अंधविश्वास या परम्परा

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ब्लॉग प्रेषक: Divyanjli verma
पद/पेशा: लेखिका
प्रेषण दिनांक: 03-06-2023
उम्र: 27
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अंधविश्वास या परम्परा

एक पीढ़ी के द्वारा अपनाया गया अंधविश्वास आने वालीं पीढ़ीयो के लिए परंपरा बन जाता है।

    और इसे परंपरा बनाने मे सबसे बड़ा हाथ होता है उन लोगों को जो अशिक्षित है , अज्ञान है, और रूढ़ीवादी है। वो घर के किसी सदस्य के ना चाहते हुए भी उसे अंधविश्वास भरी परंपरा को मानने के लिए मजबूर करते है। और विरोध करने पर उसकी निंदा और आलोचना करते है। 

एक सबसे बड़ी परंपरा है - बड़ो को इज़्ज़त देने के लिए उनके सामने सर पर आंचल रखने की। मुझे तो ये परंपरा कहीं से भी सार्थक नहीं लगती।क्योंकि ये परंपरा सिर्फ बहुओं के लिए है। मतलब अगर बहू सर पर आँचल ना रखे तो वो किसी की इज़्ज़त नहीं करती, किसी का सम्मान नहीं करती।  फिर एसे में तो घर की बेटी भी किसी की इज़्ज़त नहीं करती ,सम्मान नहीं करती। यही होना चाहिए। लेकिन लोग एसा मानते नहीं। 


    दूसरी परंपरा है- गुरुवार को साबुन इस्तेमाल ना करने की 🤔। वर्ना गुरु खराब हो जाएगा। अब ये गुरु क्या है ? ये किसी को नहीं पता । बस इतना पता है कि कुंडली मे गुरु खराब हो जाएगा तो फिर बुरा होने लगेगा। कोई logic नहीं है इस बात मे। क्योंकि सच मे गुरु जैसी कोई चीज़ ही नहीं है। सनातन धर्म मे सिर्फ शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष है। जो 15 - 15 दिन का होता है। और सोमवार, मंगलवार नहीं बल्कि प्रथम, द्वितीय और तृतीय होता है। इसलिए हमारे त्योहार भी शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के दिनों के अनुसार मनाए जाते है।

      तो फिर ये गुरुवार और गुरु कहा से आ गया? अब लोग पढ़ने लिखने लगे है । सच को जानने की कोशिश करने लगे है। तो उन्हें धीरे धीरे पता चल रहा कि जिसे अब तक परंपरा समझ के follow कर रहे थे ।असल में वो बेवक़ूफी भरा काम था।

     एक और परंपरा है पशु बलि या नर बलि द्वारा देवी माँ को खुश करना। ये हिन्दू धर्म में तो कहीं नहीं लिखा कि देवी माँ बलि से खुश होती है। फिर भी लोग इसे follow करते है। सोचने वालीं बात तो ये है कि जीवन देने वालीं माँ भला क्यों किसी के मरने पर खुश होगी। फिर भी लोग मांगते है माँ ये इच्छा पूरी कर दीजिए तो बलि चढ़ायेगे। देवी माँ भी भोली है शायद वो सोचती होगी कि इसकी इच्छा पूरी कर देती हू जिससे ये बलि ना चढ़ाये। और इंसान इसका उल्टा समझ के सोच लेता है कि माँ बलि चढ़ाने की बात से खुश होके इच्छा पूरी की है।

      अगर किसी देवी को बलि से ही खुशी मिलती तो फिर क्यों वो काली, चंडी या दुर्गा बनके उन राक्षसो को मारने आती जो निर्दोष इंसानो को और जानवरो को मार के खा जाते थे।ये सब अंधविश्वास है। जो परम्परायें बन चुकी है । और बड़े बुजुर्गों की अज्ञानता और रूढ़ीवादिता के कारण कोई इस पर सवाल ज़वाब भी नहीं करता और कुछ गलत होने के डर से सच भी नहीं जानना चाहता।

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