ब्लॉग प्रेषक: | राजीव भारद्वाज |
पद/पेशा: | व्यंग्यकार |
प्रेषण दिनांक: | 08-01-2025 |
उम्र: | 39 |
पता: | गढ़वा झारखंड |
मोबाइल नंबर: | 9006726655 |
देवभूमि - उत्तराखंड संस्मरण
हिमालय की तीर्थ यात्रा पर जाने का मेरा कोई इरादा न था, लेकिन दिल की सच्ची प्यास ने मुझे उन कठिन रास्तों पर ले जाने को लालायित थी। मेरा मन किसी तलाश में था, और दिल को तरह तरह के शक घेरे हुए थे। मन में लालसा भी थी, इसीलिए मैं जगह जगह घुमा। कार्तिक माह के रंगीन वातावरण में उत्तर पश्चिम भारत के रेल मार्ग में मै निकल पड़ा अपने शहर गढ़वा से,कितने ही शहर कितने ही गांव पीछे छूट पड़े। पीछे छूट गए छोटे बड़े तीर्थ। प्राचीन भारत के वैभव के जीते जगते चिन्ह। इसी क्रम में मैं अपने परिवार संग जा पहुंचा हरिद्वार। हरिद्वार में एक चार पहिए वाहन किया ताकि बर्फीले पहाड़ों के स्वर्गरूपी दृश्य का अवलोकन रास्ते भर किया जा सके। सुबह छः बजे ऋषिकेश में गंगा स्नान किया। गजब का ठंडा पानी, डुबकी लगाते ऐसा लगा मानो शरीर का चमड़ी इसी जलधारा में विलीन हो गया हो। एक डुबकी के बाद जैसे ही शरीर गंगा की अनवरत चल रही धारा से बाहर निकली की ठंड गायब। शरीर में आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार और रक्त के प्रवाह में भक्ति का संचार, सही में एक अनोखा और अविस्मरणीय अनुभव। तत्पश्चात गरम गरम आलू पराठा से पेट पूजन हुआ, और चल पड़ा सुहाने सफर पर। सौ किलोमीटर चला होगा की श्रीनगर नामक शहर दृष्टिगोचर हुआ, पहले तो चौंका की उत्तराखंड की यात्रा पर कश्मीर का श्रीनगर, लेकिन बाद में पता चला कि उत्तराख में भी एक शहर है श्रीनगर। यहां अवस्थित है धारी देवी मंदिर जो श्रीनगर और रुद्रप्रयाग के बीच अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित एक हिंदू मंदिर है। मंदिर में देवी धारी की मूर्ति का ऊपरी आधा भाग स्थित है, जबकि मूर्ति का निचला आधा हिस्सा कालीमठ में स्थित है, जहां उन्हें देवी काली के रूप में पूजा जाता है। उन्हें उत्तराखंड की संरक्षक देवी माना जाता है और उन्हें चार धामों के रक्षक के रूप में माना जाता है।उनका मंदिर भारत में 108 शक्ति स्थलों में से एक है, जैसा कि श्रीमद देवी भागवत द्वारा गिना गया है। स्थानीय द्वारा 16 जून, 2013 को अलकनंदा हाइड्रो पावर द्वारा निर्मित 330 मेगावाट अलकनंदा हाइड्रो इलेक्ट्रिक बांध के निर्माण के लिए देवी के मूल मंदिर को हटा दिया गया और अलकनंदा नदी से लगभग 611 मीटर की ऊंचाई पर कंक्रीट के मंच पर स्थानांतरित कर दिया गया। कंपनी लिमिटेड (एएचपीसीएल), इंफ्रास्ट्रक्चर प्रमुख की सहायक कंपनी है।
संयोग से, मूर्ति को स्थानांतरित करने के घंटों बाद, इस क्षेत्र को 2004 की सूनामी के बाद से देश की सबसे खराब प्राकृतिक आपदाओं में से एक का सामना करना पड़ा। 2013 की उत्तर भारत की बाढ़ एक बहु-दिवसीय बादल फटने के कारण हुई थी, जिसके परिणामस्वरूप विनाशकारी बाढ़ और भूस्खलन पूरे तीर्थ शहर को धो डाला और सैकड़ों लोगों की जान ले ली।स्थानीय लोगों और भक्तों का मानना है कि उत्तराखंड को देवी के क्रोध का सामना करना पड़ा क्योंकि उन्हें उनके मूल स्थान (मूल निवास) से 330 मेगावाट की पनबिजली परियोजना के लिए स्थानांतरित किया गया था, जो बाढ़ के बाद खंडहर हो गई थी। 1882 में एक स्थानीय राजा द्वारा इसी तरह के प्रयास के परिणामस्वरूप एक भूस्खलन हुआ था जिसने केदारनाथ को समतल कर दिया था। धारी देवी मंदिर से पांच किलोमीटर आगे बढ़ा ही था कि अलकनंदा नदी का तट मुझे समुद्र के बीच जैसा लगा जहां फिर से शाही स्नान का मजा लिया और धूप में बैठ कर ठंड से दो चार हाथ किया। रास्ते में पंच प्रयाग हैं विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग और देवप्रयाग। उत्तराखंड के प्रसिद्ध पंच प्रयाग देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नन्दप्रयाग, तथा विष्णुप्रयाग मुख्य नदियों के संगम पर स्थित हैं। नदियों का संगम भारत में बहुत ही पवित्र माना जाता है विशेषत: इसलिए कि नदियां देवी का रूप मानी जाती हैं। प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम के बाद गढ़वाल-हिमालय के क्षेत्र के संगमों को सबसे पवित्र माना जाता है, क्योंकि गंगा, यमुना और उनकी सहायक नदियों का यही उद्गम स्थल है। जिन जगहों पर इनका संगम होता है उन्हें प्रमुख तीर्थ माना जाता है। यहीं पर श्राद्ध के संस्कार होते हैं। सर्वप्रथम अलकनंदा तथा भागीरथी नदियों के संगम पर देवप्रयाग नामक स्थान स्थित है। इसी संगम स्थल के बाद इस नदी को गंगा के नाम से जाना जाता है। यह समुद्र सतह से १५०० फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है। देवप्रयाग की ऋषिकेश से सडक मार्ग दूरी ७० किमी० है। गढवाल क्षेत्र में भगीरथी नदी को सास तथा अलकनंदा नदी को बहू कहा जाता है। देवप्रयाग में शिव मंदिर तथा रघुनाथ मंदिर है, जो की यहां के मुख्य आकर्षण हैं। रघुनाथ मंदिर द्रविड शैली से निर्मित है। देवप्रयाग को सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है। देवप्रयाग में कौवे दिखायी नहीं देते, जो की एक आश्चर्य की बात है। स्कंद पुराण केदारखंड में इस तीर्थ का विस्तार से वर्णन मिलता है कि देव शर्मा नामक ब्राह्मण ने सतयुग में निराहार सूखे पत्ते चबाकर तथा एक पैर पर खड़े रहकर एक हज़ार वर्षों तक तप किया तथा भगवान विष्णु के प्रत्यक्ष दर्शन और वर प्राप्त किया। इसके बाद मन्दाकिनी तथा अलकनंदा नदियों के संगम पर रुद्रप्रयाग स्थित है। संगम स्थल के समीप चामुंडा देवी व रुद्रनाथ मंदिर दर्शनीय है। रुद्र प्रयाग ऋषिकेश से १३९ किमी० की दूरी पर स्थित है। यह नगर बद्रीनाथ मोटर मार्ग पर स्थित है। यह माना जाता है कि नारद मुनि ने इस पर संगीत के गूढ रहस्यों को जानने के लिये "रुद्रनाथ महादेव" की अराधना की थी। श्रीनगर से उत्तर में 37 किमी की दूरी पर मंदाकिनी तथा अलकनंदा के पावन संगम पर रुद्रप्रयाग नामक पुण्य तीर्थ है। पुराणों में इस तीर्थ का वर्णन विस्तार से आया है। यहीं पर ब्रह्माजी की आज्ञा से देवर्षि नारद ने हज़ारों वर्षों की तपस्या के पश्चात भगवान शंकर का साक्षात्कार कर सांगोपांग गांधर्व शास्त्र प्राप्त किया था। यहीं पर भगवान रुद्र ने श्री नारदजी को `महती' नाम की वीणा भी प्रदान की। संगम से कुछ ऊपर भगवान शंकर का `रुद्रेश्वर' नामक लिंग है, जिसके दर्शन अतीव पुण्यदायी बताये गये हैं। यहीं से यात्रा मार्ग केदारनाथ के लिए जाता है, जो ऊखीमठ, चोपता, मण्डल, गोपेश्वर होकर चमोली में बदरीनाथजी के मुख्य यात्रा मार्ग में मिल जाता है। फिर अलकनंदा तथा पिण्डर नदियों के संगम पर कर्णप्रयाग स्थित है। पिण्डर का एक नाम कर्ण गंगा भी है, जिसके कारण ही इस तीर्थ संगम का नाम कर्ण प्रयाग पडा। यहां पर उमा मंदिर और कर्ण मंदिर दर्शनीय है। यहां पर भगवती उमा का अत्यंत प्राचीन मन्दिर है। संगम से पश्चिम की ओर शिलाखंड के रूप में दानवीर कर्ण की तपस्थली और मन्दिर हैं। यहीं पर महादानी कर्ण द्वारा भगवान सूर्य की आराधना और अभेद्य कवच कुंडलों का प्राप्त किया जाना प्रसिद्ध है। कर्ण की तपस्थली होने के कारण ही इस स्थान का नाम कर्णप्रयाग पड़ा। इसके बाद नन्दाकिनी तथा अलकनंदा नदियों के संगम पर नन्दप्रयाग स्थित है। यह सागर तल से २८०५ फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है। कर्णप्रयाग से उत्तर में बदरीनाथ मार्ग पर 21 किमी आगे नंदाकिनी एवं अलकनंदा का पावन संगम है। पौराणिक कथा के अनुसार यहां पर नंद महाराज ने भगवान नारायण की प्रसन्नता और उन्हें पुत्र रूप में प्राप्त करने के लिए तप किया था। यहां पर नंदादेवी का भी बड़ा सुंदर मन्दिर है। नन्दा का मंदिर, नंद की तपस्थली एवं नंदाकिनी का संगम आदि योगों से इस स्थान का नाम नंदप्रयाग पड़ा। संगम पर भगवान शंकर का दिव्य मंदिर है। यहां पर लक्ष्मीनारायण और गोपालजी के मंदिर दर्शनीय हैं। और अंतिम धौली गंगा तथा अलकनंदा नदियों के संगम पर विष्णुप्रयाग स्थित है। संगम पर भगवान विष्णु जी प्रतिमा से सुशोभित प्राचीन मंदिर और विष्णु कुण्ड दर्शनीय हैं। यह सागर तल से १३७२ मी० की ऊंचाई पर स्थित है। विष्णु प्रयाग जोशीमठ-बद्रीनाथ मोटर मार्ग पर स्थित है। जोशीमठ से आगे मोटर मार्ग से 12 किमी और पैदल मार्ग से 3 किमी की दूरी पर विष्णुप्रयाग नामक संगम स्थान है। यहां पर अलकनंदा तथा विष्णुगंगा (धौली गंगा) का संगम स्थल है। स्कंदपुराण में इस तीर्थ का वर्णन विस्तार से आया है। यहां विष्णु गंगा में 5 तथा अलकनंदा में 5 कुंडों का वर्णन आया है। यहीं से सूक्ष्म बदरिकाश्रम प्रारंभ होता है। इसी स्थल पर दायें-बायें दो पर्वत हैं, जिन्हें भगवान के द्वारपालों के रूप में जाना जाता है। दायें जय और बायें विजय हैं।
इन पंच प्रयाग के दर्शन के पश्चात ऐसा लगा कि नदी हो या इंसान सहृदय मिलन से ही गंगा जैसी ख्याति मिल सकती है, अहंकार, लोभ से परे निश्चल रूप के सभी से मिल जुल कर साथ चलना ही जीवन है। चंचल मन में जैसे आध्यात्म वास कर रहा हो ऐसा प्रतीत हो रहा था, क्या था और क्या होने लगा था मैं। अभी तो हमने ईश्वर का दर्शन भी नहीं किया था परंतु मन में शुद्धता भरना प्रारंभ हो गया था।
संध्या को गौरीकुंड पहुंचा और सुबह केदार बाबा की चढ़ाई की तैयारी में लग गया। एक अच्छा स होटल लिया और शुद्ध भोजन ग्रहण करके रात्रि विश्राम किया। प्रातः चार बजे उठ कर गौरीकुंड से पैदल यात्रा प्रारंभ किया। मां, धर्मपत्नी, पुत्र, भाई, सासू मां और मित्र सह भाई अभिषेक जी के साथ तेईस किलोमीटर के यात्रा में यात्रिक हो गया। ऊबड़ खाबड़ पत्थर, झरनों और खच्चरों के कोलाहल के बीच बच बचाकर पैदल चलना भी एक परीक्षा ही था जिसे बारह घंटे में क्लियर किया हम सबों ने मिल कर। पहुंच कर जैसे ही केदार मंदिर का दर्शन हुआ, मन उमंग से भर गया। केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित हिन्दुओं का प्रसिद्ध मंदिर है। उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ चार धाम और पंच केदार में से भी एक है। यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अप्रैल से नवंबर माह के मध्य ही दर्शन के लिए खुलता है। पत्थरों से बने कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पाण्डवों के पौत्र महाराजा जन्मेजय ने कराया था। यहाँ स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है। आदि शंकराचार्य ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। केदारनाथ की बड़ी महिमा है। उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ और केदारनाथ-ये दो प्रधान तीर्थ हैं, दोनो के दर्शनों का बड़ा ही माहात्म्य है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनाथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश पूर्वक जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है।
इस मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थ रहा है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये १२-१३वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाया हुआ है जो १०७६-९९ काल के थे। एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है।
केदारनाथ जी के तीर्थ पुरोहित इस क्षेत्र के प्राचीन ब्राह्मण हैं, उनके पूर्वज ऋषि-मुनि भगवान नर-नारायण एवं दक्ष प्रजापति के समय से इस स्वयंभू ज्योतिर्लिंग की पूजा करते आ रहे हैं। पांडवों के पोत्र राजा जन्मेजय ने उन्हें इस मंदिर में पूजा करने का अधिकार दिया था एवं संपूर्ण केदार क्षेत्र दान में दिया था, और वे तब से यहां पर तीर्थयात्रियों की पूजा कराते आ रहे हैं। शुक्ल यजुर्वेद अथवा बाजसेन संहिता का पाठ करने के कारण ये लोग शुक्ला अथवा बाजपेयी कहलाते हैं, शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा के अनुयायी होने के कारण इनके गोत्र शांडिल्य, उपमन्यु, धौम्य आदि हैं। गुरु शंकराचार्य जी के समय से यहां पर दक्षिण भारत से जंगम समुदाय के रावल व पुजारी मंदिर में शिव लिंग की पूजा करते हैं, जबकि यात्रियों की ओर से पूजा इन तीर्थ पुरोहित ब्राह्मणों द्वारा की जाती है। मंदिर के सामने पुरोहितों की अपने यजमानों एवं अन्य यात्रियों के लिये पक्की धर्मशालाएं हैं, जबकि मंदिर के पुजारी एवं अन्य कर्मचारियों के भवन मंदिर के दक्षिण की ओर हैं । सुबह सुबह स्नान कर के धर्मशाला से बाहर निकला और देखा कि मंदिर तीन तरफ से पहाड़ों से घिरा हुआ है, ऐसा लगा मानो पर्वतराज मंदिर की सुरक्षा में लगे हैं। सामने वाला पहाड़ पूरे बर्फ से आच्छादित था और यहां चलने वाली हवाएं सीधे स्वर्ग से आ रही थी। मंदिर देखते ही रोम रोम खिल उठा और मन में सिर्फ सांब सदाशिव का उदघोष होने लगा। श्रद्धालुओं के एक किलोमीटर लंबी लाइन में लगा। मन में दर्शन की अभिलाषा और लाइन आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहा था, दो घंटे तक एक इंच भी नहीं सरक पाया, मन में महादेव के दर्शन की अभिलाषा और लाइन में धैर्य की कठिन परीक्षा। सुरक्षा प्रहरियों से पूछने पर पता चला कि एक नेता और अभिनेता दर्शन करने और पूजा करने मंदिर के अंदर हैं, और मंदिर का गेट अन्दर से बंद कर पूजा हो रहा है। मंदिर में आम और खास लोगों की सुविधा से मन दुखित जरूर हुआ लेकिन मन में इस प्रकार का ख्याल आया कि महादेव की कृपा ही रही होगी कि वो खास बने और हमलोग आम। खैर चार घंटे बाद भव्य दर्शन हुआ और दर्शन के बाद मन के सारे विकार दूर हो गए। मन में सिर्फ महादेव, महादेव और महादेव। थकान के वजह से भैरो बाबा का दर्शन नहीं हो पाया क्योंकि पैर उठ ही नहीं रहा था और नीचे उतरना भी था। दोपहर एक बजे बाबा से आशीर्वाद और बिदाई मांगा तत्पश्चात नीचे उतरना प्रारंभ किया और रात्रि बारह बजे गौरीकुंड लौटा। रात्रि विश्राम के बाद निकल पड़ा बद्री विशाल का दर्शन करने। प्रातः गुप्तेश्वर महादेव का दर्शन किया फिर रास्ते में चोपता होते हुए पांच केदार के दूसरे केदार तुंगनाथ को रास्ते से ही प्रणाम किया। पंचकेदार या पञ्चकेदार (पाँच केदार) हिन्दुओं के पाँच शिव मंदिरों का सामूहिक नाम है। ये मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में स्थित हैं। इन मन्दिरों से जुड़ी कुछ किंवदन्तियाँ हैं जिनके अनुसार इन मन्दिरों का निर्माण पाण्डवों ने किया था। आइए पंच केदार को जानते हैं -
केदारनाथ
केदारनाथ मंदिर समुद्र तल से ३५८३ मीटर की ऊँचाई पर है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक प्रमुख ज्योतिर्लिंग है, इसे जीवित ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है। मंदिर के लिए पैदल मार्ग का आरंभ गौरीकुंड से होता है, जिसकी दूरी लगभग वर्तमान में 18 किलोमीटर है। गंगोत्री यात्रा के बाद केदारनाथ यात्रा का विधान है जो गंगोत्री से लगभग 343 किलोमीटर दूरी पर जनपद रुद्रप्रयाग में स्थित है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है।
तुंगनाथ
तुंगनाथ मंदिर विश्व का सर्वाधिक ऊंचा शिव मंदिर है, यह समुद्र तल से 3680 मीटर की ऊँचाई पर है। उखीमठ तथा गोपेश्वर दोनों से ही लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चोपता (मिनी स्विट्जरलैंड) से मंदिर के लिए लगभग 3.5 किलोमीटर का पैदल मार्ग आरंभ होता है। तुंगनाथ में भगवान शिवजी की भुजाओं की पूजा होती है।
रुद्रनाथ
रुद्रनाथ मंदिर समुद्र तल से २२८६ मीटर की ऊंचाई पर है। यहां के लिए सागर नामक स्थान से मंदिर तक लगभग 18 किलोमीटर का पैदल मार्ग है।
मध्यमहेश्वर
मध्यमहेश्वर मंदिर समुद्र तल से 3850 मीटर की ऊँचाई पर है। उखीमठ से रांसी तक सड़क मार्ग है लेकिन वहां से आगे लगभग 18 किलोमीटर पैदल मार्ग है।
कल्पेश्वर
कल्पेश्वर मंदिर समुद्र तल से २२०० मीटर की ऊँचाई पर है। हेलांग नामक स्थान से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर है, जिसमें लगभग 3 किलोमीटर का पैदल मार्ग है।
संध्या छः बजे जोशीमठ पहुंचा और अल्पाहार लिया फिर चल पड़ा पहाड़ों के बीच से निकलती सर्द हवाओं और किलकारी करती नदियों के आकर्षक, मनमोहक संगीत के साथ। रात्रि नौ बजे बद्री विशाल के साम्राज्य में पहुंचा। गाड़ी से बाहर निकलते ऐसा लगा जैसे शरीर कुल्फी हो गया हो। दौड़ कर होटल पहुंचा, रात्रि भोजन किया और बिछावन पर पहुंचते ही सो गया। सुबह सुबह स्नान कर ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र पढ़ते हुए जगत के महाराज का दर्शन किया। और दर्शन के बाद गर्म कुंड का दर्शन किया। भव्य दर्शन के बाद निकल पड़ा भारत के अंतिम गांव माना गांव के तरफ जहां व्यास गुफा, गणेश गुफा है, कहा जाता है कि यहीं पर वेद व्यास जी महाराज द्वारा महाभारत की कथा गणेश भगवान को सुनाकर लिपिबद्ध कराई गई थी। गुफा में पांच मिनट बैठ कर आत्मा व्यास जी से मिलन किया। फिर सरस्वती नदी का उद्गम स्थान को देखा और देखा पांडवों की मूर्ति को। सबसे आगे स्वान उसके पीछे क्रमशः युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी।
आनंद और उल्लास से भरे हुए मन ने मुझे स्थिर न रहने दिया। जिस मंजिल पर पहुंच कर दूसरों की यात्रा खत्म होती है वहीं से मेरी यात्रा फिर शुरू हुई। मुझे जाना है उसी राह पर जिसे महाप्रस्थान की राह कहते हैं। बर्फ से ढके रास्ते से मै आगे बढ़ चला, नीचे बहा चला जा रहा है पिघली हुई बर्फ का प्रवाह। बहुत आगे बढ़ जाने पर वसुधारा का मनोरम दृश्य दिखाई पड़ता है। किंवदंती है कि वसुधरा की जलधारा उसी व्यक्ति पर पड़ती है जो निश्चल, निष्कपट, सहृदय और अवतार हो, उफ्फ इन सबों में से मै कोई भी न था। गजब का अनुभव। मैने ईश्वर को साक्षी मान कर प्रण किया कि जितनी जीवन बची हुई है "हे ईश्वर प्रयास करूंगा कि मेरे कृत्य से किसी का मन दुखी न हो, ईश्वर ने जो दिया उसी में संतुष्ट रहूंगा, भगवान की आराधना में बची खुची जिंदगी समर्पित करूंगा, ईमानदार रहूंगा और प्रयास करूंगा कि एकांत ही रहूं।"
अब उसी रास्ते वापसी, भरी आंख और ईश्वर से क्षमा मांगते हुए की शायद मैं आपका कृपा पत्र ही था कि इस स्थान तक पहुंच पाया वरना आपका दर्शन तो बिरले को ही मिलता है।
और जो इच्छा मन में थी वो एक बार फिर से मांगा और नमन किया कि
"एक बार और आऊंगा तेरे दरबार में मन्नत मांगने,
या तो जो मांगा है दे देना नहीं तो मुझे मिटा देना"
— आपको यह ब्लॉग पोस्ट भी प्रेरक लग सकता है।
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