प्राचीन इतिहास में सशक्त एवं ज्ञानी नारी-नेतृत्व।

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ब्लॉग प्रेषक: अंगद किशोर
पद/पेशा: इतिहासकार
प्रेषण दिनांक: 08-03-2024
उम्र: 57
पता: जपला, झारखण्ड
मोबाइल नंबर: +91 85409 75076

प्राचीन इतिहास में सशक्त एवं ज्ञानी नारी-नेतृत्व।

महिला दिवस के अवसर पर

            अंगद किशोर

      प्राचीन भारत के विभिन्न ऐतिहासिक एवं धार्मिक साहित्यों में सशक्त एवं ज्ञानी नारी-नेतृत्व के दर्शन भले चौंकाने वाले हों, किंतु उनकी सत्यता से इंकार नहीं जा सकता है।ऋग्वैदिक काल में नारियों की स्थति अन्य कालों की तुलना में बेहतर थी।उस समय नारी जितना स्वतंत्र और बंधनमुक्त थी, उतना बाद के किसी काल में नहीं रही।हर दृष्टि से नारी पुरुषों के समकक्ष थी।वह सामाजिक तथा धार्मिक उत्सवों में बिना किसी भेदभाव के हिस्सा लेती थी।नारी का पुरुषों के साथ यज्ञ,सभा, समिति अथवा गोष्ठी में शामिल होना,आम बात थी। नारी शिक्षा की दृष्टि से यह काल उन्नत था।कुलीन स्त्रियों को पुरुषों की तरह शिक्षा प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार था। ऋग्वेद के बहुत से सूक्त एवं मंत्र महिला ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं। महिला ऋषि को ऋषिका अथवा ब्रह्मवादिनी कहा गया है। ऋग्वेद की ऋचाओं में 414 मंत्रद्रष्टाओं के नाम मिलते हैं, जिसमें 30 नाम ऋषिकाओं के हैं।

ऋग्वैदिक मंत्रदृष्टा ऋषिकाएं

         वैदिक ऋषिकाओं की फेहरिस्त में प्राचीन नाम देवी सूक्त के रचयिता वाक का नाम मिलता है।अभृण ऋषि की कन्या वाक ने अन्न पर अनुसंधान किया था। उसने ऋग्वेद के दसवें मंडल के 125 वें सूक्त की रचना की। आशारानी व्होरा ने वाक को शाक्त दर्शन की अधिष्ठात्री कवयित्री माना है।काक्षीवान की पुत्री घोषा कोढ़ रोग से ग्रसित थी। अपने रोग के निदान के लिए गहन अनुसंधान किया। अश्विनीकुमारों ने उसकी चिकित्सा की

अध्यात्म और दर्शन की पंडिता घोषा ने ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 39 वें सूक्त की रचना कर अश्विनीकुमारों को समर्पित किया। ऋषिका लोपामुद्रा अगस्त की पत्नी होने के साथ-साथ उस युग की महान मनीषी थी। उसने ऋग्वेद के पहले मंडल के 119 वें सूक्त की रचना की। उक्त सूक्त में ऋषि दंपति के मध्य संवाद का वर्णन है, जिसमें सुसंतति उत्पन्न करने की आवश्यकता और मर्यादाओं की चर्चा है। महर्षि अत्रि के कुल में उत्पन्न विदुषी विश्ववारा ने ऋग्वेद के 5 वें मंडल के 28 वें सूक्त की रचना की,जो अग्नि को समर्पित है।

       ऋग्वैदिक ऋचाओं के रचनाकारों में शची पौलोमी तथा इन्द्राणी का नाम अलग-अलग आया है।एक में पिता का नाम है तो दूसरे में पति का। राजा पौलोमी की पुत्री शची ने ऋग्वेद के दसवें मंडल के 159 वें सूक्त तथा इन्द्राणी ने इसी मंडल के 85 वें सूक्त की रचना की है।शची ने एक पुत्री के रूप में, तो दूसरे पत्नी के रूप में मंत्र-छंदों की रचना कर अपनी विद्वत्ता का परिचय दिया है। इन्द्र के दरबार में उपस्थित सात महिला मंत्रदृष्टाओं में से शची एक थी, जो इतनी प्रभावशाली थी कि इन्द्र को शची-पति कहकर संबोधित किया गया है।यह महिला सम्मान और सामर्थ्य की पराकाष्ठा थी, जबकि ऋग्वेद में इन्द्र का नाम सर्वाधिक सामर्थ्यवान, लोकप्रिय और प्रभावशाली पात्र के रूप में अंकित है। ऋषिका अपाला का नाम ऋग्वेद में कुशाग्रबुद्धि वाली स्त्री के रूप में आया है। उसने आठवें मंडल के 91 वें सूक्त की एक से सात तक की ऋचाओं की रचना की है। मंत्र-छंदों के रचने के पूर्व घोषा की तरह वह भी कुष्ठ रोग से पीड़ित थी, जिसके कारण पति ने घर से निकाल दिया था।तब वह पिता के घर रहकर आयुर्वेद पर अनुसंधान किया।अपाला ने ही सोमरस की खोज की थी।

       वृहस्पति की कन्या तथा भावभव्य की धर्मपत्नी रोमशा ने ऋग्वेद के पहले मंडल के 126 वें सूक्त के छठे तथा सातवें मंत्रों की और ऋषिका सूर्या सावित्री ने दसवें मंडल के 85 वें सूक्त के 47वें मंत्र की रचना की।सूर्या का यह सूक्त विवाह से संबंधित है, जो आज भी वैवाहिक संस्कार के समय गाया जाता है। इसी प्रकार अंगिरा ऋषि की कन्या तथा राजा असंग की पत्नी शाश्वती ने आठवें मंडल के प्रथम सूक्त की 34 वीं ऋचा , अदिति ने चौथे मंडल के 18 वें सूक्त के सातवें मंत्र, अत्यंत शुद्ध चरित्र वाली ऋषिका जुहू ने दसवें मंडल के 109वें सूक्त,सर्पराज्ञी ने दसवें मंडल के 189 वें सूक्त तथा यमी ने दसवें मंडल के दसवें सूक्त की रचना की है। उर्वशी और पुरूरवा के बीच संवाद से संबंधित दसवें मंडल के 95 वां सूक्त की रचना स्वयं उर्वसी ने की है। उक्त ऋषिकाओं के अलावा ऋग्वैदिक महिला मंत्रदृष्टाओं में सिकता-निवावरी,उशिज, ममता,देवजामय तथा प्रजापत्या का नाम उल्लेखनीय है।

उपनिषदकालीन सशक्त महिलाएं

        ऋग्वैदिक मंत्रदृष्टाओं के अलावा  वेदांत की रचना में भी गार्गी तथा मैत्रयी जैसी विदुषियों के योगदान श्लाघनीय और अतुलनीय हैं।गर्ग गोत्र में उत्पन्न वचक्नु की महान पुत्री गार्गी ने विदेह की सभा में याज्ञवल्क्य से ऐसे-ऐसे गूढ़ दार्शनिक प्रश्न किये , जिसमें याज्ञवल्क्य जैसे महर्षि को गार्गी की विद्वता का कायल होना पड़ा।इन्ही गूढ़ प्रश्नोत्तरों के कारण वृहदारण्यक उपनिषद की रचना हुई।इसी उपनिषद में याज्ञवल्क्य की दूसरी विदुषी पत्नी मैत्रेयी का भी अपने पति के साथ बड़े रोचक संवाद की चर्चा है। वेदों की प्रकांड विदुषी संध्या ने महर्षि मेधातिथि को शास्त्रार्थ में पानी पिला दिया।इसी संध्या के नाम पर दिन और रात के मध्य समय का नाम संध्या पड़ा। संध्या यज्ञ को संपन्न करने वाली पहली महिला पुरोहित थी। विद्वान महाराज जनक के राज्य में सुलभा नाम की एक महिला परम विदुषी थी। उसने शास्त्रार्थ में राजा जनक को पराजित कर सिद्ध किया कि महिला पुरूषों से ज्ञान के मामले में कमजोर नहीं है। उसने स्त्री शिक्षा के लिए शिक्षणालय की स्थापना की थी। आदित्य की पुत्री और सावित्री की छोटी बहन तापती  का विवाह अयोध्या के राजा संवरण से हुआ था। तापती ने अपने पुत्र कुरू को किसी ऋषि के हवाले न करके वेदों की शिक्षा स्वयं दी थी।  इसी कुरू के नाम पर कुरुकुल प्रतिष्ठित हुआ। महर्षि वशिष्ठ की धर्मपत्नी अरुंधती वेदों की प्रकांड पंडिता थी। अपने ज्ञान के बल पर ही सप्तर्षिमंडल में उन्हें ऋषिपत्नी के रूप में गौरवशाली स्थान प्राप्त है। महाराज अश्वपति की पत्नी शाकल्य देवी स्त्री शिक्षा के प्रति इतनी समर्पित थी कि देवकन्याओं के लिए राजमहल से दूर जाकर जंगल में शिक्षणालय की स्थापना की। इसप्रकार हम पाते हैं कि वैदिक काल में नारी शिक्षा के प्रति  जागरूकता और प्रतिबद्धता दोनों थी।

भिक्षुणी के रूप में सशक्त मनीषी महिलाएं

      वैदिकोत्तर काल में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में गिरावट प्रारंभ हो चुकी थी।समाज में हिंसा और पाखंड का रूप विकराल होता जा रहा था। इसी विकृत ब्राह्मणी व्यवस्था के खिलाफ छठी शताब्दी ईसा पूर्व में धार्मिक क्रांति और सुधारवादी संप्रदायों का जन्म हुआ, जिसमें मुख्य रूप से जैन और बौद्ध धर्म का नाम उल्लेखनीय है।समाज के हाशिए के लोगों की भागीदारी ने दोनों धर्मों के उन्नयन का मार्ग प्रशस्त किया।जैन एवं बौद्ध धर्मों में महिलाओं की पर्याप्त संख्या में प्रवेश ने नारी की स्वतंत्र-चेता तथा अस्मिता को न केवल झकझोरा,प्रत्युत नयी उड़ान भी दी। भिक्षुणी संघ में शामिल महिलाओं को पहली बार अधिकारबोध हुआ। उन्हें लगा कि वे सिर्फ परिवार के लिए नहीं, अपितु समाज और धर्म के लिए भी कुछ कर सकती हैं। बौद्ध धर्म का ध्येय वाक्य-"अप्प दीपो भव " ने उनके अंदर ओज और पहचान का दीप जला दिया। फलस्वरूप उन्हें प्रतिभा-विकास का अवसर और माहौल मिला।

       जैन ग्रंथों में अनेक विदुषी एवं सशक्त नारी-नेतृत्व की चर्चा है। ग्रंथों के अनुसार,जैन धर्म में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की भागीदारी अधिक थी। भगवान महावीर महिलाओं की स्वतंत्रता और समान अधिकारों के बड़े समर्थक थे। जैन भिक्षुणी संघ की सर्वोच्च धर्माध्यक्षा चंपा नरेश दधिवाहन की पुत्री राजकुमारी चंदना थी, जिसने महावीर स्वामी से सर्वप्रथम दीक्षा ली थी।  मगध साम्राट बिंबिसार की दूसरी पत्नी चेल्लना जैन धर्म के श्राविका संघ की नेतृ थी। कौशांबी के राजा सहस्रानिका की बहन जयंती, जो खुद एक विदुषी थी,ने जैन धर्म में दीक्षित होने के पूर्व धार्मिक एवं आध्यात्मिक विद्या से संबंधित सवालों को लेकर भगवान महावीर के साथ वाद-विवाद भी किया।चंदना से प्रभावित होकर बाद में मृगावती ने भी जैन धर्म की दीक्षा ली। जैन भिक्षुणी पुष्पचूला एक मनीषी, लोकप्रिय एवं नेतृत्व-कुशल महिला थी, जो बाद में अपनी प्रतिभा की बदौलत जैन भिक्षुणी संघ की अध्यक्षा बनी।जैन साहित्य में प्रियदर्शना नाम की एक विदुषी की चर्चा है। सुधा गोस्वामी कृत "भारत वर्ष की चर्चित महिलाएं" के अनुसार,ऋषभदेव की दो पुत्रियां थीं-ब्राह्मी और सुंदरी। दोनों विदुषी थीं। ऋषभदेव ने दोनों पुत्रियों को अक्षर एवं अंक के ज्ञान दिये थे। जैन ग्रंथों के अनुसार,ब्राह्मी को भारत में ब्राह्मी लिपि का प्रवर्तक माना जाता है। इसके अलावा मथुरा से जैन धर्म के प्राप्त अभिलेखों में कतिपय जैन विदुषियों की चर्चा है, जिसमें श्रमिका,श्रद्धाचारी,शिश्नी, पीना, वसुला और बलहस्तिनी का उल्लेख है।

      जिसप्रकार ऋग्वैदिक काल में मंत्र-छंदों की रचयिता ब्रह्मवादिनियां खुलकर शिक्षा के क्षेत्रों में आगे आईं, उसी प्रकार बौद्ध धर्म में अनेक सुशिक्षित और अधिकार के प्रति जागरूक महिलाओं ने आध्यात्मिक उत्थान एवं मानव कल्याण के निमित्त घर-परिवार का परित्याग कर बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु बौद्ध भिक्षुणी संघ को अपने जीवन समर्पित कर दिए। बौद्ध धर्म के प्रारंभिक काल में नारी का प्रवेश निषेध था। इसके लिए भगवान बुद्ध की विमाता महाप्रजापति गौतमी ने बुद्ध के साथ  वाद-विवाद भी किया, मगर जब बुद्ध की आज्ञा नहीं मिली तो बुद्ध की पत्नी यशोधरा के साथ लंबा संघर्ष भी करने से वह नहीं चुकी। वस्तुत: बौद्ध धर्म में महिलाओं के प्रवेश दिलाने, भिक्षुणी संघ की स्थापना करने, नारी को सशक्त बनाने तथा बौद्ध धर्म का नारियों के बीच प्रचार-प्रसार करने में महाप्रजापति गौतमी का अतुलनीय योगदान रहा है। यदि गौतमी नहीं होती, तो कदाचित नारियों का प्रवेश बौद्ध धर्म में संभव नहीं होता। प्राचीन बौद्ध साहित्यों में वर्णित गौतमी को मठवासी जीवन की पहली महिला होने का गौरव प्राप्त है।प्रो  भागवत के अनुसार, गौतम बुद्ध की पिछली वय में ज्ञान , लालसा,दया,उत्साह,बुद्धि की तीव्रता ,उद्योग,विषद् दृष्टि,कार्यक्षमता, नेता बनने की कुशलता आदि जो गुण प्रकट हुए थे,उनका अधिकांश श्रेय गौतमी को ही है।

       बौद्ध साहित्यों के अनुसार, सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा बौद्ध भिक्षुणी के रूप में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने 252 ईसा पूर्व अपने बड़े भाई महेंद्र के साथ सिंहल द्वीप ( श्री लंका) गई थी। दोनों भाई-बहन के बौद्धिक ज्ञान से प्रभावित होकर वहां का राजा तिष्य ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। बौद्ध भिक्षुणी के रूप में संघमित्रा का प्रवेश ने अनेक महिलाओं को बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के लिए प्रेरित किया। थेरीगाथा में बहुत-सी बौद्ध भिक्षुणी थेरियों का उल्लेख है, जो कवयित्रियां थीं।थेरियों में 32 महिलाएं ऐसी थीं, जो आजीवन ब्रह्मचारिणी थीं तथा 18 ने वैवाहिक जीवन के पश्चात भिक्षुव्रत धारण किया। राजगृह के राजा बिंबिसार की एक पत्नी खेमा बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर बौद्ध भिक्षुणी बन गई, जबकि उसकी सौतन चेल्लना जैन धर्म की भिक्षुणी बनी। भिक्षुणी बनने के बाद खेमा शास्त्र-शिक्षा में पारंगत हुई। तत्पश्चात भगवान बुद्ध ने उसे शिक्षित और कवयित्री थेरियों के बीच उच्च स्थान प्रदान किया। संयुक्त निकाय में सुक्का नामक एक बौद्ध भिक्षुणी का उल्लेख है, जो वाक्-कला में अत्यंत प्रवीण थी।उस काल में सुक्का वक्तृत्व-कला में अद्वितीय थी। बुद्ध की विशिष्टतम शिष्या में एक नाम धम्मदिंता का आता है, जो धम्म-ज्ञान प्राप्त कर सारा जीवन धम्म के अनुशीलन में लगाई। जैन धर्म की अनुयायी भद्राकुंडल केशा एक अत्यंत उच्च कोटि की विदुषी थी। उसने जैन धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म का भी गहन अनुशीलन किया था।बाद में जैन धर्म का परित्याग कर उसने बौद्ध अर्हत सारिपुत्र के संपर्क में आकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली।पट्टाचारा नाम की बौद्ध भिक्षुणी की चर्चा बौद्ध साहित्य में है, जिसने विनय पिटक का अनुशीलन किया था। 

         डॉ भरत सिंह उपाध्याय कृत बुद्ध -कालीन भारतीय भूगोल(पृष्ठ संख्या 61-62) के अनुसार, बुद्धकालीन नगर कजंगल की पहचान कनिंघम और राहुल सांकृत्यायन ने झारखंड के राजमहल से 18 मील दक्षिण में स्थित वर्तमान कंकजोल से की है।कजंगला बौद्ध भिक्षुणी यहीं की थी, जो बौद्ध धर्म की विदुषी थी। एक दिन चारिका करते हुए यहां भगवान बुद्ध आए। उनकी उपस्थिति में स्थानीय उपासकों ने कुछ गूढ़ प्रश्न पूछे,जिनका सटीक उत्तर विदुषी कजंगला ने दिया, जिससे प्रश्नकर्ता  संतुष्ट हो गये। कजंगला के उत्तर से बुद्ध अत्यंत प्रसन्न हुए। अंगुत्तर निकाय के कजंगला सुत्त में बुद्ध ने स्वयं अपने मुख से कजंगला की प्रशंसा की है। बौद्ध साहित्यों में नज़र डालने पर हम पाते हैं कि सामान्य महिलाएं भी बौद्ध भिक्षुणी के रूप में अपनी प्रतिभा को निखारने में काफी सफल रहीं थीं। बुद्ध काल में कौशांबी की दासी पुत्री खुज्जुतरा धम्म अनुशीलन की बदौलत अग्र उपासिका की दर्जा प्राप्त की थी। इसी प्रकार कौशांबी नरेश उदयन की रानी सामावती की प्रिय सखी सामा का नाम बौद्ध भिक्षुणी के रूप में आदर के साथ लिया जाता है।भद्दियनगर की श्रेष्ठिपुत्री विशाखा बौद्ध धर्म की महोपासिका थी। वैशाली की नगर वधू आम्रपाली वैशाली गणराज्य की श्रेष्ठ और प्रभावशाली गणिका थी, जो बाद में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर भिक्षुणी बन गई थी। इसके अलावा नंदूतारा, अंजली,उतरा,काली,सुपता,धन्ना,उपाली और रेवती जैसी अनेक भिक्षुणियों के संबंध में बौद्ध ग्रंथों में यह बात उल्लिखित है कि वे विनय पिटक में पारंगत थीं।

       प्राचीन भारत में दो महिला शासकों का नाम आता है, जिसमें पहला-वाकाटक राजवंश की प्रभावती गुप्ता तथा दूसरा नाम सातवाहन राजवंश की नगनिका का। अपने पति की मृत्यु के उपरांत अपने अल्पव्यस्क पुत्रों की संरक्षिका बनकर दोनों ने भिन्न-भिन्न समय में और अलग-अलग राज्यों में कुशलतापूर्वक शासन किया।सातकर्णि की धर्मपत्नी नगनिका विश्व की पहली महिला शासक थी।

          बहरहाल प्राचीनकालीन इतिहास के आइने में ज्ञानी, सशक्त तथा अपने अधिकार और दायित्व के प्रति सजग महिलाओं की चमक प्रतिबिंबित होती है, जो मध्यकाल में शायद ही देखने को मिली। वेद की ऋचाओं की कवयित्रियां भले उच्च अथवा ऋषिकुल की थीं, किंतु जैन और बौद्ध धर्म से जुड़ी भिक्षुणियां अमूमन मध्यमवर्गीय परिवार से थीं। बौद्धिक और धार्मिक क्रांति को आगे बढ़ाने में संलिप्त भिक्षुणियों ने अल्पसंख्यक होने के बावजूद नारी सम्मान और पहचान का जो अलख जगाया था,उसकी गूंज हजारों वर्षों के बाद आज भी अमिट और प्रेरक है। भले मध्य काल में उनकी आवाज़ पर ताला जड़ दिया गया, मगर उसकी चिनगारी बुझी नहीं है।आज नारी विमर्श के बहाने इतिहास के उन स्वर्णिम पन्नों को खंगालने तथा सच्चाइयों से रूबरू कराने की जरूरत है, ताकि नारी के सम्मान, सामर्थ्य और स्वाभिमान का पुनर्जागरण हो सके।


          (लेखक: अंगद किशोर (सोनघाटी पुरातत्व परिषद, जपला के अध्यक्ष और इतिहासकार हैं।)

 संपर्क सूत्र : 8540975076

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