ब्लॉग प्रेषक: | अभिषेक कुमार |
पद/पेशा: | साहित्यकार, प्रकृति प्रेमी व विचारक |
प्रेषण दिनांक: | 08-03-2023 |
उम्र: | 33 |
पता: | आजमगढ़, उत्तर प्रदेश |
मोबाइल नंबर: | +919472351693 |
होली पर्व का महात्म्य
होली पर्व का महात्म्य
©आलेख: डॉ. अभिषेक कुमार
हजार दो हजार साल से नहीं युगों से हम सभी सनातनी रंगोत्सव के पर्व होली मानते चले आ रहे हैं। होली की सुरुआत सतयुग में हुआ था। दैत्यराज हिरणकश्यपु के पुत्र प्रह्लाद जी सृष्टि के पालनहार भगवान श्री नारायण के अनन्य भक्त हुए। हर वक़्त उनके जिह्वा पर नारायण नारायण का रट लगा रहता था, प्रभु गुणगान से उनकी दिनचर्या की सुरुआत होती एवं प्रभु स्मरण, भक्ति, भजन में जीवन पालने बढ़ने लगा। प्रह्लाद जी का यह हरकत भीम-भयंजर दैत्यराज हिरणकश्यपु को गंवारा नहीं लग रहा था, उसने बार-बार प्रह्लाद जी को समझाया कि यह नारायण-नारायण रट क्यों लगाए रहते हो इससे क्या होने वाला यह मत बोलो मुझे नारायण-नारायण सुनना तनिक पसंद नहीं है और यह राक्षसकुल की मर्यादा नहीं रही है। चूंकि राक्षसकुल का सदियों पुराना इतिहास रहा है कि इनके आराध्य महाकाल भगवान शंकर जी या सृष्टि रचयिता ब्रह्मा जी हो सकते हैं परंतु अखिल ब्रह्मांड के ब्रह्मांडेश्वर श्री नारायण से बैर की भावना सदा से रहा है। इसी बैर की भावना से इन राक्षसों को भी मोक्ष प्राप्ति होता रहा यह एक अलग विषय है। बहरहाल हिरणकश्यपु के अनुसार प्रह्लाद जी को देखते ही देखते नारायण भक्ति का भयंकर रोग लग गया जो बातों से या प्रेम से समझाने से ठीक नहीं हो रहा इस क्रम में उसने दैत्य कुल गुरु संडाव्रत ऋषि के आश्रम भेजा फिर भी सुधार नहीं हुआ। उसे लगा कि अब दण्ड देकर प्रह्लाद को ठीक करना होगा। हिरणकश्यपु प्रह्लाद जी को शारीरिक यातनाएं/कष्ट देने लगा ताकि प्रह्लाद जी नारायण भक्ति छोड़ दें। तमाम कष्ट प्रलोभनों के बावजूद भी प्रह्लाद जी के मन से नारायण भक्ति का सुरूर उतार नहीं सका और थक हार के प्रह्लाद जी के जीवन नैया पलटने पर विचार करने लगा। इस क्रम में भोजन में विषपान कराया, पहाड़ के ऊँची शिखर से गिराया, पानी में डुबाया, परंतु फिर भी प्रह्लाद जी के जान बच गए। प्रह्लाद जी को मारने के सारे प्रयत्न कर के थक-हार के हिरणकश्यपु उदास खिन्न हो गया तभी उसकी बहन होलिका ने कहा कि मुझे ब्रह्मा जी का वरदान है मुझे अग्नि नहीं जला सकती मैं प्रह्लाद जी को अग्नि में लेकर बैठ जाऊंगी जिससे निसंदेह प्रह्लाद जी का प्राणान्त हो जाएगा। योजना अनुरूप फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष पूर्णिमा के दिन प्रह्लाद जी के फुआ होलिका बहला-फुसला कर अपनी गोद में प्रह्लाद जी को लेकर ज्वलनशील पदार्थ पर बैठ गई और नीचे से आग लगा दिया गया। भगवान नारायण के मुख जन्म लेने वाले अग्नि देव नारायण भक्त प्रहलाद को भला कैसे जला सकते हैं..? उनके लिए तो वह शीतल हो गए और दुनियाँ की कोई भी शक्ति वरदान अधर्म अन्याय को अंतिम विजय नहीं दिला सकती इस लिए अग्नि में न जलने का वरदान पायी होलिका जल कर भष्म हो गई तथा प्रह्लाद जी का जान बच गया। हिरणकश्यपु के राज्य में यह बात आग की तरह फैल गई और प्रह्लाद जी के समर्थक अबीर-गुलाल, बिभिन्न प्रकार के रंग एक दूसरे को लगा कर उत्सव आनंद मनाने लगे की प्रह्लाद जी का जान बच गया, और यहीं से प्रति वर्ष इस तिथि को रंगोत्सव का पर्व होली मनाने का सुप्रथा प्रारम्भ हुआ। जो हिरणकश्यपु के समर्थक थें वे खिन्नता में एक दूसरे को कपड़े फाड़ने लगें और नाली में एक-दूसरे को पटकने लगें।
त्रेतायुग में भी धूम-धाम से होली की परंपरा उस समय-काल के लोग मानते रहें। इस युग में भगवान नारायण अपने रामावतार में अवध की होली की विशिष्टता फ़ाग में रंगों के पर्व होली में रंगोत्सव की महिमा एवं अधर्म असत्य पर धर्म सत्य की विजय को परचम नए अंदाज में लहराया।
द्वापर युग में भगवान नारायण अपने कृष्णावतार में होली की प्रासंगिकता, हर्षोल्लास को और चरम पर पहुंचा दिया। एक विशेष प्रकार के ब्रज की होली का उत्सव इस युग से प्रारम्भ हुआ जो आज तक मथुरा, वृंदावन, ब्रज क्षेत्र में दृष्टिगोचर है। कौन नहीं चाहेगा यहां के रंगों में सराबोर होने का तथा एक अलग ही एहसास अनुभूति पाने का। ऐसा माना जाता है कि आज भी भगवान कृष्ण अपने ग्वाल-बाल, सखाओं, राधा रानी के साथ होली खेलने आते हैं।
फाल्गुन मास के पूर्णिमा के दिन मनाएं जाने वाला होलिका दहन एवं चैत्र मास के प्रथम प्रतिपदा को मनाए जाने वाला रंगोत्सव का पर्व अपने-आप में दिव्य अलौकिक अनुभूति प्रदान करता है। इस समय ऋतुराज बसंत की अंगड़ाईयाँ में धरती हरियाली की चादर ओढ़े सुंदर और जवां होकर खिल उठती है। धरती की माथे पर चना, खेसारी, मसूरी, सरसो के लाल, नीले और पीले फूलों की बिंदी की सोभा देखते ही बनती है। भंवरो का गुंजन, कोयल की कूक, पक्षियों का कलरव, और आम के मंजरों से भीनी-भीनी मनमोहक सुगंध तन-बदन-मन को बेसुध कर देती है। इस लिए होली को बसंतोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। इसी दिन सनातनी नव वर्ष विक्रम संवत की सुरुआत होता है।
सतयुग में इसी दिन देवाधिदेव महादेव शंकर ने कुपित होकर कामदेव को भष्म करने के पश्चात रति के अनुनय-विनय स्वीकार करते हुए कामदेव को द्वापरयुग में श्रीकृष्ण के पुत्र बनकर जन्म लेने का वरदान दिया था।
वर्तमान युग कलिकाल में होली की महत्वता, प्रासंगिकता तो कम नहीं हुई परंतु तौर तरीके जरूर बदल गए। सतयुग, त्रेता, द्वापरयुग में होली के दिन सबके घरों में मनभावन बिभिन्न प्रकार के खट्टे-मीठे, नमकीन पकवान बनाएं जाने के रिवाज था और लोग राग-रंगों, अबीर-गुलाल एक दूसरे के माथे एवं चरण पर लगा कर खुशियों का इजहार करते थें और दोस्त-दुश्मन सभी से गले मिल कर ईर्ष्या,द्वेष, वैमनस्यता खत्म करते थें और प्रेम भाईचारे का आगाज करते थें।
पौराणिक विभिन्न प्रकार के पकवान फीके पड़ गए इनकी जगह तेजी से मांस और मदिरा ले लिया। इस दिन भारत के नगर हो या ग्राम के युवाओं, वरिष्ठजनों का बहुत बड़ा वर्ग मांस सेवन और मदिरापान कर मस्त हुए झूमते नजर आते हैं इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इस तिथि को मदिरालय में देशी-विदेशी मदिरा के बिक्री अत्यधिक बढ़ जाती है। इस कड़वे, बेस्वाद मदिरापान से शरीर में क्या रजोगुण की प्रधानता नहीं होगी..? क्या मन बुद्धि, तन-बदन पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा..? यह खुद से चिंतन करने वाला विषय है।
हर गली, चौक, चैराहे तथा मांस बिक्री की दुकानों पर बकरा-मुर्गा भारी संख्या में काटे जाते हैं। इन बेजुबान जानवरों के जीभ से निकली चीख-पुकार, तड़पन, नकारात्मक ऊर्जा इंसानों को लंबे समय तक खुशहाल नहीं रहने देगा। इन चीख-पुकार, तड़पन, नकारात्मक उर्जायें एकत्रित होकर प्रकृति आपदाएं लाती है और मानव सभ्यताओं को विनास करती है।
गौर करें तो किसी मरे जानवर के मांस कुत्ता खाकर उसके स्वभाव में कितना परिवर्तन हो जाता है वह अपने मालिक के भी काट खाने को दौड़ता है अर्थात पगला जाता है तथा गैर आपेक्षित हरकत करने लगता है। यदि इंसानी पेट सैंकड़ो-हजारो बकरा,मुर्गा के मांस का कब्रगाह बनेगा तो क्या उसके मन-बुद्धि प्रभावित नहीं होगा..? क्या उसके अंदर तमोगुण की बढ़ोतरी नहीं होगी..? यह चिंतनीय विषय है।
वर्तमान समय में होलिका दहन के दिन बम-पटाखे भी भारी मात्रा में छोड़े जाते हैं। इनकी तेज ध्वनियों से ध्वनिप्रदूषण एवं विषैले धुंआ वातावरण को प्रदूषित करता है। वायु प्रदूषण बिभिन्न प्रकार के रोगों का दावत देता है। सायंकाल, रात्रि पहर में इन बम-पटाखा के आवाज से पक्षियों के जीवन शैली पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। निर्दोष बेचारे पक्षियां बम-पटाखे के ध्वनियों से डरकर, घबराकर अपने निवास स्थान को छोड़कर अंधकार में उड़ने लगते हैं। घात लगाकर बैठे रात्रि में शिकार करने वाले अन्य पक्षियां अकाल मृत्य के शिकार बना लेते हैं। प्रकृति संतुलन का अपना निजी सिद्धान्त है, इंसानी हस्तक्षेप से प्रकृति असंतुलित के साथ-साथ इंसानों के अमर्यादित हरकत से खिन्न हुई है।
होली के रंग, अबीर, गुलाल पहले प्राकृत स्रोतों जैसे कि मेहदी से हरा रंग, पलास के फूलों से पिला रंग, बीट से लाल रंग आदि, अरारोट पाउडर में बिभिन्न प्राकृतिक पदार्थो को मिला कर विभिन्न रंगों के गुलाल तैयार किये जाते थें। परंतु अब शॉर्टकट तरीका रासायनिक प्रक्रियाओं से कृत्रिम रंग, अबीर, गुलाल होली में देखने को मिलते हैं और बहुत सारे लोग इसी रंगों से होली खेलते हैं जिससे त्वचा रोग, चमड़ी रोग, नेत्र विकार आगे चलकर होने की संभावना बनी रहती है। होली में रासायनिक कृत्रिम रंगों से बचना चाहिए।
होली के दिन डीजे बाजा पर मानक से अत्यधिक आवाज में अश्लील गाने पर झूमने-नाचने का प्रचलन भी पिछले कुछ सालों से देखा जा रहा है जो सभ्य, आदर्श समाज के लिए कहीं से भी जायज प्रतीत नहीं होता। आखिर सार्वजनिक स्थानों पर डीजे में अश्लील गाना किसको सुना रहे हैं क्या अपनी माँ-बहन के कानों तक वह आवाज नहीं जाएगा..? अश्लील गाने का भावार्थ मन पर बड़ा ही बुरा प्रभाव डालता है और मन इंद्रियों के वशीभूत होकर अनैतिक मनमानी आचरण करने पर मजबूर कर देता है जिसे हर व्यक्ति को रोकने से नहीं रुकेगा। होली के दिन गाने सुनाना कोई बुराई नहीं है पर वैसे अश्लिलमुक्त मनोरंजक, उपदेशक, भक्ति रस के गाने सुने जाए जिससे मन में एक अच्छे विचार का उत्पन्न हो।
अतः आइये हम सब मिलकर होली का त्योहार मांस-मदिरा को त्याग कर पारंपरिक सात्विक पकवानों के संग प्रकृति रंगों से खेलें और खुद के अंदर सत्वगुण का विकास करें। आपसी एकता, अखंडता, सद्भवना, प्रेम, भाईचारा, बन्धुत्व राष्ट्रीय संप्रभुता के साथ मनाएं तथा बड़े-बुजुर्गों श्रेष्ठजनों से इस दिन आशीर्वाद लेना कतई न भूलें।
होली की अनंत बधाई व शुभकामनाओं के साथ धन्यवाद
राष्ट्र लेखक व भारत साहित्य रत्न उपाधि से अलंकृत
डॉ. अभिषेक कुमार
साहित्यकार, समुदायसेवी, प्रकृति प्रेमी व विचारक
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