ब्लॉग प्रेषक: | अभिषेक कुमार |
पद/पेशा: | साहित्यकार, सामुदाय सेवी व प्रकृति प्रेमी, ब्लॉक मिशन प्रबंधक UP Gov. |
प्रेषण दिनांक: | 23-05-2022 |
उम्र: | 32 |
पता: | आजमगढ़, उत्तर प्रदेश |
मोबाइल नंबर: | 9472351693 |
खेतो में पाया जाने वाला खरपतवार बना कीमती औषधि
खेतो में पाया जाने वाला खरपतवार बना कीमती औषधि
मैं ननिहाल के ग्राम रसूलपुर जा रहा था तभी रास्ते में पड़ने वाले एक ग्राम के रोड पर कुछ लाल घाँस पड़े दिखा। वह घाँस जो रवि के सीजन में खेतों में फसलों के साथ यत्र-तत्र-सर्वत्र खर पतवार के रूप में पाया जाता है जिसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है तथा यह भारी मात्रा में मौजूद होते हैं।
हमने अपनी कार को रोक एक स्थानीय व्यक्ति से पूछा कि चाचा यह घास रोड पर आपलोग क्यों बिछा दिए है इसकी क्या उपयोगिता हैं..? तो वे सज्जन बड़े तल्लीनता के साथ जबाब दिए कि बेटा यह वनपालक है जिसे देहाती भाषा में लाल घाँस भी कहते हैं, वह देखिए खेतो में हर जगह उपलब्ध है, यह धान कट जाने के बाद निकलता है, बड़ा होता है और गेहूं कटने के साथ प्रचंड बैसाख के धूप में सुख कर तथा बरसात में खरीफ के समय खेतो में सड़ गल जाता है। मेरे ही ग्राम के एक व्यक्ति छत्तीसगढ़ में आयुर्वेदिक दवा बनाने वाली कंपनी में कार्य करते हैं जिन्होंने इसकी महिमा बताई। इसके छोटे बीज बवासीर जैसे लाइलाज विमारी सहित पेट के कई अन्य असाध्य विमारियों के खात्मा हेतु रामबाण औषधि के रूप में इसका प्रयोग होता है। यह रोड पर इस लिए पड़ा है कि आते-जाते वाहनों के टायरों से कुचल कर इसके डंठल चूर हो जाते हैं जो बाद में चलनी के द्वारा इसके बीज अलग कर लिए जाते हैं जो 700-800 रुपये किलो तक बाजार में औषधि बनाने वाले व्यापरियाँ ले जाते हैं। इस व्यवसाय से हमारे यहाँ के मजदूर तबके लोगो ने हजरो-हज़ार का शुद्ध मुनाफा अर्जित किया है बिना कोई लागत लगाए सिर्फ मेहनत के बल।
धन्य है ये प्रकृत की अद्भुत व्यस्था जहाँ कोई वस्तु बेकार नही है, जिसे वर्षो से खरपतवार समझकर उसकी उपयोगिता से अनभिज्ञ थें यहाँ के लोग आज वह पौधा मूल्यवान निकला। यहाँ के लोग इस औषधीय पौधे से एक ओर जहाँ आर्थिक दृष्टिकोण से समृद्ध हो रहे हैं वहीं दूरी ओर बवासीर जैसे असाध्य रोग एवं अन्य पेट के विमारियों को जड़ से समाप्त करने में इनकी मेहनत की महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर जनमानस के स्वास्थ्य व्यस्था कर रहे हैं।
आयुर्वेद विज्ञान का उत्पति एवं विकास सृष्टि प्रारम्भ से ही हो गया था। आयुर्वेद विधा के प्रथम ज्ञाता भारत भूमि से ही हुयें जिनके आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं जिन्होने औषधियों के प्रभाव से दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। अश्विनी कुमारों से देवराज इन्द्र ने आयुर्वेद की विद्या प्राप्त की थी। इन्द्र ने धन्वन्तरि जी को सिखाया। ऐसा माना जाता है कि काशी के राजा दिवोदास धन्वन्तरि के अवतार थें। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वन्तरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल,करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य(अग्निवेश, भेड़, जातूकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक।
कुल मिला कर यह स्पष्ट है कि अनादिकाल से ही भारतवर्ष के लोग रोग-व्याधियों को औषधियों के माध्यम से ही पूरे जड़ से समाप्त करते आएं है तथा प्रत्येक समय काल में इसके विद्वान हुए जिसे हम वैध जी के नाम से जानते आये हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी अपने उत्तराधिकारी एवं शिष्यों को आयुर्वेद की महिमा, शक्ति एवं उसके पहचान की शिक्षा देते आएं। अपने दादा के मुख से सुना करता था वैध जी की चूर्ण-चटनी मात्र अट्ठनी-चरनी में रोग विमारियों की जड़ से समाप्त कर देती है। जरा सोंचिये इस 21 वीं सदी के वर्तमान स्वास्थ्य देख-भाल पद्धतियों के मध्यनजर की कितना खर्चीला, महंगा एवं अर्थ व्यवस्था को कई वर्ष पीछे धकेलने वाला है। चंद्रमा की चमक अभी फीकी एवं कमजोर नहीं हुई है जिससे औषधियों में रोग जड़ से मिटाने की क्षमता पुष्ट होती है। अब तक मानवो-पशुओं में जितने रोग संज्ञान में आएं है उस रोग को जड़ से एवं सदा के लिए समाप्त करने वाले दिव्य औषधियां अधिकांश भारत भूमि पर पाया जाता है। हमारे ऋषि मुनियों द्वारा वर्षो के अनुसंधान एवं प्रयोग के नतीजे किताबों में अंकित है जिसे अध्यन एवं प्रयोग कर आज भी मानव समाज अत्यंत महंगे एवं त्वरित आराम देने वाले रासायनिक अंग्रेजी दवावों के दुष्प्रभाव से बच सकता है। आज देश का प्रत्येक तीसरा आदमी कोई न कोई अंग्रेजी दवावों का इस्तेमाल तो करता ही है चुकिं उसके पास भी कोई व्यापक विकल्प मौजूद नहीं है आयुर्वेदिक पद्धतियों से इलाज का, कारण की कोई वैसा चिकित्सक बहुत ज्यादा बचे नहीं है जो बचे भी है उनका कोई सार्वजनिक प्रोत्साहन नहीं मिल रहा। सरकार को भी आयुर्वेद पद्धति को पुनः जागृत कर उपचार संबंधी विस्तृत कार्ययोजनाओं पर बल देना होगा तथा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की तर्ज पर प्रत्येक ग्राम पंचायत स्तर पर पौराणिक आयुर्वेदिक उपचार केंद्र की स्थापना करनी होगी तथा प्रत्येक ब्लॉक स्तर पर आयुर्वेद महाविद्यालय खोलना होगा। यदि ऐसा होता है तो अंग्रेजी दवावों के आर्थिक एवं स्वास्थ्य दुष्प्रभावों को भी कम किया जा सकता है एवं इन औषधियों को पनपाने वाले भारतीय निम्न स्तरीय, माध्यम स्तरीय परिवारों के किसानों को प्रत्यक्ष लाभ होगा एवं आर्थिक सामाजिक दृष्टिकोण से वे सशक्त एवं मजबूत होगें।
भारत की बहुत बड़ी आबादी ग्रामो में निवास करती है जिनकी क्रय शक्ति बड़ा ही निम्न स्तर का है जो जीवन के मूल-भूत आवश्यकताओं के लिए भी हर दम गरीबी लाचारी में जूझते रहते हैं। यदि आयुर्वेद पद्धति को पुनः जागृत किया जाए तो एक ओर प्रकृति भी प्रसन्नता से झूम उठेगी वहीं दूसरी ओर मानव समाज भी अंग्रेजी दवावों के अपेक्षाकृत सस्ते में आयुर्वेदिक इलाज से रोग दुःख संताप को जड़ से मिटा सकेंगें एवं एक दूसरे के सहयोग से देश के GDP (सकल घरेलू उत्पाद) बढ़ाने में मदत मिलेगी वहीं उत्पादन तथा विपणन चेन से देश के बहुत बड़ी बेरोजगार आबादी को रोजगार मिलेगा। इस प्रकार भारत की कीर्ति पताका पूरे विश्व में फहराएगी एवं दुनियां प्रकृत तथा आयुर्वेद पद्धति से जुड़ सकेगी।
अभिषेक कुमार
अंतर्राष्ट्रीय समाज सेवा अवार्ड, विश्व संत कबीर अवार्ड एवं भारत साहित्य रत्न से सम्मनित
जयहिंद तेंदुआ, औरंगाबाद, बिहार
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