| ब्लॉग प्रेषक: | अभिषेक कुमार |
| पद/पेशा: | साहित्यकार, प्रकृति प्रेमी व विचारक |
| प्रेषण दिनांक: | 27-11-2022 |
| उम्र: | 33 |
| पता: | आजमगढ़, उत्तर प्रदेश |
| मोबाइल नंबर: | 9472351693 |
स्वदेशी मिठाई लकठो की भूली बिसरी यादें
स्वदेशी मिठाई लकठो की भूली बिसरी यादें
🖋️ ©भारत साहित्य रत्न अभिषेक कुमार
पिछले शताब्दी के वर्ष एवं 21 वीं सदी प्रारंभिक दशक तक स्वदेशी मिठाई लकठो की खूब धूम हुआ करता था। बाल मनुहार तथा बड़े, बुजुर्गों के चित्त को भी यह मिठाई खूब भाता था। लकठो मिठाई का केंद्र बिहार होने के साथ-साथ यह देश के कई प्रान्तों में बड़ी सहजता एवं सस्ते में पोषक तत्वों से भरपूर शुष्क अल्पाहार के रूप में मिल जाता है। लकठो बचपन का मेरा सबसे पसंदीदा मिठाई हुआ करता था, बाल्यकाल में जब मैं ननिहाल में रहा करता था तब मेरे नाना जी एवं मामा जी अक्सर ही बाजार से मेरे लिए स्पेशल लाया करते थें। आटे या बेसन से निर्मित, गुड़ की चासनी से लिपटा खस्ता और सोंधी महक वाली कागज के ठोंगा में लकठो मिठाई खाने का आनंद अनुभूति ही कुछ और होता था जिसकी जितनी प्रसंसा की जाए कम है, मैं बड़ी चाव से इसे खाया करता था और मुझे उस दौर में इसे खाने से क्षुदा की तृप्ति नहीं होती थी मन सदैव ललचते रहता था। जब नाना या मामा बाजार से आते थे तो सबसे पहले उनके जेब और झोले पर नजर जाती थी, पॉकेट फुला हुआ होता तो समझ जाता था आज लकठो मिठाई आया है, उनके पॉकेट पिचके होने पर झट से झोले को टटोलता था। स्मरण आता है 1990 के दशक में जब मैं नाना जी के साथ एक बार अम्बा बाजार गया था तो उन्होंने एक स्थान पर बैठा कर मुझे दो रुपये की लकठो खरीद कर दिया था खाने को और वे बाजार से सामान लेने चले गए, मैं उसे बड़े आनंद पूर्वक मस्ती के धुन में खा रहा था, खाते-खाते अंतिम कवर के टुकड़े हाथ से फिसल कर नीचे जमीन पर गिर गए और मैं उसे झट से उठा कर अपने मुंह में डाल लिया इतने में मेरे नाना जी आ गए और उन्होंने ऐसा करते मुझे देख लिया और वे समझ गए कि बच्चे को लकठो से अभी तृप्ति नहीं हुई है। वे और दो रुपये का लकठो खरीद कर मुझे खाने को दे दिए... उस दिन लकठो से मेरा मन और चित्त पहली बार तृप्त हुआ था। हमारे नाना जी अब इस दुनियाँ में नहीं रहे हाल ही में हमलोगों के छोड़ परलोक चले गए उनके उदारता, प्रेम, स्नेह के प्रति कृतिज्ञता एवं श्रधांजलि का भाव हृदय से प्रस्फुटित हो रहा है।👏🧎♂️
बहरहाल समय का निरंतर बहाव और पाश्चात्य सभ्यता का प्रचलन तेजी से भारतीय संस्कृति पर हावी होना तथा बिभिन्न प्रकार के पैकेट बंद स्नैक्स, कुरकुरे, चिप्स के गोरे चमक के आगे धूसर कत्थे रंग के लकठो की प्रासंगिकता मानो खत्म सी हो गई। एक जमाने में प्रत्येक बच्चों के लिए उनके अभिभावक माता-पिता बाजार से लकठो लाया करते थे और बच्चे बड़ी चाव से खाया करते थे। स्थानीय मेला में लकठो की विशेष पहचान हुआ करता था, मेला के वातावरण इसकी सोंधी महक से गुलजार हुआ करता था। समय के साथ आधुनिकता के दृष्टिगत मांग और महत्वता बहुत कम हो जाने के कारण इस मिठाई के निपुण कारीगरों में भी कमी आने लगी और बाजार से भी यह धीरे-धीरे विलुप्तप्राय होता चला जा रहा है। आज बाजारों में एक्का-दुक्का बचे इसके व्यवसायी कहीं कहीं जीर्ण-शीर्ण अवस्था में धूल फांकते ठेला पर बेचते नजर आते हैं। आधुनिक दूधिया रोशनी से चमचमाती स्टील धातु से बने मिठाई के खूबसूरत शोकेस में इसका स्थान नहीं मिला पाया जबकि स्वास्थ्य एवं पोषण के दृष्टिकोण से यह मिठाई की अनमोल अहमियत है। शुद्ध रूप से आटे या बेसन को गूथ कर घी या वनस्पति तेल में छान कर गुड़ के गरम सीरा बनाकर पागे हुए यह मिठाई का अद्भुत लाजबाब स्वाद है। दिन-भर के धूल-गर्दा भरे वातावरण में स्वसन तंत्र के नालियों में जमे कचरा को इसके खाने के बाद स्वतः सफाई हो जाती है, कफ विकारों को दुरुस्त करने के साथ-साथ गुड़ एनीमिया संबंधित समस्या को ठीक और पाचन तंत्र को मजबूत करता है। ये किडनी और पेट की तकलीफों को खत्म करने के लिए मददगार है। गुड़ में शुगर, विटामिन ए, विटामिन बी, सुक्रोज, ग्लूकोज, आयरन, कैल्शियम, फास्फोरस, पोटेशियम, जिंक और मैग्नीशियम आदि पोषक तत्व भरपूर मात्रा में होता है तथा शरीर के अत्यधिक बढ़ते भार को भी नियंत्रण में रखता है। वहीं आटे और बेसन में भी पोषक तत्व जैसे कि कैलोरी, वसा, सोडियम, पोटैशियम, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फोलिक एसिड, मैंगनीज, मैग्नीशियम, सेलेनियम, कैल्शियम, आयरन, विटामिन ई, कॉपर और जिंक आदि होते हैं जो शरीर को ऊर्जा तथा बिभिन्न अंग-प्रत्यंग-उपांगों को स्वस्थ्य मजबूत सुकोमल बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है।
लकठो के तुलना में बाजारू पैकेट बंद स्नैक्स चिप्स कुरकुरे और अन्य शुष्क अल्पाहार भले ही चटपटे, खट्टे, मीठे, नमकीन मनभावन हो सकते हैं पर इनमें से कुछ उत्पादों में मानकरहित कृत्रिम तौर-तरीके से निर्मित एवं लंबे समय तक खराब न हो उसके लिए रासायनिक पदार्थो का इस्तेमाल कहीं न कहीं स्वास्थ्य एवं पोषण के दृष्टिकोण से ठीक नहीं है। इसलिए भारतीय स्वदेशी मिठाइयों पर यदि गौर किया जाए और इनकी पारंपरिक निर्माण प्रणाली, उपयोगिता, खपत एवं महत्वत्ता पर विचार किया जाए तो एक तरफ इनके सेवन से तंदुरुस्ती भी आएगी और पारंपरिक या नए पेशेवरों की अवसर तथा रोजगार भी मिलेगा।
असल में स्वदेशी मिठाईयां जैसे कि लकठो, गटौरी, पियाव, बालूशाही, निमकी, जलेबी, पेठा, बुंदिया, घेवर, तिलकुट, गुलाबजामुन, इमरीति, मोतीचूर, सोनपापड़ी, लड्डू, मठरी, चकली, फाफड़ा, ढोकला, भाखरवाड़ी, सुगरपारा, दालमोट एवं गाय, भैंस के शुद्ध दूध से निर्मित बिभिन्न प्रकार के मिठाईयां कलाकंद, पेड़ा, रसगुल्ले आदि स्वास्थ्य एवं पोषण के दृष्टिकोण से उत्तम भी है और सस्ते सहज भी और इन मिठाइयों को निर्मित होने के बाद उपयोग के लिए अपना-अपना एक समयावधि निश्चित होता है अलग से कोई रासायनिक पदार्थो का इस्तेमाल भी नहीं होता उपयोग समयावधि बढ़ाने के लिए तथा ये उच्च गुणवत्ता के पोषणयुक्त होते हैं जिससे शरीर को आवश्यक पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति हो जाती है।
अतः हम सभी मिल कर लुप्त हो रहे स्वदेशी मिठाई लकठो की गरिमा को पुनः अहमियत दे..! खुद भी खाएं और अपने बच्चों को कम से कम सप्ताह में एक दो बार चिप्स, कुरकुरे आदि के स्थान पर लकठो जरूर खिलाएं। यह स्वास्थ्य वर्धक, उच्च पोषण युक्त है तथा इसके खरीद-बिक्री से निर्माताओं एवं दुकानदारों की रोजीरोटी में बरक्कत भी होगा एवं छोटे स्तर के इसके व्यवसायी आर्थिक दृष्टिकोण से मजबूत भी होंगे और समृद्ध भारत, मजबूत भारत में उनका भी योगदान सुनिश्चित हो पायेगा।
भारत साहित्य रत्न
अभिषेक कुमार
साहित्यकार, समुदायसेवी, प्रकृति प्रेमी व विचारक
ब्लॉक मिशन प्रबंधक
ठेकमा, आजमगढ़
ग्राम्य विकास विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार
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