गुणवत्ता और महत्ता एक दूसरे के पूरक...

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ब्लॉग प्रेषक: डॉ. अभिषेक कुमार
पद/पेशा: साहित्यकार, प्रकृति प्रेमी व विचारक
प्रेषण दिनांक: 03-08-2024
उम्र: 34
पता: आजमगढ़, उत्तर प्रदेश
मोबाइल नंबर: 9472351693

गुणवत्ता और महत्ता एक दूसरे के पूरक...

गुणवत्ता और महत्ता एक दूसरे के पूरक...
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©आलेख: डॉ. अभिषेक कुमार
         मानव जीवन के विविध विषयों पर ध्यान केंद्रित करें तो कहां नहीं गुणवत्ता और महत्ता विद्धमान है। मेरे समझ से जो वस्तु हम दैनिक जीवन में नित्य दिन इस्तेमाल करते हैं उन सभी में गुणवत्ता और महत्ता होती है। बिना गुणवत्ता और महत्ता के सृष्टि में कुछ भी नहीं है। धरती, आकाश, पाताल चांद, सूरज, ग्रह, नक्षत्र, ऋतुएं, नदी, झरना, वृक्ष, इस खूबसूरत वसुंधरा के गर्भ में छुपे नाना प्रकार के खनिज तत्व, इसके ऊपरी सतह पर विभिन्न प्रकार के उत्पादित होने वाले फल, फूल सब्जी, अनाज, तथा जीवन को सुलभ बनाने हेतु इंसानों द्वारा बनाए गए विभिन्न प्रकार के यंत्र मशीन, जीवनोपयोगी तमाम वस्तुएं मानवों के लिए महत्वपूर्ण है तथा इनकी एक विशेष गुणवत्ता भी है तभी इनकी महत्ता भी है।
उदाहरण के लिए शरीर की महत्ता इसी में है की वह स्वच्छ और निरोग रहे। शरीर के बाहरी त्वचा को स्वच्छ रखने और शरीर के भीतरी व्यवस्था को निरोग रखने के लिए साबुन एवं पोषण युक्त शुद्ध सात्विक आहार की आवश्यकता होती है। यदि साबुन एवं खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता खराब हो अर्थात साबुन शरीर पर लगाने से प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और खाद्य पदार्थ जहर युक्त रसायनिक यूरिया डीएपी खाद से उत्पादित हुए है तथा व्यक्ति उसका सेवन करे तो स्वाभाविक है की शरीर की महत्ता प्रभावित होगी। शरीर धीरे धीरे रोगों के घर बनेगा।

जिस वस्तु में कोई गुणवत्ता न हो तो उसकी महत्ता भी नहीं होगी। जिस वस्तु का महत्ता खूब है और उस वस्तु के निर्माण/उत्पादन प्रक्रिया में गुणवत्ता के मूल भूत पहलुओं को नजर अंदाज किया गया है और उसे गुणहीन बना दिया गया हो तो उसकी महत्ता नहीं हो सकती। उस वस्तु को कोई अपनाना नहीं चाहेगा। वहीं दूसरी ओर किसी वस्तु या निर्माण कार्य की कोई महत्ता नहीं है और उस वस्तु/निर्माण कार्य को बड़ी सिद्धत से खूब गुणवत्तापूर्ण कार्य किया गया हो तो वह फिर भी बेकार है क्योंकि उस वस्तु/निर्माण कार्य की कोई महत्ता ही नहीं है। उदाहरण के लिए एक खूबसूरत घर तमाम सुख सुविधाओं युक्त पूरी तन्मयता तत्परता और गुणवत्ता से परिपूर्ण किसी सुनसान दुर्जन एकांत इलाके में बना दिया गया हो और उस घर में कोई भी व्यक्ति रहने को तैयार ही नहीं हो तो उस गुणवत्तापूर्ण घर की क्या उपयोगिता..? इस लिए गुणवत्ता और महत्ता एक दूसरे के पूरक है।

परंतु आस्था विश्वास के केंद्र वाले कुछ ऐसे शक्ति पीठ/दैविक स्थान है जिनकी महत्ता अपरंपार है। इस लिए अपरंपार है की उन संबंधित देवी देताओं की गुणों का बखान सर्व हितकारी, मंगलकारी, जनकल्याणकारी है तथा वे देवी देवता एक ऐसे ऊर्जा के स्रोत है जिसका सभी को जरूरत है। तभी उस स्थान के अवलोकन के लिए लोगों में एक जुनून, उमंग, उत्साह होती है । उस स्थान के इर्द गिर्द निर्माण कार्यों में गुणवत्ता न भी हो तो यह मायने नहीं रखता लोग स्वकल्याण के लिए उस स्थान की महत्ता के एवज में पूरे मनोयोग से जाते हैं। यहां पर समझना होगा उन देवी देवता के गुणवत्ता और महत्ता अलग है और मानवों द्वारा निर्मित उस क्षेत्र के भवन निर्माण, रास्ता निर्माण, बागवानी एवं अन्य संबंधित कार्य की गुणवत्ता महत्ता अलग है।

वर्तमान सार्वजनिक निर्माण कार्य पर गौर किया जाए तो किसी फलाने स्थान से फलाने स्थान तक एक सड़क की आवश्यकता है और बीच रास्ते में एक नदी पड़ती है जिसके ऊपर से एक पुल निर्माण की भी जरूरत है जिससे एक दूसरे क्षेत्र के लोग आसानी से निर्बाध आवागमन कर सके..! यह इसकी महत्ता है की इन दोनो स्थानों के बीच एक सड़क और पुल बन जाए तो दोनो ओर के लोगों को आवागमन में सहूलियत होगी। सड़क निर्माण कार्य और पुल निर्माण कार्य तो कराए गए परंतु मानक के अनुसार उनमें गुणवत्ता का अभाव है। अर्थात नवनिर्मित पुल उद्घाटन के दिन ही धरासायी हो गया और चरमरा के टूट गया तथा सड़क पहली ही बरसात में धसने लगा व बीच सड़क पर गड्ढे बनने लगें जबकि इस निर्माण कार्य कराने में कई सौ/हजारों करोड़ रूपए की लागत लगी हो..? तो इतने रुपए किस पैमाने पर खर्च हुए जबकि उस कार्य में कोई गुणवत्ता ही प्रदर्शित नहीं होती। महत्ता होने के बावजूद गुणवत्ता नहीं होने के कारण उस सड़क और पुल की क्या उपयोगिता जरा आप विचार कीजिए..? मापदंड के अनुसार उस पुल और सड़क निर्माण के लिए धनराशि कम आवंटित नहीं किए होंगें की उसकी गुणवत्ता पर असर पड़े बल्कि ठोस कार्यों में धनराशि की आवंटन वास्तविक लगने वाले राशि से कहीं न कहीं अधिक बजट स्वीकृत हुआ होगा। उस मद में शत प्रतिशत आवंटित राशि का निकासी हो जाए और उस राशि के सापेक्ष गुणवत्ता पूर्ण कार्य न हो तो इसमें कौन कौन दोषी है आप स्वयं अनुमान लगा लीजिए। क्या यह भ्रष्टाचार की उच्चतम प्रकाष्ठा नहीं कहा जाएगा..?

जिस किसी भी देश/राज्य में नव निर्मित सड़के धस रही, पुल गिर रहे, मंदिर की छत टपकने लगे एवम हवाई अड्डे के छत गिरने के समाचार अक्सर देखने को मिले जिसमें जान माल संपति की ह्रास हो रहा है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है और व्यक्ति/फर्म पर क्या कार्यवाही हुआ इसे जनसमुदाय को स्पष्ट बताना चाहिए। लगातार गिर रहे पुल, धस रहे रोड, तमाम ऐसे निर्माण कार्य जिसमें मानक के अनुरूप गुणवत्ता न हो तो यह समझ लीजिए जनसमुदाय के लिए अनिष्ट, अमंगल का संकेत है। क्योंकि गुणवत्ता हीन खराब सड़क एवं पुल हादसा में मरने वाले अधिकांश लोग साधारण परिवारों से होते हैं। ऐसे में संबंधित निर्माणकर्ता/ उसके नेतृत्व कर्ता को तुरंत बदलने की आवश्यकता है। जनता जब चुप हो जाती है और ऐसे गुणहीन कार्यों पर कुछ नहीं बोलती तो संबंधित कार्यदायी संस्था और वह विभाग निरंकुश हो जाता है और उनका मनोबल और बढ़ता चला जाता है तथा इस बार वाले परियोजना में थोड़ा तो अगले परियोजना में इससे ज्यादा धन बचाने लगते हैं जिसका प्रभाव तो उस संबंधित कार्य के गुणवत्ता पर पड़ेगा ही। सार्वजनिक निर्माण कार्य जनता के दिए हुए कर के पैसे से ही होता है। ऐसे में जनता का पूर्ण अधिकार है अपने क्षेत्र में होने वाले विकास कार्यों की गुणवत्ता एवं महत्ता की समीक्षा करें। निर्माण में लगे संबंधित फर्म एजेंसी/ विभाग के अधिकारी कर्मचारी संतोष जनक उत्तर न दे तो उनसे लोक सूचना अधिकार अधिनियम 2005 के तहत लिखित में भी संबंधित सवालों को पूछा जा सकता है तथा व्यय होने वाले धनराशि के बिल वाउचर की छायाप्रति मांगा जा सकता है। फिर भी असंतुष्टि की दशा में उच्च स्तरीय सक्षम प्राधिकारी के पास शिकायत दर्ज कराया जा सकता है। यदि फिर भी अपेक्षित कार्यवाही न हुआ तो फिर कोर्ट कचहरी के दरवाजा तो सदैव खुले ही रहते हैं।
ग्राम पंचायतों, नगर पालिका में निगरानी समिति गठित करने का संवैधानिक अधिकार है। निगरानी समिति के सदस्य पूर्ण अधिकार के साथ निर्माण कार्यों की गुणवत्ता और महत्ता परख सकते हैं।

 श्रृष्टि के नियमानुसार समस्त दृश्य, अदृश्य वस्तुएं, परिस्थितियां जवां होती है और फिर समयानुसार पुराने भी होते हैं। इस नियमानुसार किसी व्यक्ति विशेष के गुणवत्ता, महत्ता भी प्रभावित होती है। इस परिस्थिति को भांपते हुए जैसे कोई अच्छा खेल, खेल रहा खिलाड़ी अपने जीवन के चरमोत्कर्ष पर ही आने वाले समय की नजाकत को भांपते हुए सन्यास की घोषणा कर देता है और नए खिलाड़ियों को मौका देता है। ठीक उसी प्रकार प्रत्येक नेतृत्व कर्ता को एक समय के बाद स्वयं पद, प्रतिष्ठा छोड़ते हुए किसी दूसरे योग्य व्यक्ति को मौका देना चाहिए इससे उनका यश कीर्ति में हजारों गुना इजाफा होगा। अन्यथा एक समय के बाद जबरदस्ती पद पर बने रहना, कुर्सी से चिपके रहने की मोह बाद में वह व्यक्ति को निंदा, हास्य, परिहास का पात्र बना देता है। परंतु बहुत सारे राज नेताओं की राजगद्दी/कुर्सी का मोह छूटता ही नहीं और वे अपना उत्तराधिकारी अपने निज संतान को ही बनाना चाहते हैं। भले ही पार्टी में सुयोग्य कर्मठ कार्यकर्ता ढेरो क्यों न पड़े हो उनको अपने पार्टी का वारिस केवल अपने निज संतान में ही दिखता है। बहुत सारे ऐसे छोटे पार्टियों का मामला प्रकाश में आता है जब वे चुनाव के वक्त किसी बड़े पार्टी से गठबंधन करते हैं और उन्हें जातिगत वोट प्राप्ति उम्मीद के आधार पर एक दो सीट मिल जाती है तो सबसे पहले वे स्वयं लड़ेंगे और और दूसरे सीट पर अपने बेटा या बेटी को टिकट देते हैं। दूसरा भले ही उनके बेटे, बेटियों से योग्य क्यों न उनके पार्टी में हो..?

ऐसे लोगों को दुष्यंत के पुत्र दिग्विजयी चक्रवर्ती महाराज भरत जिनके शक्ति और पराक्रम के कारण इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा। सर्व प्रथम प्रजातंत्र के बीज बोने वाले ऐसे महान राजा से सीखना चाहिए की कैसे उन्होंने जन्म और कर्म के बीच में एक रेखा डालकर यह कहा की व्यक्ति के गुणवत्ता एवं महत्ता उसके जन्म से नहीं बल्कि कर्म से है। अर्थात राजा का बेटा योग्य हो तो वह बिल्कुल राजगद्दी के उत्तराधिकारी हो सकता है वहीं राजा के बेटा यदि अयोग्य हो और वह राजगद्दी संभालने की क्षमता नहीं रखता हो तो वह जन्म के आधार पर उत्तराधिकारी घोषित हो यह प्रजा हित के लिए न्यावोचित नहीं है। चक्रवर्ती राजा भरत का वह कथन और करनी आज के प्रत्येक राजनेताओं को आत्मसात करना चाहिए की कोई राजा अपने देश और अपने देश के जन समुदाय से बड़ा नहीं होता। किसी भी राजा के केवल तीन ही कर्तव्य होते हैं:- पहला देश और जनसमुदाय को त्वरित न्याय देना, दूसरा उनका रक्षा करना एवं गुणवत्ता महत्ता पूर्ण समेकित विकास करना तथा तीसरा किसी ऐसे योग्य व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी घोषित करना जो देश और प्रजा को न्याय, रक्षा एवं विकास कर सके। उन्होंने अपने नौ पुत्रो में किसी में भी यह गुण को न देखते हुए जनसमुदाय से भारद्वाज मन्यू को अपना पुत्र मानते हुए अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। आज के नेताओं में इतना बड़ा त्याग हो सकता है की कोई पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष जो विधायक, सांसद, विभागीय मंत्री, मुख्य मंत्री, प्रधान मंत्री के कुर्सी तक पहुंचा हो और अपने पुत्र को राजनीति में न उतारे अथवा उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित न करें..? यहां तो आलम यह है की कोई राजनेता सरकार के अहम पद पर हो तो वह अपने प्रभाव से अपने बेटा को उस विभाग के अध्यक्ष/सचिव पद पर बैठा देता है जिसका वह abcd तक नहीं जानता है। उसकी कार्य सामर्थ्य ऊर्जा, वाक शक्ति, गुणवत्ता न हो फिर भी कोई बात नहीं वह व्यक्ति उस गरिमामायी विभाग के गरिमा, महिमा, लोकप्रियता और महत्ता के आधार पर खिंचाते रहता है। जबकि उसी विभाग में बहुत सारे ऐसे लोग होते हैं जो उस विषय वस्तु के गहन जानकर होते हैं उन्हें तवज्जो नहीं मिलती क्यों की उनका पहुंच पैरवी उस स्तर का नहीं होता है तथा वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था कर्म आधारित नहीं बल्कि जन्म आधारित होने लगा है।

सत्यवती मत्स्यगंधा का प्रकरण ही आत्मसात कर लीजिए, जब हस्तिनापुर नरेश शांतनु ने उसके पिता दास राज से विवाह का प्रस्ताव रखा तो दास राज ने यही शर्त पर विवाह के लिए हामी भरा की सत्यवती मत्स्यगंधा का पुत्र ही हस्तिनापुर राज्य के उत्तराधिकारी हो..! पहले से ही उत्तराधिकारी घोषित हो चुके शांतनु और गंगा पुत्र महान पराक्रमी देवव्रत ने अपने पिता के सुख के खातिर आजीवन ब्रह्मचर्य रहने और हस्तिनापुर राज्य सिंहासन से निष्ठा की डोर में बंधे रहने के भीष्म प्रतिज्ञा करते हुए अपने पिता को सत्यवती से विवाह करवाया। परिणाम क्या हुआ इन दोनो के मिलन से दो पुत्र चित्रांगदा और विचित्रवीर्य हुए।  वचन के अनुसार चित्रांगद को राजा बनाया गया वह किसी युद्ध में युद्ध करते मारा गया उस समय वह अविवाहित थें। फिर इसके बाद विचित्रवीर्य को राजगद्दी पर बैठाया गया। वह भी पत्नी सुख प्राप्त करते हुए क्षय रोग से पीड़ित हो कर मर गए। विचित्रवीर्य की दोनों रानियों अंबिका और अंबालिका से उनकी कोई संतान नहीं हुई थी। कुलदीपक होना चाहिए इस लिए विचित्रवीर्य के निःसंतान मर जाने के बाद, सत्यवती ने अपने पहले पुत्र वेदव्यास जो महर्षि पराशर के दिव्य प्रभाव से उत्पन्न हुए थें उनको बुलाया था। वेदव्यास ने योगबल से दृष्टिपात करके अंबिका और अंबालिका से अंधे धृतराष्ट्र और रोगी पाण्डु, और एक दासी से नीतिवान विदुर नाम के तीन पुत्रों को जन्म दिया था।
इस प्रसंग का तात्पर्य यह है की कर्म के गुणवत्ता, महत्ता को नजर अंदाज करते हुए यदि जन्म के महत्ता के आधार पर जबरदस्ती राजसुख दिलाने से विभिन्न प्रकार के समस्याएं पैदा हो सकती है। ऐसी परिस्थितियों में महत्ता तभी कारगर साबित हो सकती है जब उस व्यक्ति के अंदर गुणवत्ता हो..! गुणवत्ता बिना संघर्ष, त्याग, तपस्या के उत्पन्न होता नहीं। राजघराने, अमीर, संपन्न के घरों में तमाम सुख सुविधाओं का उपलब्धता पहले से ही होती है इसलिए उनके बच्चो को समाज हित, राजनीत के परिपेक्ष्य में तरासने में किसी गुरु को कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। आरामतलबी और बाबूजी के प्रभावों के गुमान में ऐसे अधिकांश बच्चे लीक से भटक जाते हैं।

राजगद्दी पर बैठा कोई व्यक्ति कभी कभी वह राज सुख में इतना आशक्त, मोहित हो जाता है की वह अपने बाद उत्तराधिकारी घोषित करने पर विचार ही नहीं करता। जनसमुदाय में भारी किरकिरी होने के बावजूद भी वह शाम, दाम, दण्ड, भेद, एन, केन, प्रकारेन कुर्सी से चिपका रहना चाहता है। लेकिन प्रकृति के नियमानुसार इस मृत्युलोक में कोई भी भौतिक द्रव्यमान युक्त वस्तु हो या अदृश्य परिस्थितियां सभी का जन्म/निर्माण/उदय होता है फिर शिशु अवस्था, तरुण अवस्था तदुपरांत बुजुर्गा अवस्था फिर अंत/समाप्त यानी मृत्यु को प्राप्त होना अटल सत्य है। अर्थात वस्तुएं, परिस्थितियां नई से पुराण फिर अंत को प्राप्त होती है यही विधि का विधान है। ऐसे में किसी व्यक्ति के बारे में भी आपने सुना होगा कभी उसकी खूब चलती थी धन संपदा, वैभव, राजनैतिक, सामाजिक समर्थन, सामर्थ्य, शक्ति थी आज वह बेबस लाचार अकेला है। इससे यह स्पष्ट होता है की कोई भी व्यक्ति अपने वर्तमान कर्म प्रयास और लगन से या फिर पूर्व का संचित सत्कर्म प्रारब्ध के फल से उसके ग्रह नक्षत्र ज्योतिष इतना अनुकूल हो जाता है की बिना कोई उपयुक्त श्रम किए भी भाग्य और प्रारब्धानुसार शासन सत्ता की बागडोर उसके हाथ लग जाती है। इसका मतलब यह नहीं की वह व्यक्ति जब तक जीवित रहेगा सत्ता की बागडोर उसी के हाथो में रहना चाहिए... एक दिन वर्तमान कर्म के अनुसार फल मिल के बराबर हो जायेगा और पूर्व संचित कर्म, प्रारब्ध भी फल प्रदान कर समाप्त हो जायेंगे तब ग्रह नक्षत्र कुंडली ज्योतिषी भी उस व्यक्ति के प्रतिकूल हो जाता है फिर वही अर्जुन की भांति जो भीम भयंकर तमाम महारथियों को हराने वाला मामूली भीलों से हार जाता है। इसलिए समय और जन समुदाय की नजाकत को देखते हुए राजगद्दी के मोह को त्याग तुरंत अपने किसी उत्तराधिकारी को राजगद्दी पर बैठा देना बुद्धिमानी एवं होशियारी है। इसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व, गुणवत्ता और महत्ता और कई गुना बढ़ जाता है। तथा उसके त्याग को सैदैव आदर सत्कार की नजरो से देखा जाता है। अन्यथा एक समय के बाद कोई भी व्यक्ति बुलंदियों के शिखर पर से उतरता जरूर है, जैसे कोई भी व्यक्ति अपने बल बुद्धि और पराक्रम से एवरेस्ट शिखर के सबसे ऊंचाई वाले स्थान पर पहुंच जाता है तो उसके बाद वह जायेगा कहा फिर उसके बाद तो वह नीचे ही उतरेगा..! ठीक इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति राजनैतिक शासन व्यवस्था के शिखर पर पहुंच जाता है तो अब और कहा जाएगा। समयोपरांत देखते-देखते उस व्यक्ति एवं उसके संगठन के प्रति अमजनमानस का जी भर जाता है। किसी भी विचार धारा जिसपर कोई भी राजनैतिक पार्टी/ प्रमुख नेतृत्वकर्ता शासन सत्ता प्राप्त कर लीया हो, एक न एक दिन वह विचारधारा पुराना जरूर हो जाता है तदुपरंत जनसमुदाय फिर कुछ नई विचारधारा के तलास में रहते हैं। जैसे ही विपक्ष या कोई नया दल नवीन उम्दा विचारधारा लेकर आते हैं जनता उनके मुरीद हो जाती है। यदा कदा यह भी सुनने को मिलता रहता है की सत्ताधारी दल चुनाव में ईवीएम के मध्यम से या मतगणना के वक्त विरोधी पार्टियों धांधली कर हरा देती है। इसमें कितना सच्चाई है मुझे सटीक नहीं मालूम पर ऐसे प्रकरण प्रकाश में आते हैं।
एक समय के पश्चात कोई खास व्यक्ति मुख्य नेतृत्वकर्ता के पद पर बने रहना खुद अपने दल के अन्य सहयोगियों के बीच एवं जनता जनार्दन के बीच भी नफ़रत का दीवार बढ़ता चला जाता है। शासन सत्ता में कम से कम पांच वर्ष और अधिक से अधिक दस वर्षो के पश्चात मुख्य नेतृत्वकर्ता का नेतृत्व बदलना ही चाहिए। कोई बीस पच्चीस साल तक राजगद्दी पर जबरदस्ती या कोई विशेष समीकरण के तहत बैठा रहे तो एक समय के बाद उस व्यक्ति में भी उमंग जुनून कार्य सामर्थ्य ऊर्जा पहले की भांति नहीं रहता और अपने आप को महान समझने के कारण उसके अंदर अभिमान, अहंकार का पनपना स्वाभाविक है। तथा एक समय के पश्चात उस व्यक्ति के ग्रह नक्षत्र सितारे, संचित कर्म फल, प्रारब्ध सब टाय टाय फीस हो जाते हैं तब वह व्यक्ति जिस कार्य में अपनी विशेष वाहवाही लेना चाहेगा वहां उसकी मनहूसियत आगे आ जायेगी। जो कार्य बनाने वाला भी है वहां उसकी मौजूदगी से वह कार्य बिगड़ने लगता है। ऐसे व्यक्तियों को अपने नीचे के जमीन जब दरकते हुए मालूम पड़ती है और जब कुछ नहीं सूझता है तो शासन सत्ता में बने रहने के लिए एक बड़ी लकीर खींचते हैं। जो आने वाला भविष्य में अनिष्ट अमंगल का कारण बनता है। तब तक वह व्यक्ति अपना उम्र बिताकर परलोक सिधार गया होता है। उस बड़ी लकीर के कीमत को आने वाला अनभिज्ञ नई पीढ़ी भुगतता है।

वैसे भी महर्षि वेद व्यास के कथानुसार कलयुग का दुष्प्रभाव चहु ओर सर्वत्र व्याप्त हो चुका है। वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति का समय अलग-अलग व्यतीत होता है और यह परिवर्तनशील है। बदलते समय का प्रभाव प्रत्येक दृश्य-अदृश्य वस्तु परिस्थिति पर अवश्य पड़ता है। प्राणी के मौलिक अधिकार, नीतियों और संस्कृति, परंपराओं पर हो रहे अघात किसी से छुपा नहीं है। समय के साथ लोगों और नेतृत्वकर्ताओं की स्वभाव में परिवर्तन निश्चित है। जो वचन देंगें उस पर अमल नहीं हो रहा..! जो वादा करेंगें वह भूल जायेंगें, यदि वह वादा किसी ने याद करा भी दिया तो उसे अपने जुमला, जूठ से पूरा कर देंगें। शिक्षा मुनाफे वाला व्यापार बन गया है। अज्ञानी, धूर्त, मक्कार ज्ञान के केंद्र के स्वामी बन गए हैं। भ्रष्टाचारी, अयोग्य, चाटुकार और धनबल के प्रभाव वाले व्यक्ति शासन सत्ता के उच्च पदों पर काबिज हो गए हैं। नारियों की अस्मिता का मान सम्मान स्वाभिमान केवल याद मात्र भर रह गई है। वह प्रदर्शन की वस्तु बनाए जाने लगी उनके सुकोमल गुप्त अंगो को दिखा-दिखा कर कई फिल्म, गाने के प्रोड्यूसर, निर्माता, अभिनेता सोशल मीडिया पर परोस कर एक तरफ अप्रयाशित धनार्जन कर रहे हैं दूसरी तरफ देश के होनहार युवा वर्गों को कामवासना के आग में धकेल रहे। कामोत्तेजना के कारण गांव, घर, नगर में किसी के बहन बेटी नाते रिश्तेदारों के मर्यादा को तार तार करने की खबर समाचार पत्रों अखबारों में अक्सर ही मिलता रहता है। अश्लील गाने, फिल्मों में ऐसे भीभत्स गंदे आचरण के खुलेआम प्रदर्शन पर भी सरकार न जाने क्यों मौन धारण किए है। देश में ऑनलाइन जुआखोरी, सट्टेबाजी वाला गेम का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है युवा इन कुसंगो में तेजी से बर्बाद हो रहे हैं और सबसे हास्यपाद यह है की इसका प्रचार कुछ नामी गिरामी हस्तियां कर रही है परंतु सरकार बिलकुल मौन धारण किए है रोकने का कुछ उपाय नहीं कर रही जो चिंता का विषय है..? सोशल मीडिया इंटरनेट पर खुलेआम अश्लील सामग्री परोसी जा रही उसे कोई रोकने टोकने वाला नहीं..! धर्मांतरण, लव जेहाद, लिव इन रिलेशनशिप तथा समलैंगिक संबंधों पर रोक न लगाई जाए तो समाज में बहुत बड़ी विकृति आ सकती है पर दुख का बात यह है की इस पर सरकार या किसी सामाजिक संगठन को ध्यान नहीं है..! बीड़ी, सिगरेट, गुटखा, तंबाकू, मदिरा सहित तमाम नशीले पदार्थ खुलेआम चौक चौराहे पर बेच जन समुदाय को गरीबी लाचारी तंगी, बेबसी और घरेलू कलह में धकेल दूसरी तरफ उससे खूब राजस्व अर्जित किया जाए यह उचित है..? क्या यह तमाम कुरीतियों पर किसी भी देश के सत्ताधारी दल व शासन कर्ता प्रतिबंध न लगाए चुप चाप अत्यधिक कर वसूलता रहे तो वह लंबे समय तक शासन सत्ता में बने रहने लायक है... जरा खुद ही विचार कीजिए और निर्णय लीजिए..?

     अतः प्रजातांत्रिक व्यवस्था होने के कारण जनसमुदाय को नेतृत्वकर्ता चुनने संबंधी मिले अधिकार को समय रहते भाप लेना चाहिए की एक समय के बाद व्यक्ति की कार्य सामर्थ्य ऊर्जा कमजोर पड़ जाती है जिससे उस व्यक्ति का गुणवत्ता और महत्ता धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है फिर वह राजनीति परिपेक्ष्य में उपयुक्त नहीं रहता..! केवल चिकनी, चुपड़ी, लुभावनी बातो से शासन सत्ता में रह कर मलाई खाने के फिराक से देश का कल्याण नहीं हो सकता। ऐसे में प्रबंध संचालन या नेतृत्व संचालन के लिए किसी दूसरे अन्य नए व्यक्ति/संगठन को मौका देना ही चाहिए।

सबका मंगल, सबका भला, ॐ शांति ॐ

नोट: इस आलेख के जरिए मेरा मकसद किसी के निजीगत स्वैच्छिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। यदि किसी को ठेस पहुंचाता हो तो यह एक संयोग मात्र होगा जिसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं। अभिव्यक्ति के संवैधानिक स्वतंत्रता के अधिकारों तहत हमने केवल अपना निजी मत प्रस्तुत किया है। अन्य लोग मेरे विचारों से सहमत हो ऐसा कोई जरूरी नहीं है।

राष्ट्र लेखक एवं भारत साहित्य रत्न उपाधि से अलंकृत
डॉ. अभिषेक कुमार
मुख्य प्रबंध निदेशक
दिव्य प्रेरक कहानियाँ मानवता अनुसंधान केंद्र

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