ब्लॉग प्रेषक: | संतोष कुमार |
पद/पेशा: | ब्लॉक मिशन मैनजर |
प्रेषण दिनांक: | 08-05-2022 |
उम्र: | 35 |
पता: | K-273 swarn vihar kalyanpur lucknow |
मोबाइल नंबर: | 9919988236 |
मोह और माया
मोह और माया
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मोह-माया, बड़ा ही घनिष्ट संबंध है एक दूसरे से। अक्सर लोग बातों ही बातों में इसका जिक्र करते रहते हैं "यह तो मोह-माया है इसके पीछे नहीं जाना चाहिए" इत्यादि।
इसका क्या अर्थ निकलता है ?
क्या हम मोह-माया को बुरी चीज माँनें ?
नहीं! मोह-माया बुरी चीज नहीं है। सम्पूर्ण जीवन की धुरी इसी के तो इर्द-गिर्द घूमती है। आपसी सम्बन्ध, परिवेश, रिस्ते-नाते, हमारे कर्तव्य, संस्कार सभी तरह के
क्रियाकलापों का आधार तो यही मोह-माया ही है। तो फिर ऐसे में हम इसे बुरा क्यों मानें। जीवन में जितना मोंह का स्थान है उतना ही माया का भी है।
आखिर कैसे ?
यह ऐसे कि हम अपनीं संस्कृति, अपनी सभ्यता और अपनें सामाजिक जीवन से एक भावनात्मक बन्धन से जुड़े हुए हैं, जो मोह बिना सम्भव नही है।
यही मोंह हमे अपनें रिश्तों को निभाना सिखाते हैं, आपसी भाईचारे के महत्व को समझाते हैं और माता-पिता के प्रति आदर-सम्मान सिखाते हैं।
कल्पना कीजिए कि यदि- संस्कृति, सभ्यता, सामाजिक जीवन, भावनात्मक बन्धन, रिश्ते-नाते , भाईचारे, आदर-सम्मान आदि से अगर हम मोह को अलग कर दें तो,
इनसब का क्या अर्थ रह जाएगा। मात्र एक शब्द और सिर्फ शब्द बनकर रह जाएंगे। इनका कोई अर्थ नहीं होगा। मनुष्य एकदम व्यवहारिक हो जाएगा उसके
जीवन में इन सब शब्दों का कोई महत्व नहीं रह जाएगा सिर्फ माया के पीछे भागेगा जो उसे तात्कालिक सुख देते हैं दीर्घकालिक नहीं। अपनें रिश्ते-नाते
सभी को भूल जाएगा उनके प्रति उसका क्या कर्तव्य है उसे कुछ भी ज्ञात नहीं रहेगा, उसका सिर्फ एक ही लक्ष्य होगा, वह है तात्कालिक सुख की प्राप्ति।
क्या यह सही है ?
क्या उसके जीवन में ऐसा क्षण नही आएगा जब वह अपने आपको कोई कार्य करने मे असहाय समझे ? और उसे औरों की सहायता की जरूरत हो ? ऐसा क्षण हर मनुष्य के
जीवन में आता है, और वो क्षण है वृद्धावस्था का। वृद्धावस्था में जब आप अपने आपको एकदम असहाय महशूस करते हैं तब आपको अपनें पुत्र-पुत्रियों, सगे-सम्बन्धियों की याद आती है कि वो आपकी पीड़ा को दूर करें।
क्यों आपकी पीड़ा को दूर करे भाई ????
अगर आपके ही सोंच जैसे आपके बच्चे निकले तो !!!!!!!
मोह उनके अन्दर हो ही न!!!!
तब क्या होगा ?
क्या आप अपनी की गयी गलतियों के बारे में अपनें बच्चों को समझा सकेंगे और क्या आपके बच्चे आपकी बात को समझ सकेंगे ?
अवश्य समझ सकेंगे यदि आपके प्रति उनके अन्दर मोह उत्पन्न होता है तो !!!!!!
मोह के बिना खुद आप माया हैं। सिर्फ एक "पिता" शब्द इसके अलावा और कुछ नहीं। वहीं अगर पिता में भावनात्मक लगाव जुड़ जाए अर्थात् माया में मोह जुड़ जाए, तो
आप पूजनीय हैं।
"अर्थात माया का अस्तित्व है तो मोह का भी होना जरूरी है, मोह का अस्तित्व तभी है जब माया है।"
महत्व दोनों का जीवन में बराबर है, एक दूसरे के बिना जीवन की कल्पना बेकार है। अर्थहीन है।
"माया लक्ष्य को निर्धारित करती है और मोह उसे पानें की।"
परन्तु अगर दोनों मे से किसी एक का भी सन्तुलन बिगड़ता है तो आप गर्त में ही जाएंगे जहाँ अंधेरे के सिवाय आपको और कुछ नहीं मिलेगा। सिर्फ आप अपनें आपको ही
पाएंगे, कोई साथ नहीं होगा न ही सगे सम्बन्धी, न ही रिस्ते-नाते। इसलिए माया और मोह का सन्तुलन जरूरी है। अति (अधिकता) किसी भी चीज की अच्छी नही होती है।
अमृत भी विष हो जाता है। पुरानी कहावत है "ज्यादा मिठास में ही कीड़े पड़ते हैं। शतप्रतिशत सही है।
परन्तु सवाल यह उठता है कि लोग अक्सर यह कहावत क्यों दोहराते हैं कि "यह तो मोह माया है..........खासकर जब पैसे की बात आती है।
क्यो पैसे पर इतना जोर देकर कहा गया है ? क्यो एकदम से लोग उसे नकारनें पर तुले रहते हैं ? क्या पैसे का कोई महत्व नही है ?
पैसे का महत्व उनसे पूछिए जिनके पास पैसा नही है। इच्छाएं तो बहुत है किन्तु पूर्ति का कोई साधन नही है। यह सही है कि पैसे को मनुष्य ने बनाया है, अपनी सुलभता के लिए।
क्या पैसा कमाना कोई अपराध है ? नहीं अपराध नहीं है, अपराध तबतक नहीं है जबतक आप मोह और माया को सन्तुलन की अवस्था में रखे हैं।
खैर ! "यह तो मोह माया है"। इस वाक्य को लोग हमेशा दोहराते है और इस वाक्य को दोहरानें का एक कारण भी है। मोह और �माया उस काई लगे रास्ते के समान है जिसपर
फिसलन बहुत ज्यादा है, और इत्तिफाक भी देखिये लोग अक्सर फिसल ही जाते हैं। "जा रहे थे हरि भजन को ओटन लगे कपास", अर्थात् लक्ष्य तो कुछ और था लेकिन
कर कुछ और रहे है।
यदि किसी मनुष्य का पहला और अंतिम लक्ष्य निश्चित है और वो अपनें लक्ष्य की ओर अग्रसर है, परन्तु यह माया और मोह भरा काई रूपी रास्ता उसे एक बहुत बड़ी बाधा
के रूप में दिखाई देता है, किन्तु अगर हम इस बाधा को नाकारात्मक रूप में न लेकर सकारात्मक रूप में ले तो �यह हमारे लिए दुगुनी फलदायी साबित होगा। अर्थात
उस काई रूपी रास्ते पर सन्तुलन बनाकर। चूंकि लक्ष्य हमें सामने दिखना चाहिए तभी हम सन्तुलन बना सकते हैं एक इसका अच्छा उदाहरण है- जब एक तमाशा दिखानें वाला
व्यक्ति रस्सी पर चलता है तो आप देखेंगे कि उसकी निगाह सामनें रस्सी की आखिरी छोर पर रहती है, अर्थात लक्ष्य पर और वह सन्तुलन बनाकर चलता है। अगर कही उसकी
निगाह इधर-उधर जाती है तो उसका सन्तुलन बिगड़ जाएगा। तमाशा दिखानें वाला जब रस्सी पर चलता है तो वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता है तमाशा देखनें वाले शोर मचाते हैं और
ताली बजाते हैं। अगर तमाशा दिखानें वाला उस शोर और ताली पर ध्यान दे तो उसके साथ क्या होगा यह बतानें की जरूरत नहीं है। जब तमाशा दिखानें वाला अपनें लक्ष्य तक
पहुँच जाता है, तो जो लोग तमाशा देख रहे थे तमाशेवाले को कुछ न कुछ उपहार देते हैं जिससे तमाशेवाले का जीवन निर्वाह चलता है।
समझनें वाली बात यह है कि जो लोग तमाशा देखनें वाले थे वो तो तमाशा दिखानें वाले को एक तरह से विचलित करनें की कोशिश कर रहे थे, ताली बजाकर और शोर मचाकर।
किन्तु तमाशा दिखानें वाला विचलित नहीं हुआ और वह अपनें लक्ष्य तक पहुँचा जिसके परिणामस्वरूप उसे उपहार मिले। अगर वह विचलित होकर सन्तुलन खो देता तो क्या वह
अपनें लक्ष्य तक पहुँच पाता, अगर नहीं पहुँचता तो क्या लोग उसे उपहार देते ? नहीं। यही माया और मोह का काम होता है। विचलन तो बहुत ज्यादा है किन्तु अगर सन्तुलन
बनाकर उस मार्ग पर चलते हैं तो यही माया और मोह हमें उपहार देगी। लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है। हम फिसल ही जाते हैं, यह भी एक अनुभव होता है। जो लड़खड़ाते
हुए फिर अपनें लक्ष्य के रास्ते पर आ जाता है सफल हो जाता है और जो मोह और माया में से किसी एक की तरफ ज्यादा खिचता जाता है उसके सफल होनें की गुंजाइस बहुत
ही कम रहती है। वो ऐसे गर्त में जाता है जहाँ उसे सिर्फ या तो माया या फिर मोह ही दिखाई देते हैं, वह उसे और पानें की चाह में लगा रहता है। लालच बढ़ता ही जाता है यही
स्थिति पैसे के साथ होती है एक बार जो इसके चक्रव्यूह में फस गया निकलना मुस्किल हो जाता है। उसके मन में यही हरपल रहता है कि पै�सा ही सबकुछ है इसके अलावा सब बेकार
है। यह भी एक तरह का मोह है जो अक्सर पैसे के साथ हो जाता है। जीवन में पैसे का बहुत महत्व है लेकिन विचलन भी बहुत ज्यादा है। जो इस विचलन को समझ गया और
उस गर्त से बाहर आ गया और अपनें लक्ष्य को उसनें प्राप्त कर लिया तो यही जो विचलन करनें वाले तत्व हैं उसे उपहार (पैसा) के साथ-साथ मान-सम्मान, प्रतिष्ठा, नाम आदि देते हैं।
यही विचलन करनें वाले तत्व 'मोह और माया' हैं। जरूरत है सिर्फ सन्तुलन बनाकर चलनें की। किसी की भी अधिकता घातक हो सकती है, चाहे वह मोह के प्रति हो या
माया के प्रति।
तन, मन और धन ये तीन शब्द ऐसे हैं जो अक्सर लोग बोलते रहते है। क्या वे इसकी व्यापकता को समझते हैं ? ये तीनों शब्द अपनें आप में बहुत ही व्यापक हैं। इसे समझना
अति आवश्यक है। अगर हम इसे आध्यात्मिक शब्द मानें तो इसे हमें आध्यात्म की तरह सोचना पड़ेगा। इसी से सम्बन्धित एक घटना मेरे साथ घटी जिसके परिणामस्वरूप
इन तीनों शब्दों का अर्थ मुझे समझ में आया और वो घटना घटी दिवाली के दिन।
परिवार के सभी सदस्य उपस्थित थे। पूजा की तैयारी हो रही थी। मिट्टी के दिये रखे थे दो कतारों मे, प्रत्येक कतार मे 16-16 दिये। मैं भी जुट गया दिये की बाती बनानें और उसे
दिये में रखनें तथा उसमें तेल डालनें। पाँच दिये घी के थे, गंगा जल था, कमल का फूल था और भी सामाग्रिया थीं जो भगवान गणेश-लक्षमी के चारो तरफ रखी हुई थीं।
गौर करनें की बात है कि भगवान के सामनें वही सब चीजें रखी गई हैं जिनको उन्होंने खुद बनाया है। कल्पना कीजिए कि आपके सामनें वही चीजें पेश की जायें जिसका
आपनें खुद निर्माण किया हो तो क्या आपको वो खुशी मिलेगी जो एक नयी चीज और दूसरे से हटकर अदभुत् चीज देखनें से मिलती है। या इस तरह से भी कह सकते हैं कि
आप रोज दाल-चावल, रोटी-सब्जी खाते हैं और एक विशेष पर्व के दिन आपको कहीं से दावत का न्योता मिलता है तो आप यही सोचकर जाएंगे कि आज कुछ नया मिलेगा खानें को।
लेकिन क्या हुआ !!!!!!!!!
वहाँ पहुचकर वही सामनें दाल-चावल, रोटी-सब्जी !!!! जो हम रोज खाते हैं।
कैसा लगेगा आपको ?
आपको निराशा होगी उस दावत देनेंवाले के प्रति जिसके लिए आपनें आशा जगाई थी। क्या आप सच्चे मन से उसे शुभकामनाएं दे पाएंगे ?
एक बात बताना भूल गया गणेश-लक्षमी के पास चाँदी का सिक्का भी रखा था।
खैर !!!! पूजा शुरू हुई, आरती सभी ने गाया, शंख बजी, घंटियां बजी और तालियाँ भी बजी। पूजा खत्म हुई। दिये घर के चारो तरफ रखनें के लिए बच्चे ले जानें लगे।
कोई मेंज पर रख रहा है जहाँ वह पढ़ाई करता है, कोई किचन में रख रहा है, कोई दरवाजे के पास रख रहा है, गाड़ियों पर रख रहा है। अर्थात कुल बत्तीस दिये बत्तीस जगह।
कोई कोना छूटना न पाए...............
क्या निष्कर्ष निकलता है पूजा के स्थान पर रखी गई इन सभी सामाग्रियों का ? ऐसे ही इन सबका विधान नहीं किया गया होगा, इसका कोई महत्वपूर्ण कारण रहा होगा।
वैसे देखनें में तो ये सारी भौतिक चीजें हैं जिन्हे ईश्वर ने खुद बनाया है, अगर हम आध्यात्मिक दृष्टि से सोचतें हैं तो। फिर जिसे ईश्वर ने खुद बनाया है उसी ईश्वर के सामनें
वही सब सामाग्रियां, ये बात कुछ समझ में नहीं आ रही थी। मैं इसी गुत्थी को सुलझानें में लगा था कि तभी आध्यात्मिक बातों की चर्चा शुरू हो गई। मैने सोचा कि
आध्यात्म को आध्यात्म की तरह सोचा जाए भौतिक की तरह नहीं। फिर मैने उन रखी सामाग्रियों के गुणों के बारे में विचार किया। किस-किस सामग्री में कौन-कौन से
गुण हैं। तभी मन से एकाएक तीन ही शब्द निकले तन, मन और धन। केन्द्रित होना था मुझे धन पर। आखिर कौन से धन की कामना की है ईश्वर ने आपसे, वो धन
जिसे आपनें प्रतीक के रूप में चाँदी का सिक्का रखा है जिसके कड़ों को ईश्वर ने खुद बनाया है, या वो धन जिसे आपनें खुद अपनें अन्तर्मन से प्राप्त किया है।
मेरे ख्याल से इसी धन की अपेक्षा आपसे ईश्वर करते हैं और यह आत्मिक धन तभी प्राप्त होता है जब सामनें रखी प्रतीक के रूप में पूजन सामग्रियों के गुणों का
समावेश आपके मन में होता है। अर्थात तन और मन आपको तो ईश्वर ने दिया है, लेकिन धन ईश्वर ने आपको नहीं दिया। धन तो हमें कमाना है। घी जैसा शुद्ध, गंगा जल जैसा
पवित्र और कमल जैसा कोमल जिसका हृदय होगा उसके अन्दर ज्ञान रूपी दिया स्वयं प्रकाशमय हो जाएगा और उसका प्रकाश दिव्य होगा। इसी ज्ञान रूपी धन की
कामना आपसे ईश्वर चाहते हैं और यही सच्चा धन है, जिसे हर व्यक्ति की कामना होनी चाहिए।
चाँदी के सिक्के की तरफ संकेत करते हुए मैंने इसे माया कहा जो भौतिकता को प्रदर्शित करता है, जिसे मनुष्य ने उसे आकार दिया। उसे माया कहनें का मतलब यह नहीं है कि
मैंने उसके महत्व को नकारा है। मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि इसमें विचलन बहुत ज्यादा है। अगर जरा भी संतुलन बिगड़ा तो आपका हाल ठीक उसी वृद्ध पुरुष की तरह होगा।
असहाय और लाचार। इसी विचलन और फिसलन भरे रास्ते से हमें संतुलन बनाकर जीवन के मूल लक्ष्य तक पहुँचना है। लक्ष्य प्राप्ति के बाद वो भौतिक चीजें खुद-ब-खुद आपके
पास आएंगी, आपको ज्यादा कोशिश करनें की जरूरत नहीं पड़ेगी।
यही है मोह माया का चक्कर।"जो अधिक खाए वो पछताए जो बिलकुल न खाए वो और पछताए।"
संतुलन बहुत जरूरी है, अपनें लिए, परिवार के लिए और समाज के लिए भी। क्योकि जीवन का असली रहस्य इसी घेरे में छिपा है। इस चक्रव्यूह को समझना जरूरी है।
जो इस चक्रव्यूह को समझ गया वो भवसागर पार, और जो नहीं समझा-------उसी में डुबकी लगाते रहो भाई। जीवन बीत जाएगा डुबकी लगानें में हाथ कुछ नहीं आएगा।
क्योकि अंत समय में खाली हाथ ही जाना है।
जो भवसागर पार हो जाता है अर्थात् सच्चा ज्ञान प्राप्त कर अपनें जीवन में उसे ढालता है, उसके गुण चिरकाल तक समाज में बनें रहते हैं वो कभी नही मरता, मरता तो
उसका शरीर है, गुण कहाँ मरता है वह तो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता ही जाता है। अर्थात ज्ञान प्राप्त करने वाला कभी इस दुनियाँ से खाली हाथ नहीं जाता है उनके साथ उनका
यश होता है, जो लोगों को उसे स्मरण दिलानें के लिए प्रेरित करता है।
बड़ा ही अजीब है मोह-माया पर कोई लेख लिखना। लेखनी खत्म होनें का नाम ही नही ले रही है। समझ में नही आ रहा है कि इस लेखनी का विराम कहाँ पर करूँ।
जैसे-जैसे लेखनी में आगे बढ़ते जा रहें हैं वैसे-वैसे लिखनें की इच्छा और प्रबल होती जा रही है, जिसके कारण मेरे बाकी के सभी कार्य अंधूरे पड़े हैं। हार मानकर मैं इस
लेखनीं को यहीं विराम देता हूँ।
"ठीक यही असर होता है मोह और माया का।"
इसलिए मन को बाँधना तो पड़ेगा ही...... ताकि संतुलन बना रहे।
संतुलन! संतुलन! सिर्फ संतुलन।
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