य के कुलदीपक राजा के ज्येष्ठ पुत्र का राजगद्दी के उतराधिकारी जन्मसिद्ध अधिकार होना न कहीं अन्य छोटे भाइयों के मन में असंतोष, वैमनस्व, कुंठा की भावना को विकसित किया वहीं अयोग्य कमजोर व्यक्ति के राजगद्दी पर होने से अन्य पास पड़ोस, सुदूर के राजाओं ने अपने राज्य विस्तार की महत्वकांक्षा, मोह और सनक ने खूब रक्तपात मचाया। बहुत कम ही राजा का इतिहास मिलता है जिन्होंने शांति, सुकून और मर्यादा से राज भोग एवम प्रजा के हितों पर ध्यान और मामले को निपटारा किया। बहुत सारे राजा तो आपस में साम्राज्य विस्तार के सनक, और राजगद्दी अपनाने के लिए मार, काट, लड़ाई झगड़ा करते वीर गति को प्राप्त हुए। प्रजा के हितों के समझने के लिए उन्हें पर्याप्त अवसर मिला ही कहा..!
अंततः बीसवीं सदी के मध्य तक राजशाही, राजतांत्रिक व्यवस्था का अंत होने लगा जिसके बाद प्रजातांत्रिक व्यवस्था का उदय हुआ। अधिकांश देश प्रजातांत्रिक व्यस्था को अंगीकार करने लगें। इस व्यवस्था के अंतर्गत उस देश के प्रजा अपने राजा अर्थात मुख्य मंत्री, प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति को स्वतंत्र मताधिकार से चुनती है। वर्तमान में हम सभी इसी व्यवस्था में जी रहे हैं परंतु इस व्यस्था में भी राजतांत्रिक व्यस्था के सापेक्ष दोष कम नहीं हुआ बल्कि हजारों गुणा बढ़ा।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अभी तक यही देखने को मिला की किसी भी देश में गिने चुने पार्टियों की ही सरकार आती और जाती रहती है। अधिकांश पार्टियों के सत्ता में आने के बाद संस्थापक अध्यक्ष या उसके पीढ़ियां ही मुख्य मंत्री, प्रधान मंत्री के कुर्सी पर बैठते हैं जो अप्रत्यक्ष राजतंत्र का नमूना है।
मानव होने का प्रमुख लक्षण है सत्य, अहिंसा, सदाचार, प्रेम, दया,करुणा, ईमानदारी कर्तव्य निष्ठा और त्याग जिस व्यक्ति के अंदर यह गुण मौजूद नहीं है उसके हृदय पर काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट और प्रपंच जैसे विनाशक शत्रु हिलोरे मार रहा हो वह खुद डूबेगा और अपने नाव को भी डूबाएगा अर्थात ऐसे राजनेता न खुद का कल्याण कर सकते हैं न जनसमुदायों के अपेक्षाओं पर खरे उतर सकते हैं। अपनी मायावी शाख, धन के रसूख और वाक कौशल के चतुराई से सत्ता पर काबिज तो हो जायेंगे परंतु भविष्य के दृष्टिगत न देश का कल्याण कर पाएंगे न समाज का भला कर पाएंगे। उल्टा उस देश के सार्वजनिक संपदाओं को देश विदेश के व्यापारियों को औने- पौने दाम में बेचने या गिरवी रखने लगेंगे, जिसके दूरगामी परिणाम भयंकर हो सकते हैं। सरकार में बैठे लोग सरकारी उद्योग धंधे, उपक्रम खोलने के बजाए मित्र बंधुओं, रिश्तेदारों, सगे संबंधियों के उद्योग धंधे खोलवाने लगें तथा पूर्व स्थापित उद्योग धंधे कल कारखाने को निजीकरण करने लगें जिसके परिणामस्वरूप राजस्व घटने लगा। राजस्व को बढ़ाने के लिए जनता पर अत्यधिक कर लगाए गए एवम डीजल पेट्रोल की कीमत धीरे धीरे बढ़ाए जाने लगी जिससे महंगाई तेजी से बढ़ने लगा। आय का निम्न स्तर जिसमे आम आदमी को दो वक्त की रोटी का इंतजाम हो जाए यही बहुत बड़ी बात और विकास है।
ईस्ट इंडिया कंपनी के इतिहास यह बताता है की वह कंपनी के शुरुआती मकसद केवल भारत में व्यापार करना था तब वह उस समय के राजाओं से विनम्रतापूर्वक अनुमति मांगा फिर इसके बाद वह पूरे भारत भर में फैलता चला गया और एक दिन अपने उत्पादों को बेच कर इतना धन कमा लिया की सभी राजाओं से वह वैभवशाली और समृद्ध हो गए तथा सभी राजा मिल कर भी एक साथ उसका मुकाबला नहीं कर सकते थें। तब वह शाम दाम दण्ड भेद की नीति अपना कर सबको अपने वश में कर लिया और दो शताब्दी तक भारत पर अखंड अकंटक राजभोग भोगा और इस देश की संपति को जी भर के सात समुंदर पार ले गए।
वास्तव में किसी भी देश के सरकार को वहां मौजूद किसी संगठन, संस्थान, कंपनी के मुकाबले लाखो गुणा मजबूत और शक्तिशाली होना चाहिए तभी उस राष्ट्र संतुलित व नियंत्रण में रहेगा। अफगानिस्तान मामले में वहां के सरकार से ज्यादा मजबूत अलकायदा संगठन हो गया, परिणाम क्या हुआ अमेरिका के जाते अलकायदा संगठन ने अफगानिस्तान सरकार को ध्वस्त, दरकिनार कर बंदूक के दम पर राजगद्दी हथिया लिया और मनमानी शासन सत्ता चलाने लगा। इस लिए किसी भी देश के सरकार को सर्वाधिक मजबूत होना चाहिए। मजबूती तभी आयेगी जब इस देश के अधिकांश संसाधन उस सरकार के नियंत्रणधिकार में हो, निजीकरण न हो तथा उद्योग धंधे, सरकारी, गैर सरकारी संस्थानों में वहां के नागरिक रोजगार, स्वरोजगार में हो। खाली मन सैतान का होता है, बेरोजगार युवाओं की तादात को महत्वकांक्षी संस्थाएं आसानी से अपने उद्देश्यों की ओर मोड़ सकती है जैसे काश्मीर, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक, सीरिया में देखने को मिलता है वहां के बेरोजगार युवा कलम के जगह बंदूक की ओर ज्यादा आकर्षित होते हैं क्यों की उसके बल पर वे कुछ भी हासिल कर सकते हैं।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में वह एक दौर भी आया जब प्रजा अपने मताधिकार, वोट के कीमत के लिए लालायित होने लगे तब राजनेताओं ने इस अवसर का भरपूर लाभ उठाते हुए चुनाव के वक्त अपने कोष के दरवाजे खोल दिए और जी भर के जनता जनार्दन पर धन लुटाने लगे, और साक्षात दंडवत अलग से तब तो वोटर इतना खुश की उसकी आनंद के पाराबार नहीं। जो प्रत्याशी वोट के सर्वाधिक नगद कीमत चुकाएगा, चरण दंडवत करेगा वोट उसका पक्का। कुछ राजनेता भी जनता के सोच से आगे निकल गए जो उन्हें चुनाव चिन्ह आवंटित है उसी का भौतिक स्वरूप घर घर जा कर सप्रेम भेंट करने लगें। कोई किसी वोटर के बीमारी में हॉस्पिटल में जाकर संतावना दे रहा है तो कोई उससे भी ऊपर अपना रक्त दान कर रहा है, कोई वोटरों के टोले में मनभावन लजीज व्यंजनों, पेय पदार्थो के लंगर कैंप महीनों से लगा रखा है। आलस्य प्रमाद में जीवन यापन करने वाले निकम्मे वोटरों के तो खूब बल्ले बल्ले है वे भगवान से मना रहे थें की हे भगवानों सालो भर और हर महीना चुनाव होता रहे।
मांस मदिरा के दुकान वाले भी अप्रत्याशित धन आगमन के बाहर से गद गद थें वे भी मना रहे थें चुनाव ऐसे ही निरंतर होता रहे। ग्राम कस्बों में शराब और मांस की नदी बह रही थी जिसे जितना खाना पीना है, खाए यहां कोई कमी नहीं पड़ने वाली। मांस मदिरा के सेवन उपरांत रातों में लोग करकस ध्वनि में जिंदाबाद के नारे लगा रहे थें।
जो किसी चुनावी प्रलोभन का शिकार न हो तथा अपने बुद्धि विवेक से योग्य प्रत्याशी को वोट करे ऐसे वोटरों की संख्या कम होती है। अधिकांश वोटर अपने जाति समुदाय के प्रत्याशी को वोट देना पसंद करते है। भले वह योग्य हो या अयोग्य। उसमें से अधिकांश वोटर जीत के लहर चलने वाले प्रत्याशी को वोट करना ज्यादा पसंद करते हैं तथा उनमें से बहुत खुद का निर्णय नहीं ले पाते किसे वोट करना है, वे वोट उन्हीं को देते है जिसके बारे में उनको सगे संबंधियों तथा अन्य जागरूक लोगो द्वारा बताया जाता है। जबकि मतदान का संबंध जितने हारने वाले प्रत्याशी से नहीं है, मतदान का संबंध प्रत्याशियों के विकल्प के मध्यनाजर सम्पूर्ण श्रेष्ठता और हृदय से निकली आवाज है की किसे वोट करना है अथवा नोटा दबाना है। यह खुद का निर्णय होना चाहिए। मतदान का संबंध किसी के चिकनी चुपड़ी लुभावनी बातो से नहीं है। मतदान का संबंध स्वैच्छिक एवम स्वतंत्र है।
परंतु सभी वोटर और सभी प्रत्याशी इस मिजाज के नहीं थें उनमें से कुछ नैतिकवान, चरित्रवान, ईमानदार तथा सत्यवादी थें वे वास्तव में देश में एक बदलाव की गाथा लिखना चाहते थें परंतु जहां संसारियों पर माया हावी है वहां न उन वोटरों की पूछ है न वैसे राजनेताओं, प्रत्याशियों की। क्योंकि इनकी संख्या कम थी।
समयोपरांत चुनाव एवम चुनाव प्रक्रिया बहुत महंगी हो चली थी। साधारण व्यक्ति कितना भी बुद्धिजीवी क्यों न उसे चुनाव जीतना कोई खेल नहीं रहा, मोटी रकम देकर टिकट की प्राप्ति फिर उससे दुगना रकम चुनाव के वक्त जनता जनार्दन में प्रसाद की तरह वितरण संबंधी सेवाएं, यह वही कर सकता है जिसके पास अकूत संपत्ति हो। इन प्रक्रियाओं से होकर जो प्रत्याशी चुनाव जीत कर सदन पहुंचेगा उसकी नित्य दिन चिंता यही सताएगी की खर्च हुए धन के सापेक्ष ब्याज समेत वापसी का वसूली कब होगा..? वह क्या जनता के विकास के बारे में सोचेगा आप खुद समझदार है अनुमान लगा सकते हैं..!
जनता भी वोट उसी को करेगी जिसकी प्रचार टीबी, रेडियो में आता है, जो बड़ बोला है, झूठ जुमलेबाजी करता है, विवादित बयान देता हो और जिसके अंदर भ्रष्टाचार के पर्याप्त गुण मौजूद हो, ऐसे लोग मायावी बहुत होते है इसी गुण पर मोहित होकर जनता अपना कीमती वोट दे देती है फिर उसके बाद उनके पीछे पांच साल तक भागते फिरो और उनका दर्शन ईश्वर दर्शन के समान दुर्लभ से कम नहीं। जो बुद्धिजीवी सीधा साधा ईमानदार छवि का प्रत्याशी है जिसके पास न धन टिकट खरीदने का है न प्रचार के दरमियान जनता के सेवा करने का है उसे न जन समर्थन मिलता न वोट मिलती है, अंततः वे चुनाव हार जाते हैं।
जैसे हाथी के दांत दिखाने के लिए कुछ और खाने के लिए कुछ और होता है उसी कदर प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सरकारी योजनाओं के उपलब्धियों तो खूब गिनाये जाते हैं परंतु असल में उसे कितना बजट का होना चाहिए था, कितना बजट खर्च हुआ और उसमे से शेष पैसा कहा गया, क्या रिश्वत की सूली पर चढ़ा..? तथा कार्य आधा अधूरा हुआ या पूर्ण हुआ एवम वह कितना गुणवतापूर्ण है यह आम आदमी के सोच से परे है। यदि जान भी जाता है तो इससे क्या होने वाला जिसके पास शासन सत्ता है। जिसकी लाठी उसकी भैंस।
शास्त्र आध्यात्मिकता के जरिए भाव से सत्कर्मों की ओर अग्रसारित करने का साधन है वहीं संविधान भौतिक जगत में भय के जरिए सत्कर्मों की ओर अग्रसर करने का साधन है।
उदाहरणार्थ
शास्त्र कहता है नारी उत्पीड़न पाप है इस कुकर्म से समयोपरांत भयंकर दुःख, कष्ट का सामना करना पड़ेगा। वहीं संविधान कहता है नारी के साथ अत्याचार करोगे तो भारतीय दण्ड विधान के अनुसार उम्र कैद या फांसी होगी। इन दोनो परिस्थितियों में एक भाव के जरिए गुनाह न करनें का सलाह देता है वहीं दूसरा भय के जरिए गुनाह करने से मना करता है।
अत: साधारण व्यक्ति और राजनेताओं के लिए आध्यात्मिक पुस्तके और संवैधानिक पुस्तकें दोनो महत्वपूर्ण व आदरणीय है। परंतु जनता तथा राजनैतिक पार्टियों दो मतो में विभक्त होने लगी कोई संविधान को मानता है तो कोई धर्म शास्त्र को नहीं। कोई दोनो को मानता है परंतु अनुसरण किसी का भी नहीं करता तथा कोई जात पात धर्म संप्रदाय के आग में अपना रोटी सेंकना चाहता तो कोई विरासत में मिले राजनैतिक गद्दी को हथियाना चाहता है और बाप बेटे, चाचा भतीजा, भाई बंधु पार्टी पर संपूर्णाधिकार के लिए आपस में लड़ते झगड़ते रहते हैं, मामला सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग तक पहुंच जाता है।
हर हाल में किसी नेता विधायक, सांसद,मंत्री का बेटा विधायक सांसद मंत्री ही बनाना चाहता है। उसके पिता ने यदि पार्टी बनाई है तो वही उसका मालिक बना रहना चाहता है, दूसरे योग्य को मौका देने का जोखिम कतई नहीं लेना चाहता।
कभी कभी राजनैतिक सताधारी पार्टी के अंदर भी बगावत हो जाता है और दो गुट में बट कर एक पक्ष विपक्षी पार्टियों के साथ गठबंधन कर सत्ता पर पुनः काबिज हो जाता है। ऐसी स्थिति में न्यूज चैनलों पर रोज डिबेट होने लगे तथा जाति पति सांप्रदायिक आधार पर लोग अपने अपने नेता को चुनने लगे परंतु इससे भी दिल को ठंडक और सुकून नहीं मिला तो दंगे मार झगड़े भी वोटों के खातिर होने लगे। सरकारी सेवाओं में भी भ्रष्टाचार चरम सीमा पर पहुंच गई, अधिकांश अधिकारी कर्मचारी रिश्वत के रुपयों को अपना भाग्य समझने लगें तथा अधीनस्थ विभागो में कहीं भ्रष्टाचार के जांच करने का मौका मिल जाए तो वह परम सौभाग्य की आरोपी अधिकारी/कर्मचारी एक मोटे रिश्वत के रकम सप्रेम भेंट कर मामले को निपटारा करवाएगा।
एक दिन जनता भी इन जुमलेंद्र नाथो के जुमला से परिचित हो ही गई। सत्य तो सत्य है वह बहुत दिन तक छुपा नहीं रह सकता, एक ना एक दिन उजागर हो के ही रहेगा। इन जुमलेंद्र नाथ नेताओं, प्रत्याशियों से जनता का मन अब पूरी तरीके से ऊब चुका था वे अपने साथ हुए ठगी को देर से ही सही मगर पहचान लिए थें। समय भी आ चुका था की प्रजातंत्र के दीपक में बहुत ज्यादा तेल बचा नहीं था वह शीघ्र ही बुझने वाला था। तभी शासन सत्ता चलाने का एक नया विकल्प संगणक तंत्र का विकास हो चुका था।
वैसे भी एक देश एक चुनाव क्या चुनाव की झंझट ही खत्म जो देश में प्रत्येक वर्ष कहीं न कहीं लोक सभा, विधान सभा, नगर निगम या पंचायती राज के चुनाव होते रहते हैं इससे सम्पूर्ण छुटकारा का विकल्प संगणकतंत्र इसमें चुनाव कराने की झंझट ही खत्म और श्रम एवम धन की भी बचत तथा न कोई चुनावी जुमला।
चूंकि संगणक अर्थात गणना करने वाली मशीन कंप्यूटर का विकास तो बीसवीं सदी के मध्य में ही हो गया था परंतु यह साधारण स्तर का था। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में कंप्यूटर में अभूत पूर्व बदलाव किए गए। कई प्रकार के सरकारी, गैर सरकारी, तथा निजीगत कार्यों में कंप्यूटर की महत्ती भूमिका होने लगी। इक्कीसवीं सदी के दूसरा और तीसरा दशक में तो कोई भी संस्थागत तथा निजिगत कार्य बिना कंप्यूटर संपादन करना कठिन हो गया। आलम तो यह हो गया की व्यक्ति के बैंक में कितना रुपए जमा है वह कंप्यूटर बताएगा। यदि कंप्यूटर तथा उसका सरवर खराब हो गया तो बैंक प्रबंधक भी व्यक्ति के खाते में कितना रुपए है बता नहीं पाएगा। बिना कंप्यूटर के मदत से रुपयों की जमा निकासी भी संभव नहीं था। यह सभी कंप्यूटर इंसानों द्वारा बनाए तथा प्रोग्रामिंग किए पदार्थ के मूल भूत कण इलेक्ट्रॉन पर आधारित थें जिसे इंसान अपने विवेकानुसार नियंत्रित करते थें।
इक्कसवीं सदी के दूसरे दसक के अंत तक इंसानों ने प्रकाश के मूल भूत कण फोटोन पर आधारित क्वांटम कंप्यूटर का आविष्कार कर लिया जो बाइनरी इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर के मुकाबले हजारों गुणा तेज गणना करने में सक्षम था। इसी क्वांटम कंप्यूटर खोज के दम पर कृत्रिम बुद्धिमता वाले रोबोट एक दम मानवों के प्रतिमूर्ति समरूप बना लिए गए जिनके अंदर अधिकांश इंसानी गुण तथा कार्य सामर्थ्य क्षमता विकसित कर दिए गए। अब रोबोट इंसानों के साथ बिना थके, बिना रुके, बिना आपसी क्लेश के इंसानों से ज्यादा काम करने लगे। बस उनमें कमी थी तो मानवीय संवेदना, करुणा, प्रेम, दया और विवेक का। यह कमियां भी कुछ ही सालो में ठीक करते हुए इंसानों ने सुपर क्वांटम कंप्यूटर प्रणाली विकसित कर लिया जिसके अंतर्गत अति अत्याधुनिक कृत्रिम बुद्धिमता वाले रोबोट बिलकुल हू बहु इंसानों के समरूप में हो गए और उनमें मानवीय संवेदना, सूझ बूझ, करुणा, प्रेम वह सब कुछ विकसित हो गया जो इंसानों में होता है।
इस प्रकार के कृत्रिम बुद्धिमता के उच्च गुणवत्ता वाले रोबोट जीवन के विभिन्न आयामों में इंसानी कार्य के अपेक्षा सत्य, ईमानदारी के साथ सटीक और त्वरित कार्य करने लगें। जैसे किसी तालाब के मछली पानी में रह कर कब पानी पी लिया तालाब के मालिक यह पता नहीं लगा सकता केवल अनुमान लगा सकता है की मछली ने आज पानी पिया होगा। ठीक उसी प्रकार सरकार चलाने वाले पार्टियों के पदाधिकारी गण तथा सरकारी कर्मचारी कब किससे रिश्वत ले लिया, दे दिया यह कार्यालय प्रमुख, मुख्य मंत्री तथा प्रधान मंत्री को सटीक ज्ञान नहीं हो सकता केवल अनुमान लगा सकता है। वहीं सुपर क्वांटम कंप्यूटर युक्त रोबोट इस प्रकार जटिल मामले को भी एक सेकंड के साठवें भाग में पता लगाने में सक्षम हो गए। धीरे धीरे प्रजातांत्रिक व्यवस्था के सरकार तथा उसके कार्यालयों में प्रधान मंत्री, मुख्य मंत्री, अन्य सहायक मंत्री तथा देश, राज्य, जिला, ब्लॉक व ग्राम पंचायत के अनेक कार्यालयों के प्रमुख/प्रधान अधिकारी के पद पर सुपर क्वांटम कंप्यूटर युक्त कृत्रिम बुद्धिमता के रोबोट फिट कर दिए गए जो पूरा आचरण, बोल चाल तथा व्यवहार इंसानों के तरह कर रहे थें। उसमें सरकार, शासन, सत्ता और व्यवस्था चलाने के पूरे नियम कानून प्रोग्रामिंग कर दिए गए जो इंसान इससे पहले अपने विवेकानुसार चलते थें। अब न कहीं झूठ था, न कहीं लूट पाट, न किसी के साथ पक्षपात भेदभाव, ना ही कामचोरी का बहाना क्यों की मशीन गलतियों तथा झूठे फर्जी रिपोर्टों को तुरंत स्कैनिंग कर पता लगा ले रहे थें। जो मानक एवम नियम निर्धारित किए गए किसी काम के लिए उस पर निचले मानव कर्मी यदि शत प्रतिशत गुणवत्तापूर्ण कार्य नहीं करते वह रोबोट स्वीकार नहीं करता तदनुसार प्रोग्रामिंग के मदत से वह दंडनात्मक अनुशासनात्मक कार्यवाही भी करता। वित्तीय मामले में कार्य मानक के अनुसार अपूर्णता की स्थिति में फर्जी धन भुगतान का अनुमति नहीं देता।
जो गुण इंसानों के अंदर होने चाहिए थे जिसका उल्लेख अनेक धर्म ग्रंथों में है वह कृत्रिम बुद्धिमता युक्त रोबोट मशीन एक प्रोग्रामिंग के जरिए कर रहा था। उसे न कोई रिश्वत की मोह थी न वह रिश्वत उसके कोई काम का है, न अधीनस्थ मानव कर्मचारी अपने रोबोट उच्चाधिकारी को गुमराह कर पा रहे थें न कोई अनीति अनाचार भ्रष्टाचार कर पा रहा था। क्यों की इंसानों के अंदर भी माइक्रो चीप लग चुके थें जो वह सुपर क्वांटम कंप्यूटर युक्त कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले रोबोट बड़ी शालीनता से अपने कक्ष में बैठे सब कुछ देख और अनुभव कर रहा था। आगे चल कर इंसानों ने देखते देखते अपने रोजमर्या के कार्यों में उपयोग होने वाले मानवीय श्रम शक्ति के बजाय रोबोट सस्ते, टिकाऊ और लंबे वक्त तक काम करने लगे और उत्पादन को आशातीत बढ़ोतरी कर दिया। तथा दिन दुनियां का अधिकांश कार्य अत्याधुनिक तकनीकी यंत्रों के सहारे होने लगे।
खास बात यह भी है की इस प्रकार के रोबोट का नियंत्रण किसी नकारात्मक, गलत व्यक्ति के हाथ लग गया तो इसमें वह मनुष्यों के अवगुनो, अपराधिक प्रवृत्ति को प्रोग्रामिंग कर के भारी तबाही और इंसानों को रोबोट मशीन के गुलाम भी बना सकता है इसमें कोई संदेह नहीं।
बहरहाल समय बदल चुका था और प्रजातांत्रिक व्यवस्था कब संगणकतांत्रिक व्यस्था में बदल चुका था आम इंसानों का पता ही नहीं चला जैसे व्यक्ति कब जवान हुआ, कब उसे बुढ़ापा आया, कब मृत्यु होगी इसका कोई निश्चित तिथि नहीं ज्ञात है ठीक उसी प्रकार प्रजातांत्रिक व्यस्था का दीपक कब बुझा कुछ पता ही नहीं चला तथा घनघोर अंधेरा होने से पहले ही एक नए संगणकतंत्र का दीपक झिलमिल अटखेलिया कर रहा था। शास्त्रों में लिखी कलयुग के बारे में भविष्यवाणियां की इंसान एक से बढ़ कर एक मशीन, उपकरण बनाएगा वह आज सत्य सा हो गया। इस श्रृष्टि का इतिहास है की किसी सभ्यता संस्कृति के सूरज का उदय होता है तो वह समयोपरांत अस्त भी होता है फिर अगली सुबह दूसरे नए सभ्यता संस्कृति का जन्म होता है।
वसुधैव कुटुंबकम् सबका मंगल सबका भला...
नोट: इस आलेख के जरिए किसी व्यक्ति, समुदाय तथा किसी राजनैतिक पार्टी के निजीगत स्वैच्छिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना हमारा मकसद नहीं है। यदि ऐसा एहसास किसी को होता है तो वह एक संयोग मात्र होगा जिसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं।
भारत साहित्य रत्न व राष्ट्र लेखक उपाधि से अलंकृत
डॉ. अभिषेक कुमार
साहित्यकार, समुदाय सेवी, प्रकृति प्रेमी व विचारक
— आपको यह ब्लॉग पोस्ट भी प्रेरक लग सकता है।
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