चुनावी जनसभा के भीड़ का विश्लेषण।
©आलेख: डॉ. अभिषेक कुमार
जैसा की हम सभी जानते हैं की भारत में लोक तंत्र, प्रजातांत्रिक व्यवस्था का आगाज बीसवीं सदी के मध्य में हुआ था। दो सौ वर्षो की अंग्रेजी हुकूमत और इसके पहले राजतांत्रिक व्यवस्था में चुनावी जनसभा का कोई नामो निशान नहीं था। भारत में जब से प्रजातांत्रिक व्यस्था का उदय हुआ तभी से संविधान के नियमानुसार प्रत्येक पांच वर्षो के उपरांत लोक सभा, विधान सभा चुनावों का प्रावधान है। इन चुनावों में जनता को अपने कामों से अवगत कराने और लुभाने के वास्ते तथा वोट मांगने हेतु चुनाव प्रचार हेतु जनसभा जैसे विकल्पों पर सभी दलों ने विशेष बल दिया। चूंकि यह पद्धति घर घर जाकर वोट मांगने से सरल सहज और तीव्र प्रक्रिया है पार्टी के विचारधारा को आम जनमानस तक पहुंचाने का..! बीसवीं सदी के मध्य और अंतिम के दशकों तक चुनावी प्रचार कम खर्चे में तथा ताम झाम से मुक्त हुआ करते थें। प्रारंभिक दौर में उस समय के पार्टी और प्रत्याशी साइकिल से या पैदल जनता तक जाते थें और खुद के लिए तथा पार्टी के लिए वोट मांगते थें। उस समय के कुछ बड़े, चर्चित नेताओं की जनसभा, रैलियां जरूर हुआ करती थी परंतु आडंबर, दिखवा और खर्चे रहित हुआ करते थें। बस जहां जन सभा करनी है वहां टीवी, रेडियो, अखबार के माध्यम से पूर्व सूचना हो जाती थी, वहां के कुछ स्थानीय कार्यकर्ता साधारण टेंट पंडाल कुर्सी इत्यादि के व्यस्था बना दिया करते थें और एक खुली जनसभा होती थी कोई बैरियर नहीं। इन सभाओं में जगह जगह नाकेबंदी तथा जबरदस्त सड़क जाम का मंजर भी दृष्टिगोचर नहीं हुआ करता था। उस समय जनसभाओं में भीड़ स्वाभाविक उमड़ा करती थी। अपने चहेते नेताओं के अभिभाषण सुनने के लिए लोग कई किलोमीटर दूर से पैदल, साइकिल, या रेल गाड़ी से आया करते थें। वे खुद ही अपना खाने पीने का तथा कार्यक्रम स्थल तक आने जाने का जिम्मा उठाते थें। नेताओं के साक्षात दीदार करने उनके भाषण सुनने हेतु उनके अंदर एक जुनून, जज्बा, ललक हुआ करता था। पहले के चुनावी जनसभाओं में एक दूसरे विरोधी पार्टियों पर जुबानी जंग, हमले कम हुआ करते थें और होते भी तो बड़ा अनुशासनात्मक, मर्यादित। अधिकांशत: सत्तारूढ़ दल या विपक्षी दल अपने पार्टी निधियां या कार्यकर्ता सहयोग के माध्यम से चुनावी जनसभा का खर्चा उठाती थी। ऐसे चुनावी जनसभाओं में सरकारी निधियाँ का दुरुपयोग न के बराबर होता था।

परंतु वक्त और राजनैतिक परिस्थितियों ने करवट लेना शुरू किया। शास्त्रों में भविष्यवाणियां वर्णन है कलयुग का पहर जैसे जैसे आगे बीतेगा वैसे वैसे ही पापाचार, भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार आदि बढ़ता चला जायेगा। इसका असर तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्था पर भी पड़ा। इक्कसवीं सदी के प्रारंभ से ही लोकतंत्र की खूबसूरती लोभतंत्र में परिवर्तित होने लगी। एक से बढ़कर एक घोटाले और सरकारी धन संपदा के दुरुपयोग के मामले सामने आए। मुफ्त की रेवड़ी, वोट के बदले नोट, शराब, मांस एवं अन्य सामग्री/व्यवस्था मिलने की आश्वासन/मोह और स्वर्ग से भी सुंदर धरती पर रसमलाई युक्त राजसत्ता की भोग की महत्वकांक्षा ने दोनो पक्षों को आदर्श मर्यादा के रेखा से बाहर खींच लाई है। मानो मत का दान नहीं मत का विक्रय, वहीं प्रत्याशी इसे जैसे भी हो क्यों न उधार ऋण लेकर या जोत जमीन, गहने गिरवी रख या बेच कर या सरकार में हो तो वहां से जैसे तैसे रुपए का प्रबंध कर ऊंचे दामों में भी खरीदने से चूकना नहीं चाहते। इतने मशक्कत के बाद वे कहीं शासन सत्ता की कुर्सी पर आसीन होते हैं तो स्वाभाविक है जो चुनाव के वक्त खर्चे हुए हों वह तो पहले प्राप्त हो जाए फिर अगले चुनाव के लिए निधि संचित कर लें फिर संबंधित क्षेत्र में दिखावे से परे असल में वास्तविक मूल भूत भौतिक विकास के बारे में सोचा जायेगा यह स्थिति वर्तमान में उपजने लगी। इसी लिए पांच वर्षो के कार्यकाल में फुरसत न मिलने के कारण चुनाव के वक्त जनता, मतदाता के दरवाजा याद आता है और चुनाव के ठीक पहले, रैलियां, जनसभाएं, रोड शो इत्यादि बड़े जोर शोर से होते हैं। विकास की गंगा इसी रैलियों, जनसभाओं, रोड शो में बहा दी जाती है। विपक्षियों के असफलता पर कटु शब्दों के ताने, जुमला पर जुमला, लुभावनी, चिकनी चुपड़ी स्नेहमयी, प्रेममयी फेंकू अभिभाषण भोले भाले जनता मतदाता को मंत्रमुग्ध कर देती है। इन विकास के गंगा में स्थानीय जनसमुदाय भी खूब डुबकी लगाते हैं तथा इस बार एक नए विश्वास, उमंग के साथ फिर मताधिकार का प्रयोग करते हैं और फिर पांच साल तक क्या परिणाम होता है वह किसी से छुपा नहीं है। आप सभी समझदार है अनुभव कर सकते हैं।
क्या आपने कभी विचार किया है की इक्कसवीं सदी के दूसरी तीसरी दसक में जनसभाओं के भीड़ के पीछे का असल सच्चाई क्या है..? चूंकि इस समय का दौर डिजिटल क्रांति का हो गया था। बीसवीं सदी के अपेक्षा इक्कसवीं सदी में वैज्ञानिक खोज, आविष्कार, जीवनोपयोगी सामग्री, वस्तुओं, उपकरणों, संसाधनों का खोज बड़ी द्रुत गति से हुआ। डिजिटिलाइजेशन, 3G 5G मोबाइल, इंटरनेट, वीडियो कॉलिंग, वीडियो रिकॉर्डिंग, लाइव यूट्यूब, अन्य टेलीकास्ट, आदि अन्य सुख सुविधाओं ने तेजी से क्रांतिकारी परिवर्तन लाएं। वर्तमान समय में चुनावी जनसभाओं का प्रत्यक्ष लाइव प्रसारण, वीडियो रिकॉर्डिंग जैसे अत्याधुनिक सुविधाओं ने भौतिक कार्यक्रम स्थल पर जाने संबंधी रुचि जरूर कम किया है। दिन प्रतिदिन जनसंख्या और सड़कों पर वाहनों का अप्रत्याशित वृद्धि और भयंकर जाम की स्थिति के मध्यनजर गर्मी, ठंठ, बरसात तथा धूल, कीचड़ में चुनावी जनसभा के कार्यक्रम स्थल तक जाने से बेहतर बुद्धिजीवी, चतुर, होसियांर इच्छुक वर्ग इन चुनावी जनसभा को बड़े आराम से अपने घर के AC कूलर में बैठ कर लाइव देखने लगें जिससे उन कार्यक्रमों में अपेक्षाकृत भीड़ कम होने लगी। कहीं कहीं तो बड़े चर्चित नेता के जनसभाओं में कुर्सियां खाली रहने लगी जिसकी खबर मीडिया में आने से खुद को वे बेइज्जत समझने लगें। ये मामले सत्ता पक्ष के नेताओं के साथ ज्यादा होने लगें क्यों की बार बार इनके नाम पोस्टर समने आने से और अपेक्षाकृत उम्मीदों पर खरा न उतरने के कारण जनता स्वाभाविक ऊब जाती है। इस काल में यह देखा गया की सत्ता पक्ष अपनी नेताओं के जनसभाओं में भीड़ एकत्रित करने पर विशेष बल दे रही थी। शासन सत्ता के हनक से सरकारी मशीनरी, अधिकारियों, कर्मचारियों के लामबंदी, सहयोग से सरकारी योजनाओं के लाभार्थी, जनसमुदाय को उनके ग्राम से कार्यक्रम स्थल आने जाने का नि:शुल्क बस सुविधा, भोजन, नाश्ते इत्यादि की व्यवस्था का लालच देकर कार्यक्रम स्थल पर भीड़ एकत्रित की जाने लगी।
परंतु फिर भी इन कार्यक्रमों जनसभाओं में ले जाने हेतु पुरुष वर्ग की तत्परता कम दिखाई दी। कारण की अधिकांश पुरुष कुछ न कुछ जीविकोपार्जन संबंधी क्रियाकलापों में मशगूल रहते हैं। कोई अपनी दिहाड़ी मजदूरी, बिजनस, व्यापार या नौकरी छोड़ के नेताओं के कार्यक्रम स्थल जाना पसंद नहीं करते। यदि उनकी रुचि उन नेताओं में है तो वे उसी स्थान से आधुनिक तकनीक के जरिए टीवी, मोबाइल आदि में देख लेंगे। कुछ युवा शेष जो बचे वे फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि सोशल मीडिया के लिए रील बनाना या देखना तथा टिकटॉक लघु वीडियो देखने के आदि अन्य व्यसन, नशे में धुत हैं उन्हें कहा फिक्र है की देश की राजनैतिक हालत कैसे हैं और क्या प्रवर्तन होना चाहिए..! तथा राजनैतिक परिपेक्ष्य में अपनी भूमिका क्या हो सकती है..? अथवा देश के कर्णधार, राजनेता स्वयं भी हो सकते हैं..? उस स्तर के चिंतन का अभाव है।
ऐसे में खास कर सत्ताधारी पार्टियों ने अपनी अपनी जनसभाओं में भीड़ हेतु महिलाओं की उपस्थित पर विशेष प्रयास करने लगें। खास बात यह भी है की असंगठित महिलाएं तो कार्यक्रम स्थल पर प्रलोभन से भी प्रतिभाग नहीं करेगी..! क्योंकि उनके यहां पारिवारिक और सामाजिक बंधन होता है। वहीं एक विकल्प सामने आया की राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन जो पूरे देश अंतर्गत समस्त राज्यों में क्रियान्वयन होती है जहां 10 से 15 महिलाओं का एक स्वयं सहायता समूह बनाया जाता है और भारत के 28 राज्य, 8 केंद्र शासित प्रदेशों के 797 जिले के 7118 ब्लॉकों में अब तक कुल 90,76,174 स्वयं सहायता समूह बनाया जा चुका है जिसके अंतर्गत ग्राम्य परिवेश के 11 करोड़ से अधिक ग्रामीण महिलाओं का सीधा जुड़ाव है। ठीक इसी तर्ज पर शहरी ग्रामीण आजीविका मिशन भी चलता है जहां शहरी क्षेत्रों के लाखों करोड़ों महिलाओं का सीधा जुड़ाव है इन सरकारी संगठनों से। सरकार की महत्वपूर्ण और उम्दा पहल NRLM जहां समाज के मुख्य धारा से पिछड़े परिवारों को प्रक्रियाबद्ध तरीके से क्षमतावर्धन करते हुए उन्हें गरीबी निवारण हेतु आर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक दृष्टिकोण से प्रयास किए जाते हैं। महिला सशक्तिकरण हेतु दुनियां का सबसे बड़ा पहल और यह कार्यक्रम सफल होने के साथ साथ महिलाओं के समेकित विकास, उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। पिछले कई सरकारों ने इस योजना के संचालन में सकारात्मक पहल की तथा यह मिशन चहेता रहा है। इन समूहों के दीदियां तमाम प्रशिक्षणोंपरांत नियम से चलने वाली अनुशासित, मर्यादित हो जाती है।
खासकर केंद्र, राज्य में जो दल सतारूढ़ है अपनी जनसभाओं में इन्हें बुलाने से नहीं चूकते। प्राथमिक स्तर पर तो इन्हें कार्यक्रम स्थल तक ले जाने, वापस ले आने तक वाहन व्यस्था, नाश्ते पानी, भोजन आदि की व्यस्था ब्लॉक प्रबंधन इकाई के पास था तब तक सबकुछ ठीक संतुलित था। परंतु ऊपर स्तर के कुछ सक्षम लोगों के भारी संख्या में प्रतिभाग करने वाली इन महिलाओं के वाहन व्यवस्था और भोजन व्यस्था में अतिरिक्त मोटा कमाई के लोभ समा गए। फिर क्या था जिले स्तर से वाहन आयेगी, जिले स्तर पर ही दस बीस पचास हजार लाख आदमी का भोजन इक्कठा बनेगा और NRLM के ब्लॉक मिशन प्रबंधक केवल महिलों को उनके ग्राम से बस भर भर के भेजेंगे। बाकी उनका सारा व्यवस्था नाश्ते भोजन इत्यादि का केंद्रीकृत व्यस्था हम खुद करेंगें। इतना ही नहीं ऐसे चुनावी सभाओं के लिए कोई सरकारी निधि आवंटित नहीं होती है तो कोई बात नहीं आप सरकारी सेवक हैं तो अपने पास से चंदा दीजिए ताकि कार्यक्रम का सफल समापन हो सके।
जरा विचार कीजिए 05 से 50 हजार लोगो का एक साथ भोजन बनेगा तो बनाने से कार्यक्रम स्थल पर वितरण तक कितनी समस्या आयेगी हम सभी भली भांति समझ सकते हैं। तीन से चार घंटे पूर्व का बना हुआ भोजन वैसे भी रसहीन, स्वादहीन हो जाता है जबकि ऐसे भीड़ वाले स्थानों पर भारी संख्या में भोजन व्यस्था हेतु एक दो दिन पहले से ही हलवाइयों को लगना पड़ता होगा। सुखी पूड़ी और सब्जी से उन महिलाओं की पेट की क्षुधा शांत नहीं होती और वह भी किसी को मिलता किसी को नहीं मिलता। कुछ महिलाएं भूख से तड़प रही होती है अप्रत्याशित भीड़ में। ऐसी व्यस्था से भोजन का बंदरबांट और लूट पाट होता है, कोई दो चार पा लिया तो कोई एक भी नहीं। जिन्हें बनाने की जिम्मेदारी 10 हजार पैकेट की है वे चार पांच हजार ही बना कर वितरित किए तो कौन भीड़ में कौन उनका हिसाब ले रहा है..? एक मोटा रकम बच गया। नैतिकता, ईमानदारी कुछ गिने चुने लोगों में ही बची है इस कलिकल में।
जैसे जिले के प्रत्येक विकास खण्डों को बीस, तीस चालीस, पचास बसे दी जाती है समूह की महिलाओं को जनसभा में बुलाने को..! आखिर उसी के सापेक्ष विकास खण्ड/ब्लॉक स्तर पर कुल सम्मिलित होने वाले लोगो के सापेक्ष भोजन की व्यस्था क्यों नहीं दी जाती..? समुचित भोजन का प्रबंध यह छोटे स्तर पर उपयुक्त है की किसी बड़े स्तर पर..? क्या महिलाएं केवल कार्यक्रम के दौरान भीड़ की सोभा है..? उनके प्रति किसी की संवेदनाएं क्यों नहीं होती..? यह सवाल उत्तर की मांग जरूर करता है..!
बड़ी रैली/जनसभाओं में भोजन/नाश्ते इत्यादि का प्रबंध पूर्व की भांति ब्लॉक मिशन प्रबंधन इकाई के अधीन होनी चाहिए। जिले स्तर पर दूसरे लोग जो नाश्ता आदि का प्रबंध करते हैं उसमें एक तो गुणवता बहुत निम्न होती है दूसरी भोजन पर्याप्त मात्रा में नहीं होता। चार पूड़ी थोड़ी सब्जी और स्वादहीन छोटे लड्डू से सुबह सवेरे घर से निकली महिलाएं दिन भर टिक नहीं सकती। जो खाना कार्यक्रम स्थल पर प्राप्त होता है उसे भी पाने के लिए बड़ी जद्दोजहद/संघर्ष करना पड़ाता है अत्यधिक भीड़ के कारण..! आखिर समूह दीदियों के उनके इच्छा के विपरीत झुंड का प्रबंधन ब्लॉक मिशन प्रबंधक (BMM) करते हैं तो नाश्ते आदि का व्यस्था BMM करेंगें तो सब कुछ नियंत्रित रहेगा। नाश्ता आदि न मिलने से महिलाएं BMM को बुरा भला सुनाती है अगले किसी कार्यक्रम में जाने को तैयार नहीं होती। ऐसी सभाओं में जाने के लिए BMM किस प्रकार उन्हें खुशामत करता है यह वही जानता है। भूखे प्यासे महिलाएं जनसभा के वक्ताओं की तरफ पूर्ण ध्यान केंद्रित नहीं करती और कई बार तो ऐसा देखा गया की मुख्य वक्ता बोल रहा है या बोलना शुरू भी नहीं किया महिलाएं कार्यक्रम स्थल छोड़ के जाने लगी और कई कुर्सियां देखते ही देखते खाली हो गई। अर्थहीन, मूल्यहीन ऐसे दिखावे की भीड़ से वास्तव में कुछ नहीं होने वाला बल्कि एक झूठा हवा माहौल बन जाता है की फलाने नेता जी के सभा में अप्रत्याशित भीड़ उमड़ पड़ी उनके भाषण सुनने के लिए। यही हवा उनके पक्ष में वोट का माहौल जरूर बनाती है परंतु असल में सच्चाई तो कुछ और ही है... जहां जिले के विभिन्न ब्लॉकों में सुनियोजित तरीके से दस, बीस, पचास गाड़ी भेज कर भारी संख्या में एक हुजूम, भीड़ बुलाया गया हो उसे राजस, तामस देह से आसानी से समझना मुश्किल है। किसी भी नेता की जनसभा में भीड़ की वास्तविक क्षमता तब पता चलेगी जब उनके कार्यक्रमों में स्वाभाविक बिन बुलाए भीड़ उमड़े।
बार बार आयोजित होने वाले इन जनसभाओं में झूठी दिखावा के लिए ना जाने कितना मोटा रकम धन पानी की तरह बर्बाद होता होगा। इन रुपयों से यदि उसी जिले, ब्लॉकों में एक बड़े स्तर का उद्यम स्थापित कर दिया जाए तो सैंकड़ों हजारों लोगो को प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा जिससे देश वास्तव में आर्थिक सामाजिक दृष्टिकोण से मजबूत सशक्त होगा। ऐसी सभाओं में कुछ मिले न मिले मुफ्त की रेवड़ी बाटने की खूब आश्वासन मिलती है और जनसमुदाय यह सुन कर गद-गद त्वरित लाभ से फूले न समाते तथा इससे अचनाक चुनावी माहौल भी बदल जाता है और हारने वाली पार्टियां/जनप्रतिनिधि भी चुनाव जीत जाते है एवं जितने वाली पार्टियां चुनाव हार जाती है। वास्तव में राजकोष से नगद राशि का भुगतान और मुफ्त में राशन वितरण जैसी योजनाएं/ गतिविधियों से आगे चल कर कर्म चक्र ठहर जाएगा और दूरगामी परिणाम बहुत ही भयंकर होंगें। यदि मुफ्त बांटना ही है तो एक मापदंड पर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को पूर्णतः नि:शुल्क किया जाए। प्रत्येक ग्राम में वहां के उपयोग उत्पादन के अनुसार उद्योग धंधे स्थापित किया जाए और मुफ्त की रेवड़ी नहीं मेहनत, मजदूरी, रोजगार बाटा जाए। इससे वे राशन आदि जीवनोपयोगी तमाम वस्तुएं आसानी से खरीद सकते हैं। भारत के सड़को पर निश्चित अंतराल पर जो टोल टैक्स में मोटा रकम लिया जा रहा उसे मुक्त किया जाए जिससे लंबी दूरी निजी वाहन से तय करने वाले आम जन को लगने वाले अपने जेब से अत्यधिक धन और जाम से सहूलियत मिल सके। वास्तव में अपात्र को मुफ्त की सामग्री और नगद धन की प्राप्ति मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर और आलसी बनाता है। वास्तव में इस सृष्टि में ईश्वर ने प्रत्येक जीवों के लिए भोजन आदि की प्रबंध किया है परंतु खाद्य सामग्री किसी भी जीव को आसानी से प्राप्त नहीं होता। मनुष्यों के लिए नाना प्रकार के फल, फूल सब्जी और अनाज उत्पादन की प्रबंध ईश्वर ने किया है परंतु वह सहज उत्पादन नहीं होता किसानों की कड़ी मेहनत और कई दिनों की दिन रात की परिश्रम त्याग होता है तब जाकर खाद्य सामग्री की प्राप्ति होती है। वनों में जीव जंतुओं का भोजन श्रृंखला पर गौर किया जाए तो किसी को आसानी से नहीं मिल जाता सभी अपने अपने भोजन पानी के लिए संघर्ष करते हैं। इन्हीं संघर्षों में सृष्टि का सूक्ष्म संतुलन समाया हुआ है। सम्पूर्ण समुदाय के लिए मुफ्त की राशन पानी बिजली का रेवड़ी निश्चित ही प्राकृतिक सामाजिक संतुलन के नींव को हिला देगी। हां मुफ्त की राशन, बिजली, पानी उन असहायों की जरूरत है जो नि:शक्त, दिव्यांग, असहाय और वास्तव में लाचार है। यह प्रकृति विधान भी है। कर्म कर अर्जित करने वाले सक्षम को वोट के लिए मुफ्त की रेवड़ी बाटने की योजना का दूरगामी परिणाम भयंकर हो सकते हैं यह मेरा निजी विचार है।
ऐसे भी कुछ विपक्षी प्रमुख नेता हैं जो भले ही सरकार में कभी रह चुके हैं उनकी जनसभाओं में बिन बुलाए स्वाभाविक भीड़ उमड़ती देखा गया है। यह भीड़ भले ही सत्ताधारी दल के नेताओं के जनसभाओं के सापेक्ष थोड़ा कम रहता है परंतु ठोस और झूठी दिखावा, सुनियोजित भीड़ एकत्रीकरण से बेहतर होता है। इन सभाओं में सरकार के पैसे या सरकारी कर्मचारियों के चंदे के पैसे से बस भेज कर जबरदस्ती नहीं बुलाया जाता और न ही बड़े पैमाने पर भोजन की व्यवस्था की जाती है। इन सभाओं में आने वाले लोग अपने साधन से आते हैं और अपनी भोजन का व्यस्था खुद करते हैं। जिससे कार्यक्रम स्थल पर भोजन के लिए कोलाहल नहीं बना रहता। विश्व प्रख्यात देश के यशस्वी आदरणीय प्रधान मंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी जी ने रेडियो, टेलीविजन पर मन की बात करने का एपिसोड शुरुआत किया था जो बड़ा ही उम्दा, कारगर एवम फिजूल खर्चा रहित आसान सरल है सुनना, समझना। इस तरह के जनसंवाद मोबाइल इंटरनेट आदि तकनीक से समस्त पक्ष, प्रतिपक्ष के नेता करें तो मैं समझता हूं इससे भौतिक जनसभाओं में लगने वाले अत्यधिक श्रमबल और धन भी बचेगा वही दूसरी तरफ जनता को भी परेशानी नहीं होगी। इन भरी भरकम बड़े जन सभाओं, रैलियों, रोड शो जिस स्थान पर होती है वहां के कई सड़क रूट परिवर्तित कर दी जाती है। कई सड़को को बंद कर दिया जाता है। आस पास कई लगे सड़के भयंकर वाहन जाम का शिकार हो जाती है। यदि कोई आपातकालीन एंबुलेंस रोगी के लेके जा रहा हो तो अत्यधिक समय लगने के कारण वह रोगी दम भी तोड़ सकता है। अप्रत्याशित भीड़ में झूठी/सच्ची अफवाहों से भगदड़ होने की भी संभावना बनी रहती है जहां जान माल के भारी नुकसान हो सकते हैं।
वास्तव में जो प्रचार टीवी, रेडियो, अखबार, मोबाइल इंटरनेट सोशल मीडिया पर हो सकता है और जन समुदाय के मनोवृति में सीधा उतर सकता है वह मुझे नहीं लगता जनसभा, रोड शो में हो सकती है। जनसभा और रोड शो के भीड़ केवल झूठी दिखावे और शान के लिए हैं ऐसा मेरा मानना है। इन सभाओं में आधे जन तो केवल हेलीकॉप्टर देखने आते हैं और उसमें से तो कई जन अन्य विपक्षी पार्टियों के भी सदस्य, कार्यकर्ता होते हैं जो केवल कार्यक्रम का मजा लेने आते हैं।
आम तौर पर पक्ष, विपक्ष के नेता गण चुनाव के समय जनसभा रैलियां ज्यादा करते हैं, फिर चुनाव जीतने के पश्चात उन्हें जनसमुदाय की याद नही आती। ऐसे में स्थानीय जनसमुदायों को अपने नेता से शिकवा शिकायत नाराजगी भी होती है। पहले के जनसभाओं में कुछ लोग काली पट्टी बांध कर शांति पूर्ण अपनी नाराजगी को जताते थें। परंतु अब के जनसभाओं में इतना बैरियर, चेकिंग प्वाइंट होता है की काली पट्टी क्या काले वस्त्र, टोपी, शॉल मॉफलर, गमछा वाले व्यक्तियों को प्रवेश वर्जित कर देते हैं। परंतु काली आंख और काले बाल कैसे हटा सकते हैं..?
चुनाव जीतने के पश्चात नेता जी की भाव भंगिमा बढ़ जाती है और वे ऐश्वर्य को प्राप्त हो जाते हैं जिसके फलस्वरूप साधारण जन को उनसे भेंट मुलाकात होना ईश्वर दर्शन से कम दुर्लभ नहीं है। अधिकांश समय वे राजधानी में निवास करते हैं जो आम साधारण गरीब वंचितों के पहुंच से कोसो दूर होता है। कुछ ऐसे भी जमीनी नेता हैं जो जनता दरबार लगाकर अपनी क्षेत्र के जनसमस्याओं को सुनते हैं और मामले को निपटारा भी कराते हैं।

विकसित उद्यौगिक महानगरों/कस्बों में राजनैतिक पार्टियों के लिए चुनावी जनसभा, रैलियों में भीड़ इक्कठा करना सबसे बड़ा चुनौती ही नहीं कठिन कार्य होता है। कारण की यहां कोई बेरोजगार, खाली नहीं होते सभी अपने अपने रोजी रोटी के लिए कुछ न कुछ काम करते हैं, यहां सभी के पास समय का अभाव होता है, नौकरी धंधे से छुट्टी न मिलने के कारण लोग अपने नजदीकी नाते रिश्तेदारों को समय नहीं दे पाते..! ऐसी जगहों पर कई मामले प्रकाश में आएं की दिहाड़ी मजदूरों को उनके दैनिक मजदूरी के दुगना धनराशि देकर जनसभा, रैलियों में इकट्ठा किया गया हो..! यह कुछ मामले ग्रामीण इलाको में भी प्रकाश में आएं हैं की जनसभाओं, रैलियों में लोगो के भीड़ रुपया पैसा देकर इक्कठा किया गया है। यह आरोप वहां सम्मिलित होने वाले लोग ही लगाते हैं। चूंकि जनता भी नेताओं के झूठे वादे, फेंकू भाषण, जुमला पर जुमला सुन सुन कर थक, हार और परेशान हो गई है। प्रजातांत्रिक, लोकतांत्रिक व्यवस्था से उदास खिन्न और निष्क्रिय हो गई है तभी तो आजादी के 75 साल बीत जाने के पश्चात भी प्रत्येक चुनाव से पहले सरकार/सामाजिक संगठनों द्वारा मतदाता जागरूकता अभियान चलाया जाता है ताकि जनता अपने नेता, जनप्रतिनिधि को ईमानदारी और निष्पक्ष पूर्वक चुने। फिर भी कुल पड़ने वाले वोट का प्रतिशत 50 से 75 होता है। आखिर 25 से 50 प्रतिशत वोट न देने वाले मतदाता कौन है जो अपने मताधिकार का प्रयोग क्यों नहीं किए..? यदि वे अपने पैतृक घर से दूर भी हैं तो क्यों नहीं घर आ कर अपने मताधिकार का प्रयोग करते..? या वैसे बाहरी लोगो के मत जानने के लिए क्या कोई ठोस रणनीति बनाई गई..? आखिर नोटा दबाने के पीछे का मकसद क्या है..? यह सब महत्वपूर्ण सवालात हैं.. जो उत्तर की मांग करता है।
प्रायः यह देखा जाता है की कोई संत महात्माओं के भागवत कथा या राम कथा के पंडालों में बिन बुलाए भीड़ का हुजूम एकत्रित होती है और वह भीड़ अनुशासित और संयमित होती है। वहां एक लंगड़े चौकीदार की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। वहीं चुनावी जनसभाओं में आस पास के जिले से भी हजारों हजार अर्ध सैनिक बलों को सुरक्षा के लिए तैनात कर दिया जाता है वह भी घंटे दो घंटे के कार्यक्रम के लिए..! सतसंग के पंडालों में सात दिन, नौ दिन के कथाओं में इतनी मशक्कत और तैयारी नहीं करनी पड़ती जितना घंटे दो घंटे के लिए चुनावी जनसभाओं में तैयारी करनी पड़ती है। यदि चुनावी जन सभा सत्ताधारी पार्टी का है तो उस क्षेत्र के सरकारी विभागों के अधिकारी कर्मचारी हफ्ता दस दिन पहले से ही जनहित के सारे काम लंबित कर आवश्यक तैयारी में जुट जाते हैं। ताकि कार्यक्रम में कोई कमी और कोई भूल न हो, भीड़ एकत्रीकरण के लिए हर संभव प्रयास किया जाता है। वहीं साधु, संत, कथावाचकों के आध्यात्मिक कथा पंडालों में स्वाभाविक और ठोस भीड़ स्वत: अपने साधन से आती है अपने जीवन के दिशा और दशा बदलने। वास्तव में गरीबी, अमीरी और अगड़ेपन, पिछड़ेपन का मूल कारण व्यक्ति के स्वयं का सोच है।
कुल मिला के इक्कीसवीं सदी के दूसरे तीसरे दसक में यह देखा गया की खासकर सत्ताधारी पार्टियां अपनी जनसभाओं में स्वयं सहायता समूहों के महिलाओं की भीड़ के रूप में एक बहुत बड़ा जत्था बुलाने को आतुर रहती है। इसमें स्थानीय सरकारी अधिकारी, कर्मचारियों का सहयोग मिल जाता है। पर कोई पार्टियां इन स्वयं सहायता समूहों के दीदियों को संसद, विधायक के टिकट नहीं देता और ना ही ऊपरी सदन विधान परिषद या राज्य सभा में मनोनित करने के बारे में सोचता..! जबकि इन समूहों के कुछ दीदियां वास्तव में अदम्य साहस, उमंग, जुनून और लोक मंगल हित में कुछ कर गुजरने की क्षमता से परिपूर्ण होती है।
बाबा साहब अम्बेडकर ने संविधान के अनुसूची 80 में ऐसे 12 लोगों को राज्य सभा में मनोनित करने का विशेष शक्ति प्रदान किया था जो कला, साहित्य, विज्ञान, समाज सेवा आदि क्षेत्रों में असाधारण योगदान देश को दे रहें हो और चयन के उपरांत भविष्य में अपने विशिष्ट हुनर से देश को एक नई ऊंचाई पर ले जा सकते हो। यह जरूरी नहीं की वह किसी राजनैतिक पार्टी का सदस्य हों, उनके पास बहुत बड़ा जनाधार हो या आर्थिक दृष्टिकोण से बहुत मजबूत, संपन्न हों..!
सरकार को ऐसे ग्रामीण/शहरी इलाकों से भी असाधारण लोगो, स्वयं सहायता समूह की दीदियां को ढूंढे जो वास्तव में अपने मेहनत, लगन से देश के लिए निस्वार्थ सामाजिक, मानवीय सेवा प्रदान कर रहे हों और वे बहुत धनवान न हो, उनकी कोई राजनैतिक पकड़ मजबूत न हो तथा उनकी अर्थव्यवस्था साधारण हो और वे आमजन के बीच से हो तो असल में संविधान के अनुसूची 80 के बाबा साहब अम्बेडकर के परिकल्पना साकार होगा। जो व्यक्ति देश दुनियां के अमीरों की सूची में हों उन्हें राज्य सभा/विधान परिषद में भेजने से क्या फायदा उनके पास तो इतनी अकूत संपत्ति है की वे चाहे तो खुद के पैसे से जन कल्याणार्थ कार्य हेतु आगे आ सकते हैं।
अतः जनसभाओं में दिखावे और सुनियोजित भीड़ इक्कठा करने और व्यर्थ धन तथा श्रम शक्ति बर्बाद करने से बेहतर है की उन भारी भरकम रुपयों से यदि उसी क्षेत्र में कोई उद्योग धंधा स्थापित करा दिया जाए तो कुछ लोगो को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा अथवा सार्वजनिक विकास कार्यों में लगा दिया जाए तो निसंदेह जनसभाओं से अपेक्षित वोट के अपेक्षा कम से कम चार पांच गुणा वोट प्रतिशत स्वत: बढ़ जाएगा बिना कोई रैली, जनसभा, प्रचार किए। वैसे भी जनसमुदायों के लिए अपने क्षेत्र/देश के चहुमुखी ठोस टिकाऊ विकास से मतलब है न की जनसभाओं, रैलियों से..! ऐसे वास्तव में विकास पुरुष नेता, राजनैतिक पार्टी को बिना मांगे झोली भर-भर के इतना वोट मिलेगा की वे संभाल नहीं पाएंगें। ऐसे ठोस टिकाऊ और वास्तविक विकास करने वाले नेता पार्टी को जनता खुद ढूंढ लेगी किसी न किसी मध्यम से जैसे ईश्वर को लोग ढूंढते फिरते हैं मंदिर में, जंगलों पहाड़ों में... क्यों की उसने सभी को समान रूप से जीवनोपयोगी धरती पर टिके रहने का आधार, श्वास लेने की हवा, पीने के लिए पानी, भोजन पकाने के लिए अग्नि तथा छाया के लिए वृक्ष आदि अनेक संसाधनों को नि:शुल्क सहज मुहैया कराया है।
(आवश्यक नोट: हमारी सोच किसी व्यक्ति/पार्टी के नीचा दिखाना नहीं है, तथा ना ही किसी के निजिगत स्वैच्छिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना हमारा मकसद है, और ना ही हम किसी को निंदित कर रहे हैं। उपरोक्त तथ्य किसी जनप्रतिनिधि/पार्टी के साथ पूर्णतः सटीक बैठता हो तो यह मात्र एक संयोग होगा। यदि फिर भी किसी के निजिगत भावनाएं आहत होती है तो इसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं।
यह आलेख संविधान के अनुच्छेद 19(I)(A) में मिले स्वतंत्र अभिव्यक्ति के आजादी के तहत अपने निजीगत स्वच्छंद विचारों को मात्र विश्लेषण किया है। सभी लोग इससे सहमत हो यह जरूरी नहीं है।)
भारत साहित्य रत्न व राष्ट्र लेखक उपाधि से अलंकृत,
विश्व कीर्तिमान धारक
डॉ. अभिषेक कुमार
साहित्यकार, समुदाय सेवी, प्रकृति प्रेमी व विचारक
मुख्य प्रबंध निदेशक
दिव्य प्रेरक कहानियाँ मानवता अनुसंधान केंद्र
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डिप्रेशन में जा रहे हैं।
पांच क्लास में पढ़ते थे, उसी समय हम दिल दे चुके सनम का पोस्टर देखा, अजय देवगन हाथ में बंदूक लेके दांत चिहारले था, मुंह खूने खून था, हम समझे बड़ी मार धाड़ वाला सनिमा होगा। स्कूल से भाग कॉपी पैंट में लुका के तुरंत सिनेमा हॉल भागे।
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अक्सर गाँव में मैंने अपने बाल्य काल में देखा है अनुभव किया है वास्तविकता का अंवेषण किया है जिसके परिणाम मैंने पाया कि
ज़ब कोई जातक (बच्चा ) जन्म लेता है तो सबसे पहले माता को उसके स्वर सुनने कि जिज्ञासा होती है नवजात ज़ब रुदन करता है तो माँ के साथ परिजन..
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सनातन धर्म के मूल सिद्धांतो में धर्म क़ो जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण मानते हुए मान दंड एवं नियमों क़ो ख्याखित करते हुए स्पष्ट किया गया है जिसके अनुसार...
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हाय हाय बिजली।।
सर ई का है ? दिखाई नहीं दे रहा है, ई पसीना है, ई पसीना घबराहट में नहीं निकला है, न ही किसी के डर से निकला है, फौलाद वाला शरबत पीने से भी नहीं निकला है, ई निकला है गर्मी से, और अगर बिजली रहती तो ई देह में ही सुख जाता लेकिन पंद्रह से बीस
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युग मे समाज समय काल कि गति के अनुसार चलती रहती है पीछे मुड़ कर नहीं देखती है और नित्य निरंतर चलती जाती है साथ ही साथ अपने अतीत के प्रमाण प्रसंग परिणाम क़ो व्यख्या निष्कर्ष एवं प्रेरणा हेतु छोड़ती जाती...
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जैसे कि कृषि विकास दर में स्थिरता की खबरें आ रहीं हैं। यह चिन्ता का विषय है। तमाम आधुनिक तकनीक व उर्वरकों के प्रयोग के बावजूद यह स्थिरता विज्ञान जगत को नये सिरे से सोचने के लिए बाध्य कर रही है। अभी तक हमारी नीतियां तेज गति से बढ़ती जनसंख्या को भोजन देने..
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