पौराणिक सनातनी साहित्य में स्त्री-प्रताड़ना
पौराणिक सनातनी साहित्य में स्त्री-प्रताड़ना
अंगद किशोर
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"स्त्री की काम वासनाएं असीमित होती हैं। कोई भी मनुष्य एक कामुक स्त्री की काम वासनाओं की तृप्ति नहीं कर सकता,जबतक कि उसकी निरंतर देखभाल न रखी जाए।वह प्रत्येक नवागंतुक, यहां तक कि कुबड़े,बौने,पंगु को अपना साथी बना सकती है और अंततः वह स्त्रियों के साथ ही अस्वाभाविक अपराध की क्रियाओं का मार्ग खोज निकालती है। उसका छल उसकी भावनाओं की भांति सर्वप्रिय समझा जाता है। इसके अलावा स्त्रियां स्वभाव से कलहप्रिय और शीघ्र उत्तेजित होने वाली होती हैं।"
उक्त बातें प्रख्यात इतिहासकार ए. एल. बासम ने अपनी चर्चित पुस्तक *द वंडर,दैट वाज इण्डिया* में प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्यों एवं लोकोक्तियों के हवाले से लिखी है।यह कहने की जरूरत नहीं कि नारी के अतिशयोक्तिपूर्ण (कु) चित्रण वाले धार्मिक साहित्यों तथा लोकोक्तियों की रचना पुरुषों ने स्वार्थवश की है,जिससे पुरुष सदैव देवता तो स्त्री सदैव उसकी अनुगामिनी बनी रहे।
प्राचीन काल से ही भारतीय समाज पुरुष संचालित रहा है।समाज के केंद्र में फन काढ़े पुरुष फूंफकारता रहा और भयाक्रांत स्त्रियां परिधि पर कांपती रहीं। चूंकि धर्म का नियामक पुरुष था,इसलिए धर्म का स्वरूप पुरुषों के मनोनुकूल था। ईश्वर का लिंग भी पुरुष था, इसलिए पुरुष भी पूर्ण था। और स्त्रियां ? वह महज एक वस्तु थीं।लहू-मांस का जीवित पिंड थीं,जिससे पुरुष अपना शारीरिक और मानसिक तनाव दूर करता था।उसकी पूर्णता स्वयं में नहीं,पुरुष में सन्निहित थी।वह पारदर्शक कांच का ऐसा मनभावन खेल-खिलौना थी, जिसमें बारीक खोंट भी झलके तथा उसकी नजाकत की खूबसूरती इस बात में थी कि एक ही झटके में छिन्न-भिन्न हो जाए। पुरुषों के लिए जलविहार में नाव,तो बिस्तर पर किसलय कुसुमों की सुगंधित सेज़ थी।आदेश पालन में स्वचालित मशीन थी,तिसपर सुविधा यह कि जब जी चाहे उसे बदल दिया जाए।
प्रकृति ने अन्य प्राणियों की तरह ही मानव को दो जातियों में बांटा है- एक स्त्री और दूसरा पुरुष।सत्य यह है कि एक के बिना दूसरा अधूरा है। आनंद का सृजन करना हो या सृष्टि का, दोनों का संयोग अपरिहार्य है।अंग संरचना की दृष्टि से देखा जाए तो नारी पुरुष की तुलना में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। नारी के पास एक ऐसा अंग है, जो पुरुष के पास नहीं है।वह है गर्भाशय। वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में उसे लाख बनाना चाहा,मगर अबतक वे सफल नहीं हुए।तात्पर्य है कि सृष्टि की रचना में नारी पुरुष की अपेक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण है।तब सवाल उठता है कि पुरुष नारी से श्रेष्ठ कैसे हुआ? आखिर पुरुष का वर्चस्व क्यों,नारी का क्यों नहीं? प्राचीन काल से स्त्रियां ही बलात्कार की शिकार होती रही हैं, पुरुष क्यों नहीं?ये सारे अनुत्तरित प्रश्न भले ही आज के संदर्भ में शत प्रतिशत सत्य दिखते हुए नहीं प्रतीत होते,मगर आरोप निश्चित रूप से गंभीर हैं। एक न एक दिन स्त्रियां पुरुषों से अवश्य पूछेंगी कि युगों तक उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर क्यों रखा ? पूछेगी अहिल्या कि उसका अपराध क्या था? यही न कि वह सुंदर थी,नवयौवना थी और एक खूसट ऋषि की पत्नी थी।सुंदर या नवयौवना होना बुरी बात है,क्या? फिर एक अबला के साथ धोखे से बलात्कार करने का अधिकार किसने दिया इन्द्र को? वह तो राजा था देवताओं का, नियामक था- "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमंते तत्र देवता:"का।उसके यहां एक से एक सुंदर अप्सराएं (वेश्याएं) थीं। यौन-क्षुधा की पूर्ति अगर करनी थी,तो किसी को हमबिस्तर बना लेता। फिर एक पतिव्रता अबला,उसमें भी ऋषि-पत्नी के साथ यौन संपर्क बनाने का औचित्य क्या था?जिस देश का राजा बलात्कारी हो,उस देश की प्रजा कितनी सुखी होगी, कल्पना की जा सकती है। नैतिकता और संस्कार तो बहुत दूर की बात है।
हमारा प्राचीन धार्मिक साहित्य पुरुष वर्चस्व की कोख से जन्मी स्त्री-प्रताड़ना का विशद विवेचन से भरा पड़ा है। जहां स्त्री की सामाजिक स्थिति हीन तथा पुरुष की श्रेष्ठ प्रतिपादित की गई है। बावजूद इसके अफ़रा-तफ़री मची हुई है पुरुषों में,गोया प्रकृति ने स्त्री का सृजन कर कोई हिंस्र जीव का सृजन कर दिया हो।व्यग्र है पुरुष- कैसे स्त्री को नाधा जाए, उसके जिह्वा पर पहरा बिठाया जाए और उसके चंचल एवं फितुर दिमाग का रिमोट अपने कब्जे में रखा जाए?यह षड्यंत्र प्राचीन काल से अबतक बदस्तूर जारी है। फलस्वरूप नारी बेटी,बहन,पत्नी और मां बनी,मगर अबतक एक मानवी नहीं बनी।यह बात दीगर है कि मरने के बाद उसे देवी बना दी गई।
शिवपुराण में एक कथा है कि अपने पिता दक्ष के तिरस्कार से विचलित शिव की पत्नी सती ने धधकते हवनकुंड में कूदकर अपने प्राण दे दिये। उसके बाद सती के शव के साथ विष्णु ने जो वीभत्स खिलवाड़ किया,वह नारी देह के साथ एक भोंडा मज़ाक और अमानुषिक अत्याचार है।जब शिव अपनी पत्नी सती के शव को अपने कंधे पर लेकर राजा दक्ष की काली करतूतों को दुनिया के समक्ष दिखा रहे थे,तब विष्णु ने अपने वाणों से सती के शव को विदीर्ण कर अंग-अंग में टुकड़ा-टुकड़ा बांट दिये- कहीं योनि तो कहीं नितंब, कहीं जंघा तो कहीं स्तन आदि भारत के विभिन्न स्थलों पर गिरे।कहा जाता है कि देश भर में उन्हीं अंगों के गिरने से 51 शक्तिपीठ बने। स्त्री अंगों का ऐसा वीभत्स वस्तुकरण देखने को अन्यत्र कहां मिलेगा?
आर्य पुरुषों का नखरा बड़ा विचित्र है। जीवित सांप को देखकर अपने-अपने घरों से डंडा लेकर टूट पड़ते हैं और सांप की मूर्ति को दूध पिलाते हैं। यहां की नारी की स्थिति भी सांप की तरह है। आजीवन उपेक्षित, प्रताड़ित तथा यौन शोषित रहने वाली स्त्री मरने के बाद त्याग की प्रतिमूर्ति घोषित कर पत्थरों में जड़ दी जाती है।तब उसकी पूजा एक देवी के रूप में प्रारंभ हो जाती है। शिवभक्त जालंधर की पत्नी तुलसी के साथ विष्णु का अमानुषिक तथा अनैतिक बलात्कार आम स्त्री के दृष्टिकोण में भले ही अक्षम्य तथा भगवान की मर्यादा के प्रतिकूल हो, परंतु धर्म की भाषा में कहीं से न अनैतिक है और न धार्मिक मानदंडों से परे है।गजब तर्क भी गढ़ लिया गया- जीत के लिए युद्ध में सब जायज़ है।धन्य हो पुरुष! दुष्कर्म कर लुत्फ भी उठाया और अपने पक्ष में कथित पावन तर्क भी गढ़ लिया।चित भी तुम्हारी और पट भी। हाशिए पर पड़ी अपराध बोध से ग्रसित तथा सामाजिक उत्पीड़न से जूझती तुलसी जीवन भर मानवी नहीं बन पायी।आजीवन समाज में तिरस्कृत रही और मरने के बाद वह देवी घोषित कर दी गयी। विष्णु द्वारा किए गए पाप का अनोखा प्रायश्चित था।
महाभारत एवं श्रीमद्भागवत पुराण का चरित्र नायक तथा गोपियों के संग रास रचाने वाले रसराज कृष्ण ने विष्णु की तरह बलात्कार करने की गलती नहीं की,परंतु अपने क्रीड़ा-कौतुकों से स्त्रियों को खूब रिझाया और तड़पाया भी।जलविहार करतीं किशोरियों का वस्त्र चुराकर तथा वरुणदेव का भय दिखलाकर कृष्ण ने जिस नियोजित ढंग से निरावृत नारी देह दर्शन का चरम सुख उठाया,वह धार्मिक भयादोहन था। कृष्ण के विवश किये जाने पर गोप बालाएं जल से निकलकर तथा दोनों हथेलियों से मर्यादित अंगों को ढांपती हुई वस्त्र के लिए गयीं। बावजूद इसके, एक पुरुष नजरिया ने धर्म का डंडा घुमाया और मनोनुकूल आदेश जारी कर दिया कि दोनों हाथों को जोड़कर वरुणदेव से क्षमा मांगों,तब वस्त्र मिलेगा। नारी भयादोहन की यह घटना आज भी जारी है।राम रहीम, आशाराम,रामपाल आदि कथित भगवान उसी सभ्यता एवं संस्कृति के अर्वाचीन संस्करण हैं।
पुरुष का संसार विचित्र है।सती साध्वी को येन-केन-प्रकारेण प्रताड़ित करता है और मरने के बाद देवी बनाकर पूजता है। यही नहीं,जब नारी प्रणय निवेदन लेकर पुरुष के पास जाती है तो वह न केवल बेहूदा मज़ाक करता है,अपितु दुश्चचरित्र और वेश्या कहकर उसके नाक-कान काट लेता है।पुरुष-मानसिकता की शिकार सूर्पनखा की कहानी जगजाहिर है।एक नारी को राक्षस घोषित कर पुरुष स्वयं भगवान बन जाता है।मजा तब देखिए जब सूर्पनखा के अपमान का प्रतिरोध एक पुरुष(रावण) ने दूसरे पुरुष(राम) से न लेकर एक निर्दोष नारी(सीता) का अपहरण करके लेता है। गौरतलब बात यह है कि दो पुरुषों के झूठे शान में दोनों तरफ की नारियां अपमान,घुटन व संत्रास सहने के लिए अभिशप्त हैं। नारी,चाहे कन्या रही हो या बहन,पत्नी रही हो या मां, हर जगह हर क्षण उसी को टूटना-झुकना पड़ा है। बकौल मन्नू भंडारी, व्यक्ति जब टूटता है, तो निष्ठा तथा आस्था का उदय होता है। नारी का मांसल शरीर,अप्रतिम सौंदर्य, बुद्धि विकास तथा समर्पणशीलता के चमत्कार से विस्मित, सम्मोहित तथा आतंकित पुरुष को नारी से यही अपेक्षा भी थी। नारी के घुटन-संत्रास में ही पुरुष वर्चस्व का रहस्य निहित है,जिसे पुरुष हरगिज गंवाना नहीं चाहता।
निर्दोष सीता के घुटन-संत्रास, क्या कभी राम को माफ़ करेंगे? कदाचित नहीं।हर युग में जब लोग पूछेंगे कि सीता का दोष क्या था, निश्चित रूप से तब राम कठघरे में होंगे।भले ही लोग मर्यादा पुरुषोत्तम से नवाजे गए राम के अपराध पर पर्दा डालने की नीयत से सीता को जगत-जननी जैसे भारी-भरकम विशेषणों से सुशोभित-प्रतिष्ठित कर दें,मगर राम की छवि पर ये काले प्रश्नवाचक चिह्न लगे हुए रहेंगे। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि सीता को भी अपनी पवित्रता प्रमाणित करने के लिए देह-दहन के लिए विवश किया गया।हद तो तब हो गया,जब एक अदना सा पुरुष के बेहूदा व्यंग्य पर राम ने सीता को हिंस्त्र जीव-जंतुओं के बीच घने जंगल में छोड़वा दिया। और वह भी तब,जब उसके पांव भारी थे। आखिर राजा राम ने सजा देने के पूर्व यह क्यों नहीं सोचा कि गर्भवती सीता के निर्वासन का अत्यंत बुरा प्रभाव आम नारी पर पड़ेगा? नारी की स्थिति और बदतर हो जाएगी तथा पुरुष बात-बात पर राम की मिसाल देकर नारी को प्रताड़ित करेगा? यह क्यों नहीं सोचा कि सीता मां बनने वाली है और उसकी सजा के साथ-साथ एक भ्रूण की भी सजा होगी। न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे राम ने आरोपी को सफाई देने का एक अवसर भी नहीं दिया। रामराज्य का यह कैसा न्याय?वाह, एक ही अपराध की दो बार सजा----एक पुरुष की कुर्सी पर बैठकर (अग्नि परीक्षा) तथा दूसरी राजसिंहासन पर बैठकर।एक नारी पर इतनी अमानवीयता! वस्तुत: यह नैतिक स्खलन की पराकाष्ठा थी। "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी का नसीहत" कहां गया?
माना कि प्रजा में राजा तथा शासन के प्रति आदर तथा विश्वास बना रहे, इसलिए राम द्वारा सीता का परित्याग न्यायोचित था,परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राम इस देश के सिर्फ राजा ही नहीं,बल्कि सीता के पति भी थे। राजा ने अपने कर्तव्यों का पालन किया,अच्छी बात है, परंतु अपने पति धर्म का पालन क्यों नहीं किया?जब सीता पति के साथ यह कहकर'जिअ बिनु देह नदी बिनु बारी,तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी' वन जा सकती है,तो क्यों नहीं राम अपने अनुजों को गद्दी सौंपकर सीता के साथ जंगल में चले गये? राम ने वर्तमान को जिया,भविष्य को नहीं देखा। ऐसा हुआ होता तो राम आज संसार की नारियों के सर्वाधिक श्रद्धेय होते। परंतु आकाश को बांहों में समेटने तथा मुट्ठी में चांद-तारों को भरने की पुरुषीय महत्वाकांक्षा ने राम को नैतिक रूप से दरिद्र बना दिया था।
महाभारत में एक श्लोक है,जिसका अर्थ यह है कि महासागर के लिए नदियां कदापि बहुत नहीं होतीं,अग्नि के लिए लकड़ी के लट्ठे कदापि बहुत नहीं होते तथा सुंदर नेत्रवाली स्त्री के लिए मनुष्य कदापि बहुत नहीं होते। कुंती तथा द्रौपदी को लक्ष्यकर कही गयी ये बातें पुरुष की कुंठित तथा अपंग मानसिकता को उजागर करता है। सच्चाई यह है कि औरतों के लिए यह सबसे बड़ी गाली है।सती तो मरने के बाद बंटी थी, किंतु द्रौपदी जीते-जी बंट गयी थी दस बाहुपाशों में और वह भी एक नारी (कुंती) के कुंठाजनित भोंडा आदेश के कारण।नारी देह के साथ कैसा क्रूर मज़ाक था! जरा सोचिए,हर रात बलात्कार के दौर से गुजरती होगी द्रौपदी। एक नारी का आदेश त्रासदी का सबब बन चुका था।धर्म ने भी साथ दिया।चोट खायी नागिन की तरह अन्याय-पीड़ा को वह बर्दाश्त करती रही, लेकिन कबतक? आखिर उस समय उसकी सहनशीलता जवाब दे दी,जब पांडवों द्वारा जुए में हार जाने के कारण उसे भरी सभा में नंगा किया जा रहा था।वह बिफर उठी। शेरनी की तरह पुरुष वर्चस्व के खिलाफ वह गरजती रही और पांचों पति नपुंसक की तरह टुकुर-टुकुर ताकते रहे।धर्म के पाठ पढ़ाने वाले राज दरबारी सर नीचा कर एक अबला की इज्जत को तार-तार होते हुए देखते रहे। पहली बार किसी राजघराने की नारी ने पुरुष वर्चस्व को चुनौती दे डाली थी।मानवी बनने की जद्दोजहद में उसकी 'केश प्रतिज्ञा' ने महाभारत युद्ध को अवश्यंभावी बना दिया था।
प्राचीन काल के तमाम धार्मिक व गैरधार्मिक साहित्य तथा समाज में प्रचलित लोकोक्तियां इस बात का संस्कार डालती हैं कि स्त्रियां स्वयं में शून्य हैं।उनकी अपनी न कोई पहचान है और न सम्मान। पुरुषों के साथ एकाकार होना उनकी विवशता है।जब स्त्री कन्या होती है तो पिता या भाई के साथ, पत्नी होती है तो पति के साथ तथा मां होती है तो पुत्र के साथ एकाकार होती और सुरक्षित रहती है। जैसे परमाणु स्वतंत्र नहीं रह सकता, वैसे ही स्त्रियां स्वतंत्र नहीं रह सकतीं। उनके जिह्वा और दिमाग दिखावे के लिए हैं।वह तो पुरुषों के जिह्वा और दिमाग से संचालित होती हैं।इन साहित्यों में स्त्री की कोमल भावनाओं को कुंदकर पुरुष वर्चस्व का नंगा नाच कराया गया है।अतएव जरूरी ही नहीं,समय की मांग है कि स्त्री की दमित इच्छाओं को उभारा जाए, जिससे पुरुष वर्चस्व का मायाजाल तोड़ा जा सके। उर्वशी ने पुरुरवा से प्रेम विवाह इस शर्त पर किया था कि उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके साथ शयन नहीं करना होगा और जिसदिन यह शर्त टूटेगा, उसदिन उर्वशी पुरुरवा से संबंध तोड़ लेगा। निश्चय ही यह शर्त एक ओर पुरुष वर्चस्व को लगाम देती है तो दूसरी ओर नारी को मानवी बनने की पहलकदमी करती है। अनियंत्रित पुरुष कितना पतित और बेलगाम हो सकता है, इसके अनेक उदाहरण सनातनी साहित्यों में मिलते हैं। अपनी पुत्री के साथ समागम के लिए उद्धत ब्रह्मा तथा बहन के साथ मैथुन के लिए उद्धत यम पुरुष की पतित नैतिकता की पराकाष्ठा के उदाहरण हैं। ऋषि पराशर द्वारा सत्यवती के साथ बलात्कार की घटना को अंजाम दिया जाना हो अथवा संभोग करने से इंकार करने पर दीर्घात्मा द्वारा पत्नी को वेश्या बनने का शाप दिया जाना, स्त्री के वस्तुकरण के उदाहरण हैं।इस प्रकार के उदाहरण सनातनी साहित्यों में बहुतायत मिलते हैं।मेरा लक्ष्य किसी धर्म या संस्कृति की बुराई करना नहीं, बल्कि व्यवस्था में व्याप्त उन विकृतियों का समूल नाश करना है, ताकि समतामूलक समाज की रचना हो सके।
यह विचित्र, किंतु विचारणीय तथ्य है कि पुरुष वर्चस्व को स्वीकार करने वाली सीता के नाम पर लड़कियों के नाम रखने का आम चलन है,मगर पुरुष वर्चस्व को लगाम देने वाली द्रौपदी के नाम पर लड़कियों का नामकरण करना अशोभनीय और निंदनीय माना जाता है। नारी वस्तु बनी, मरने पर देवी भी बनी, परंतु विडंबना है कि मानवी तन पाकर भी वह मानवी नहीं बनी। जिस दिन नारी हर क्षेत्र में पुरुष वर्चस्व को चुनौती दे डालेगी, उस दिन वह मानवी बनेगी। और सच!उस दिन नारी मुक्ति का स्वर्णिम इतिहास रचा जाएगा।
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अंगद किशोर, इतिहासकार एवं अध्यक्ष सोन घाटी पुरातत्व परिषद, जपला,पलामू झारखंड
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