पलट दल बदल, जनादेश बेदखल
(वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर चिंतन)
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©आलेख: डॉ. अभिषेक कुमार
इस श्रृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका कोई अपना नियम सिद्धांत न हो..? सूर्य, चांद, तारे, ग्रह, नक्षत्र, समस्त सजीव निर्जीव, दृश्य अदृश्य परिस्थितियां सभी कुछ अपने अपने नियम सिद्धांत से ही चलायमान हो रही है। तभी तो अपेक्षित परिणाम प्राप्त हो रहा है जिससे संतुलन की स्थिति बनी हुई है। यदि पल भर भी इनमें से कोई अपने नियम सिद्धांत से भटक जाए तो अनर्थ, अनिष्ट, अमंगल हो सकता है। व्यवहारिक जगत में सभी व्यक्तियों का भी अपना अपना कुछ वसूल नियम सिद्धांत होता है। व्यक्ति के चरित्र आचरण कैसा होना चाहिए यह धर्म शास्त्र में विस्तार पूर्वक वर्णन है। तमाम ईश्वरीय लीलाओं की कथाएं का सार व्यक्ति के चरित्र आचरण निर्माण से ही संबंधित है। कलयुग के इस घोर कलुषित वातावरण में भी जिस व्यक्ति के पास कोई वसूल, नियम, सिद्धांत, मर्यादा ना हो वह समाज में उच्च दृष्टिकोण से नहीं आंका जाता वह निंदा, उपहास का पात्र बन जाता है तथा उसकी वह अशक्ति में निरंतरता एक दिन घृणित अवस्था तक भी ले आती है।
वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था प्रजातांत्रिक आधारित है जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के सेक्शन 29A के तहत किसी भी राजनैतिक दल के पंजीकरण का प्रावधान है। चुनाव आयोग पार्टी पंजीकरण के वक्त सर्व प्रथम ही पार्टी का नियम कानून, सिद्धांत, संविधान जिसके आधार पर आगे पार्टी चलेगी अथवा शासन व्यस्था संभालेगी उससे संबंधित दस्तावेज लेता है। किसी भी पार्टी का मूल उद्देश्य भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखते हुए लिंग, जाति, पाती धर्म संप्रदाय के भेद भाव से ऊपर उठ कर एकात्म मानववाद के उत्थान हेतु आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक और राजनैतिक दृष्टिकोण से सशक्त और मजबूत बनाने पर बल देना जैसा उद्देश्य सर्वोपरि होता है। परंतु वास्तव में वर्तमान राजनीत परिदृश्य का हालात किसी से छुपा नहीं है। राजनीति के महान विचारक चाहे वह देव गुरु बृहस्पति जी हो या भगवान श्री कृष्ण या विदुर नीति या फिर चाणक्य नीति इन सभी लोगों ने स्वार्थ से परे राजनीति पर बल दिया है। आज के परिवेश में राजनीति पर स्वार्थ का घना बादल देखने को मिलता है। कभी राजा भरत ने अपने नौ पुत्रों में से किसी में भी राजा का गुण न देखते हुए पुत्र मोह से मुक्त होकर जनसमुदाय से सुयोग्य भारद्वाज अभिमन्यु को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर प्रजातंत्र का बीज बोया था परंतु वर्तमान में अधिकांश राजनीति दल के निर्माता, संस्थापक अध्यक्ष के पुत्र ही शासन सत्ता पर राज करें यही तत्परता लगनशीलता को हम सभी अभी तक देखते और स्वीकार करते आए हैं। अर्थात कर्म से नहीं जन्म से मुख्य मंत्री, प्रधान मंत्री, सांसद, विधायक का बेटा विरासत में मिले राजनैतिक सुख का दावेदार होगा..! भले ही पार्टी के अन्य कार्यकर्ता उससे ज्यादा होनहार सामर्थ्यवान क्यों न हो... यह महत्वपूर्ण नहीं रखता। पर कुछ ऐसे भी राजनीति दल है जहां सर्वोच्च सत्ताधारी नेता का चुनाव किसी भी सुयोग्य का हो सकता है। वास्तव में कोई भी राजा अपने देश तथा जनसमुदाय से बड़ा नहीं हो सकता उसके लिए जन अपेक्षाओं, जनादेश से बड़ा निजी स्वार्थ नहीं हो सकता जो वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था में पलट दल बदल की राजनीत देखने को मिल रहा है।
सत्ताधारी पार्टी के प्रमुख नेता जो राजगद्दी पर आसीन है उनके कुछ प्रमुख महत्वपूर्ण कर्तव्य निर्धारित है जिनमें से देश तथा जनसमुदाय को न्याय देना, उनकी हितों की रक्षा करना, तदुपरांत पुत्र मोह से परे किसी ऐसे सुयोग्य कर्मठ व्यक्ति को उत्तराधिकारी घोषित करना जिसके अंदर जनोपयोगी विकास कार्य, रचनात्मक कार्य, न्याय और सुरक्षा देने का सामर्थ्य हो। परंतु जाति पाती धर्म संप्रदाय में बटी वर्तमान प्रजातांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था का कोई भी दल अकेले बहुमत का आंकड़ा ला ही नहीं सकता उसके केंद्र तथा राज्य में कोई न कोई गठबंधन साझीदार दल है ही। यह भारतीय राजनीति का रोचक तथ्य है। कारण की राजनैतिक दल का उद्देश्य जाति पाती धर्म संप्रदाय से ऊपर उठ कर मानवता को केंद्र बिंदु बना कर सबका साथ सबका समेकित विकास करना था पर एक बड़े जाति/समुदाय के वोट के लिए उसी समुदाय के योग्य/अयोग्य नेता को आगे लाकर राजनीत करने के कारण वर्तमान सभी पार्टियां भले ही जाति पाती की दुर्भावना से ऊपर बताती है पर वास्तव में जनसमुदाय के दृष्टिगत समाज में रहने वाले सभी जाति वर्ग के लोग सभी पार्टियों को कोई न कोई विशेष जाति समूह के विचार धारा के मानती है। अथवा भले ही कोई दूसरे जाति समुदाय का सुयोग्य प्रत्याशी क्यों न हो परंतु अपना मत देगें तो केवल अपने जाति समुदाय के नेता को अथवा पार्टी को..! एक और विचित्र समस्या देखने को मिलती है की जिस पार्टी के संस्थापक या राष्ट्रीय अध्यक्ष जिस जाति धर्म का है उसी जाति धर्म के जनसमुदाय भी उससे ज्यादा प्रभावित है अथवा वह नेता उसी जाति समुदाय को ज्यादा प्रभावित करना पसंद करता है तमाम उसके मुद्दे उठा कर... कारण की दूसरे जाति धर्म वाले उसकी बात कोई सुनेगा ही नहीं..!
सभी राजनीतिक दलों का अपना-अपना विशेष उद्देश्य तथा सिद्धांत होता है परंतु अपने अकेले दम पर वे किसी राज्य या केंद्र में सत्ता में नहीं आ सकते यह परम सत्य है। तो वे अन्य घटक दलों के साथ समझौता, सीटों के बटवारा के आधार पर गठबंधन कर चुनाव जीतते हैं। यहां तक भी चलो ठीक है, समान विचार धारा वाले दलों से गठबंधन कर चुनाव लडा जाए। कुछ पार्टियां इस प्रकार गठबंधन कर चुनाव लड़ के एक तिहाई सीटें जीत कर बहुमत में आकर सरकार बना भी लेती है परंतु स्वार्थ एक ऐसा शत्रु है जो किसी के अंदर समा गया तो उसके चैन आनंद सबको तबाह कर देता है। सत्तारूढ़ दल के चार पांच पार्टियां शासन सत्ता के मलाई खाने में खींचा तान करती रहती है अथवा खुद को नहीं मिल रहा तो दूसरे को खाने नहीं देती... इस कारण खटपट शुरू होता है और फिर विपक्ष जिसके विरुद्ध घोर कटु शब्दों के वाण चला कर जनता जनार्दन को भी भ्रमित कर चुनाव जीत शासन सत्ता की बागडोर अपने हाथों में लिया गया था अर्थात जिसके विरुद्ध चुनाव जीता गया था फिर उसी पार्टी के साथ नया गठबंधन कर बहुमत के आंकड़े को छूते हुए पुनः सरकार बना लेना जनादेश का अपमान है की नहीं तनिक आप विचार कीजिए..?
ठीक है सहयोगी गठबंधन दलों के साथ किसी भी पहलुओं पर मतभेद हो सकता है तो इससे पहले क्या मतदाताओं देश के नागरिकों के अभिमतो का सर्वे कराया गया..? नहीं... केवल स्वार्थ मोह में कभी इस पार्टी के साथ गठबंधन तो कभी उस पार्टी के साथ गठबंधन कर सरकार बनाते रहना और राजगद्दी से चिपके रहना केवल मकसद हो। वह भी केवल एक दो बार नहीं बार बार जनादेश बेदखल कर पलट दल बदल इतना की पलटू राम की उपाधि मिल गई हो। अर्थात पांच साल के एक ही कार्यकाल में चार पांच बार मुख्यमंत्री पद की सपथ। फिर भी कोई शर्म हया नहीं बस जनता के भलाई और विकास के लिए यह सब किया जा रहा है। जबकि उन्हें नहीं पता की विकास एक सतत प्रक्रिया है जो समय की मांग और जरूरत के अनुसार स्वत: उत्पन्न होने वाली पद्धति है और यह अनवरत चलता रहता है जो कभी रुकता नहीं। एक दिन इसी क्रमबद्ध विकास ने अपनी रफ्तार से चलते-चलते इस स्थूल संसार का अंत और फिर उत्पन्न करता है। इस लिए विकास किसी व्यक्ति विशेष के मोहताज नहीं हो सकता। जनता भी उतना जागरूक समझदार कहा हैं जो इनके स्वार्थ की राजनीति के परिभाषा को समझ सके। जिस देश में एक बहुत बड़ा मतदाता समूह अपनने मतदान के अधिकार किसी नेता के लहर या प्रचंड प्रचार के बहाव में आकर योग्य/अयोग्य उम्मीदवार के आकलन किए बगैर प्रयोग करती है अथवा उसके मताधिकार के शक्ति को मुफ्त की रेवड़ी देकर या नगद रुपया पैसा देकर खरीद लिया जाता हो तो एक स्वस्थ्य मजबूत लोकतंत्र के लिए कड़ी मेहनत करने की जरूरत है।
वर्तमान राजनीत में तोड़ जोड़ की राजनीति बहुत देखने को मिल रहा है। कोई दल किसी दूसरे सत्तारूढ़ दल या विपक्षी दल के विधायक/सांसद को लोभ स्वार्थ में अपने पाले में मिला कर वर्तमान सरकार को गिरा के नई सरकार बना ले रही है। सरकार ने वर्ष 1985 में संविधान की दसवीं अनुसूची में दल-बदल विरोधी कानून के रूप में जोड़ा। जिसके अंतर्गत एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने पर संसद सदस्यों (सांसदों)/विधानसभा सदस्यों (विधायकों) को दंडित करता है। विधायकों को दल बदलने से हतोत्साहित करके सरकारों में स्थिरता लाने के लिये भरसक प्रयास किया गया लेकिन किसी पार्टी के एक एक तिहाई से ज्यादा निर्वाचित प्रतिनिधि एक साथ किसी दूसरे पार्टी में मिलना चाहते हैं तो यह कानून प्रभावी नहीं होता है। भारत के केंद्र या अधिकांश राज्यों में प्रमुख रूप से कोई दो ही पार्टियां है जो बारी बारी से एक सत्ता में आती है तो दूसरा विपक्ष में बैठती है। किन्हीं किन्हीं राज्यों में त्रिशंकु की स्थिति है। बाकी सब छोटे मोटे दल होते हैं जो एक, दो, चार पांच या दहाई तक सीट जीतते हैं। दो परस्पर विरोधी दलों की सत्ता पर काबिज होने की लड़ाई में बहुमत के संख्या के हिसाब दो चार पांच सीटों की कमी के दृष्टिगत इन छोटे मोटे दलों का समर्थन बड़ा ही महत्वपूर्ण हो जाता है। आखिर यह दो चार पांच या दस बीस सीट लेकर जिधर मिलेंगे उधर की गठबंधन पार्टी बहुमत के लिहाज से सत्ता पर काबिज हो जायेगी। इस लिए ऐसे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पास उप मुख्यमंत्री या मुख्यमंत्री के पद तक का प्रस्ताव सहज ही मिल जाता है, और कुछ नहीं तो किसी विभाग के मंत्री पद तो निश्चित है। या उस पार्टी अध्यक्ष किसी समीकरण वश उप मुख्यमंत्री या मुख्यमंत्री के कुर्सी पर काबिज नहीं हो सकता तो उनके पुत्र यदि यदि निर्वाचित न हो तो भी ऊपरी सदन विधान परिषद/राज्य सभा आदि में मनोनित कर उपमुख्य मंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री का पद ऑफर कर अपने दल के साथ गठबंधन कर सरकार बनाने की दावा राज्यपाल के समक्ष पेश कर दिया जाता है। अच्छा ऐसे दल बिना कोई संकोच अन्य पार्टियों के सिद्धांत उद्देश्य के साथ कोई ताल मेल हो न हो बस मंत्रिमंडल के एक हिस्सा होने के स्वार्थ में किसी भी दल के साथ गठबंधन करने में कोई संकोच नहीं करती। फिर बाद में विपक्षी दलों के पास जितने सरकार बनाने के अवसर प्राप्त हो जाने की दशा में इस गठबंधन से अलग होकर उस गठबंधन का एक नया हिस्सा हो जाना यह सब वर्तमान राजनीत में आम बात हो गई है। जबकि राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ने सात सामाजिक पापों की सूची में सिद्धांत के बिना राजनीति सबसे ऊपर रखा था। आज इसका कोई परवाह किसी को नहीं है।
एक-दो प्रमुख घोर परस्पर विरोधी पार्टियों को छोड़ अधिकांश पार्टी अपने सिद्धांतों, उद्देश्यों को ताक पर रख किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन कर सरकार में बने रहने के लिए लालायित रहती है। उनके लिए ना पार्टी उद्देश्य महत्वपूर्ण है ना जनादेश... बस अपने निजीगत स्वार्थ की राजनीत में मंत्रिमंडल के कुर्सी के लिए कभी इस दल के साथ गठबंधन तो कभी उस दल के साथ गठबंधन के फिराक में डोलते फिरते रहते हैं। सत्ता शासन के ऐसे दलबदलुओं को भी खूब अवाभगत होती है यदि उनके पास कुछ विधायक/सांसद है और वे बहुमत के आंकड़े को प्रभावित करते हैं। जब वे सत्ता पक्ष में होते हैं तो विपक्ष उस पार्टी के खूब कमियां दोष जनता जनार्दन को दिखाती है और जैसे ही वह सत्ताधारी दल से अलग होकर विपक्षी पार्टी के साथ सरकार बना लेते हैं वैसे ही उनके सारे गुनाह और पाप भस्मीभूत स्वाहा हो जाते हैं।
पार्टी सिद्धांत और जनादेश के उम्मीदों को खाक में मिलाकर बस निजीगत स्वार्थ में मंत्रिमंडल के कुर्सी के लिए मोहित रहने वाले पार्टी और नेताओं से न देश की भला हो सकती है और ना ही समाज को। ऐसे शासन सत्ता केवल लूट और भ्रष्टाचार का साधन बना रहेगा। ऐसे दलबदलु निर्वाचित प्रतिनिधियों और पार्टियों के नियंत्रण पर भी कोई ठोस कानून होना चाहिए। प्रजातंत्र में ऐसे पार्टी जिनके पास बहुमत के स्पष्ट आंकड़े प्राप्त न होने की स्थिति में जोड़ तोड़ की राजनीत, खरीद फरोख्त का भय, कुर्सी के लोभ में दल बदल करने वाले पार्टी और नेताओं पर कठोर कानून होना चाहिए। किसी किसी राज्य में जनादेश से बनी बनाई सरकार को खुद अपनी ही पार्टी के एक तिहाई से ज्यादा निर्वाचित विधायको को तोड़ कर तथा जनादेश बेदखल कर विपक्षी दूसरे पार्टियों के साथ मिल कर सरकार बना लेना और बागी विधायक दल के नेता खुद मुख्यमंत्री बन जाए और विपक्षी दल के पूर्व मुख्यमंत्री परिस्थिति के अनुसार उपमुख्य मंत्री से संतोष कर रहा हो, यह आने वाले समय और लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। मौजूदा समय में कुल लोक सभा/विधान सभा सीट के आधे से एक ज्यादा निर्वाचित विधायक सांसद जिस दल या गठबंधन के साथ है वह सत्ता की बागडोर संभालेगा ऐसा प्रावधान है। परंतु जोड़ तोड़ की राजनीति पनप जाने से कोई भी दल आपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा किसी भी सतारूढ़ दल के साथ कभी भी खेला हो सकता है और शासन सत्ता पलट सकती है। अभी तो बहुत कुछ फिर भी मंगल है पर आने वाले समय में इसका विकराल रूप होगा और सबसे ज्यादा कीमत आम जनता को उठाना पड़ेगा।
कुछ ऐसे दलों का भी उदय हुआ जिनका जनाधार न तो राष्ट्रीय स्तर पर है न राज्य स्तर पर बस किसी विशेष क्षेत्र में मात्र दो चार पांच सीटों पर थोड़ा प्रभाव है। ऐसे पार्टियां भी चुनाव के वक्त परस्पर दो विरोधी दलों में से किसी के साथ गठबंधन हो जाए जिसके लिए उनके शीर्ष नेताओं के पीछे-पीछे डोलते फिरते रहते हैं। सभी पार्टियों को सीटे अधिक से अधिक जितने का लक्ष्य होता है जिस कारण ऐसे क्षेत्रीय दलों की लौटरी लग जाती है और गठबंधन के सीट बटवारे में दो चार सीट पा लेते हैं। बड़ी पार्टी के साथ होने के प्रभाव से वे कुछ सीट जीत भी लेते हैं। फिर उसके पार्टी अध्यक्ष को मंत्रिमंडल में जगह भी मिल जाती है चाहे वह खुद चुनाव जीता है या हरा हो। जैसे ही सरकार के पांच साल का कार्यकाल समाप्ति की ओर होता है और उन्हें ऐसा लगता है अगली बार सरकार विपक्षी पार्टियों की बन रही है वे झट से अपना पाला बदल सत्तारूढ़ गठबंधन से अलग होते हुए विपक्षी पार्टियों के ओर मिल जाते हैं यह सोच कर की चलो फिर कुछ सीटे मिल जायेगी चुनाव जीत लेंगे और फिर मंत्रिमंडल में पांच वर्ष शामिल रहेंगे। जनता इनकी कुर्सी पाने के चतुराई को समझ नहीं पाती और बस अपना जाति समुदाय होने के कारण आंख बंद कर वोट देते रहती है। यह बात अलग है की जनता के लड़के सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं और ऐसे दलबदलुओं सत्ता में हमेशा रहने वाले नेताओं के लड़के अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि देशों में पढ़ते हैं। नैतिकता मानवता के आधार पर कोई भी पार्टी ऐसे लाभकारी दलबदलु दलों को बार बार भी अपने में मिलाने से कतई परहेज नहीं करेगी। इन पर नियंत्रण के लिए देश में कोई ठोस कानून की परमावश्यक है। कभी हरिशंकर परसाई ने कहा था की प्रजातंत्र में सबसे बड़ा दोष यह है की उसमें योग्यता को मान्यता नहीं मिलती, बल्कि लोकप्रियता को मिलती है।
कुछ ऐसे भी दल हैं जिनका आंतरिक कलह समाज और देश के सामने आया। ऐसे दल के संस्थापक अध्यक्ष के मृत्यु उपरांत उनके भाई और पुत्र में पार्टी पर एकाधिकार के लिए द्वंद शुरु हो गया। आपसी द्वंद इतना गहराया की पार्टी दो धड़ों में विभक्त हो गई। जरा विचारिय जिस देश में प्रेममूर्ति भरत ने त्रिभुवन विदित अलकापुरी के समान अयोध्या के मिले वैभव, राजगद्दी को यह कह कर ठुकरा दिया की इस गद्दी पर पहले बड़े भैया राम का हक है उस देश में चाचा भतीजा से, भतीजा चाचा से, भाई, भाई से स्वार्थ में वशीभूत होकर राजनैतिक विरासत के लिए हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट तक झगड़ा करें वह जानता के भलाई के लिए कितना तत्पर रहेगा खुद अनुमान लगा लीजिए..!
कुछ ऐसे भी पार्टी हुए जिनके दो चार विधायक सांसद हमेशा जीतते रहें और उस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह भी पता रहे परंतु कुछ और बड़े की चाहत में बनी बनाई, ठीक ठाक संचालित पार्टी को किसी दूसरे पार्टी में विलय कर हजारों कार्यकर्ताओं को विश्वास तोड़ दिया हो। फिर वहां अपेक्षित पद प्रतिष्ठा न मिलने के कारण कुपित होकर उस पार्टी से अलग होते हुए पुनः दूसरे नाम से नई पार्टी गठन कर विकास के नाम पर जनता से वोट मांगना इसे क्या समझा जाए निजीगत विकास या स्वार्थ लोलुपता..? वह भी क्यों न ये जितनी बार सांसद विधायक बनेंगे उतनी बार के पेंशन और भत्ता आजीवन पाएंगें। कोई उम्र भर साठ साल सरकारी नौकरी करे तो उसे पेंशन नसीब नहीं होना है।
किसी के पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत/जनादेश प्राप्त नहीं हो रहा की राष्ट्रीय स्तर पर या राज्य में अकेले दम पर सरकार बना ले। जोड़ तोड़ गठबंधन की राजनीत से खींचतान वाली कमजोर सरकार बन रही जिसके प्रभाव देश समाज पर प्रतिकूल पड़ रहा तो इस पर पर क्यों नहीं विचार करना चाहिए की दल बदल और गठबंधन की राजनीत को पूर्णतः बैन करते हुए या तो जिस एकल पार्टी के पास सबसे ज्यादा विधायक/सांसद चुनाव जीत रहे हैं उसी को शासन सत्ता की बागडोर सौंप देना चाहिए जैसा की ग्राम पंचायत चुनाव में बीस, पच्चीस, तीस व्यक्ति प्रधानी चुनाव लड़ते हैं और उसमें से सबसे ज्यादा मत जिस प्रत्याशी को प्राप्त होता है वही ग्राम प्रधान बनता है। इसी तर्ज पर विधान सभा लोक सभा का चुनाव हो..? ठीक उससे कम विधायक/सांसद जितने वाले दूसरी बड़ी पार्टी को विपक्ष में बैठने का अधिकार... क्योंकि बिना मजबूत विपक्ष के शासन सत्ता पर एकाधिकार हो जायेगा फिर जो मन में आए वह कानून बना कर देश पर थोप दिया जायेगा। वैसे भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में पच्चास, साठ या सत्तर प्रतिशत से अधिक वोट पड़ता नहीं है और बहुत सारे वोटर जागरूक नहीं हैं तो फिर क्यों न राजतांत्रिक और प्रजातांत्रिक व्यवस्था से अलग सरकार चलाने के विकल्प पर विचार करना चाहिए..? या न्यालयतंत्र के तहत देश, राज्य तथा जिले में क्रमश: सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, तथा जिला न्यालय के माध्यम से शासन सत्ता का संचालन किया जाए..? या फिर सरकार चलाने के लिए संगणकतंत्र का विकास करना चाहिए जहां सुपर क्वांटम कंप्यूटर आधारित कृत्रिम बुद्धिमता प्रणाली देश और समाज को असल में न्याय और सुरक्षा दे सके। क्यों की व्यक्ति के भीतर शास्त्र वेद पुराणों उपनिषदों के पठन पाठन से बढ़ते दूरी अमानवीय दुर्गुण भ्रष्टाचार, अनाचार, अनीति के उच्चतम प्रकाष्ठा पर ले जा रही ऐसे में ईमानदारी और नैतिकता का शंखनाद केवल और केवल भोले भाले जनता जनार्दन को गुमराह करने वाला है। जनता बार बार चिकनी चुपड़ी लुभावने चुनावी वादों का शिकार होकर अपना मतदान करेंगें और फिर राजनैतिक सुख उन नेताओं के पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचेगी और मतदाता रोजगार का अभाव, आय कम खर्च ज्यादा, दिन प्रतिदिन महंगाई के चंगुल में फसते चले जायेंगें।
सब नेता खराब ही नहीं है कुछ ऐसे भी शीर्ष नेता हुए जिन्होंने राष्ट्र हित के लिए निजी हितों को कुर्बान कर दिया। वे निस्वार्थ हो कर राष्ट्र हित और समाज हित के लिए लोक कल्याणकारी ऐतिहासिक कार्य किए। उनके परिवार में माता पिता भाई बहन पत्नी बच्चे होने के बावजूद भी सामर्थ्य होने के बावजूद भी उन्हें विधायक सांसद के उपहार में टिकट नहीं दिया तथा ना ही शासन सत्ता के किसी महत्वपूर्ण पद पर मनोनित किया। उनके सगे संबंधी आज भी साधारण जीवन यापन कर रहे हैं। ऐसे नेताओं के नैतिकता, ईमानदारी और आदर्श अनंत काल तक दिव्य प्रेरक कहानियाँ बन कर भविष्य को प्रेरणा और सही रास्ता दिखाती रहेगी।
जो व्यक्ति अपने दिए जुबान से दो चार बार मुकर जाता है तो उस पर कोई पुनः विश्वास नहीं करता तथा उसे लोग धोखेबाज की संज्ञा दे देते वहीं राजनैतिक पार्टियां शासन सत्ता के मोह स्वार्थ में दल बदल कर अपने उद्देश्यों से बार बार भटक जाती है फिर भी वह जानता के विश्वास से सीट जीतने में सफल हो जाती है यह हैरान करने वाला वाक्या है। ऐसे दलबदलुओं को वोट देने के पहले जनता को भी विचार करना चाहिए की देश समाज के लिए अगला ने क्या कदम उठाया..? या फिर अपनी कुर्सी के मोह में मिले अनमोल समय को गवां दिया या फिर देश हित से ज्यादा अपने संतान हित में लगा हुआ है। बहुत सारे राजनैतिक पार्टियों के संस्थापक अध्यक्ष या राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनीत के विरासत, उत्तराधिकारी अपने निज संतान को ही बनाने के फिराक में रहते हैं। यदि उनके पुत्र सुयोग्य है तो उनके निर्णय स्वागत योग्य है। जब पुत्र शासन सत्ता के योग्य नहीं है तो उन्हें कुरुवंशी राजा हस्तिनापुर नरेश सांतनु की व्यथा कथा को स्मरण करना चाहिए की उनकी सत्यवती से विवाह का शर्त उसके ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित करने से था। समयोपरांत सांतनु और सत्यवती से दो पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए। शर्त के अनुसार भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही दिनों में गन्धर्वों से युद्ध करते हुए वह मारा गया। तदुपरांत विचित्रवीर्य के हाथों में शासन सत्ता का बागडोर सौंप दिया गया वह भी खराब स्वास्थ्य के कारण जल्द ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। अर्थात जिस भरत ने अपने नौ पुत्रों के रहते उनमें अयोग्यता के देखते हुए जनसमुदाय से भारद्वाज अभिमन्यु को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर कर्म प्रधान प्रजातंत्र का बीज बोया था वहीं पुनः जन्म आधारित राजनीत के महत्वकांक्षा के बीज बोया गया तो परिणाम क्या हुआ सत्यानाश..!
राजनीति में नैतिकवान, बुद्धिजीवियों, विवेकी महापुरषों का प्रतिनिधित्व नगण्य सा हो गया है कारण की ऐसे अधिकांश लोग धन बल छल से मजबूत नहीं होते चूंकि वर्तमान राजनीत इतनी महंगी हो गई है की आम साधारण बुद्धिजीवी चुनाव लड़ ही नहीं सकते..! यदि वे चुनाव लड़े तो चुनाव जीत ही नहीं पाएंगें जो वर्तमान राजनीत व्यवस्था है। कदाचित संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर जी ने यही सोच कर संविधान के अनुसूची 80 का प्रावधान किया होगा जिसके अंतर्गत वैसे व्यक्ति जो चुनाव नहीं जीत सकते हैं, जिनके पास जनाधार नहीं है और वे कोइ राजनैतिक पार्टी के सदस्य भी न हो परंतु उनके भीतर असाधारण प्रतिभा होने के कारण वे राष्ट्र हित में उपयोगी साबित हो सकते हैं ऐसे 12 लोग जो खासकर साहित्य, विज्ञान, समाज सेवा और कला संस्कृति आदि के क्षेत्र में विशिष्ट ज्ञान व अनुभव रखते हैं उन्हें प्रधानमंत्री के सिफारिश पर राष्ट्रपति राज्य सभा में मनोनित कर सकते हैं। वहीं ऐसे विशिष्ट महानुभावों को दोहरी सदन वाले राज्यों में मुख्यमंत्री के सिफारिश पर राज्यपाल विधान परिषद में ऐसे 12 लोगों को मनोनित कर सकते हैं। ताकि उनकी विद्वता दूरदर्शी सोच से देश और समाज का भला हो सके। परंतु वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में ये मनोनित सीटो का बटवारा आपस में ही हो जाता है और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष पार्टी के लोग ही उस पर काबिज हो जाते हैं। भला साधारण गरीब बुद्धिजीवी वर्ग संसद के गलियारे तक कहां पहुंच पा रहे..! वहां तो पूंजीपतियों का जमावड़ा है। सुना है पार्टी फंड में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष बिना मोटी रकम लिए वोट बैंक और चुनावी लहर वाली पार्टियां विधायकी/सांसदी चुनाव लडने हेतु टिकट भी नहीं देती आप कितना भी सुयोग्यता और कर्मठता का प्रमाण लिए फिरो..! कुछ लोग तो चुनावी EVM मशीन पर भी सवाल उठा रहे हैं और बैलेट पेपर से चुनाव का मांग कर रहें परंतु बैलेट पेपर भी महफूज़ नहीं है। बाहुबलियों ने पुराने समय में बैलेट पेपर चुनावी पद्धति को भी कई बार चुनौती दिया है। सरल शब्दों में मत लूट लिया है। ऐसे में जरूरत है प्रजातंत्र से अलग हटकर सरकार चलाने के लिए एक नए तंत्र का विकास करना।
आवश्यक नोट: हमारी सोच किसी व्यक्ति/पार्टी के नीचा दिखाना नहीं है, तथा ना ही किसी के निजीगत स्वैच्छिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना हमारा मकसद है, और ना ही हम किसी को निंदित कर रहे हैं। उपरोक्त तथ्य किसी के साथ पूर्णतः सटीक बैठता हो तो वह मात्र एक संयोग होगा। यदि फिर भी किसी के निजीगत भावनाएं आहत होती है तो इसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं।
यह आलेख संविधान के अनुच्छेद 19(I)(A) में मिले स्वतंत्र अभिव्यक्ति के आजादी के तहत स्वच्छंद विश्लेषण किया गया है।
भारत साहित्य रत्न व राष्ट्र लेखक उपाधि से अलंकृत
डॉ. अभिषेक कुमार
साहित्यकार, समुदाय सेवी, प्रकृति प्रेमी व विचारक
मुख्य प्रबंध निदेशक
दिव्य प्रेरक कहानियाँ मानवता अनुसंधान केंद्र
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