प्राण वायु के ही प्राण संकट में

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ब्लॉग प्रेषक: अभिषेक कुमार
पद/पेशा: साहित्यकार, सामुदाय सेवी व प्रकृति प्रेमी, ब्लॉक मिशन प्रबंधक UP Gov.
प्रेषण दिनांक: 20-06-2022
उम्र: 32
पता: आजमगढ़, उत्तर प्रदेश
मोबाइल नंबर: +919472351693

प्राण वायु के ही प्राण संकट में

प्राण वायु के ही प्राण संकट में

     शहर में गर्मी बहुत भीषण हो रही थी, चिप-चिपी गर्मी तन-बदन को पसीने से तरबदर कर रहे थें। पंखे की गर्म हवा सुहाती नहीं तथा कूलर का प्रभाव तो कब का फेल हो चुके थें उनकी हवावों में ठंढक का एहसास नहीं हो रहा था बस घुटन ही घुटन चारो तरफ व्याप्त था। AC सब जगह कहा संभव है, भीषण गर्मी ने दैनिक जीविकोपार्जन के कार्यो में दखल दे रहा था। सहर के लोग गर्मी से परेशान थें और वह बार-बार यही खबर जानना चाह रहे थें की मानसून कब दस्तक देने वाला है..! भारत में छः प्रकार के ऋतुओं होने का वर्णन है पर गर्मी का समय सीमा तो बढ़ता ही चला जा रहा है यहाँ मार्च माह आखरी से सितंबर माह आखरी तक कमोवेश गर्मी रहती है एवं इस दरमियाँ पंखे, कूलर AC की आवश्यकता होती है।

     मुझे लगा कि इन शहरों में कंक्रीट के जंगल होने के कारण एक दूसरे पक्की दिवालो में सूर्य के तपन होने के कारण गर्मी अत्यधिक हो सकती है। इधर कुछ दिनों से माँ की याद बहुत आ रही थी मुझे लगा कि चलो चलें ग्राम दर्शन की ओर चलते हैं वहां माँ के हाँथो के प्यार की ठंढक मिलेगी और खुले वातावरण होने के कारण गर्मी से निजात भी मिलेगा। मैं झट-पट बैग पैक किया और निकल पड़ा अपने गाँव की सोंधी मिट्टी की ओर...

    ग्रामीण इलाके में भी गर्मी का वही मंजर था जैसे शहर में था। ग्रामीण समुदाय भी गर्मी से बड़ा परेशान थें और वे मुझे देख कर पूछने लगे तुम शहर से आये हो हम सब को बताओ कि गर्मी से कब निजात मिलेगी..? कब मानसून आएगा..? कब से बरसात होने वाली है..? धरती जल रही है, जल के कोई उचित सार्वजनिक स्रोत न होने के कारण भारी संख्या में पक्षी एवं जीव-जंतु मर रहे हैं। धरती का जलस्तर भी पहले के अपेक्षा नीचे चला गया है, ग्रमीण इलाके के अधिकांश चापाकल सुख चुके हैं जिनका समरसेबल का बोर है पानी की उपलब्धता फिलहाल उनके घर ही उपलब्ध है। तभी हमने कुछ ट्रैक्टरो पर पीपल बरगद के कटे पेड़ जाते देखा। हमने ग्रमीण समुदाय के लोगो से पूछा कि इन पीपल बरगद को असमय में काट कर इसका क्या उपयोगिता है..? ग्रामीणों ने बताया कि घर के ढलाई हेतु सेंट्रिंग उधोग में इसकी बड़े पैमाने में उपयोग किया जा रहा है तथा यह सस्ता भी पड़ता है और काट-छाट में सहूलियत होती है। पड़ताल करने के बाद हम यह निष्कर्ष पर पहुँचें की दादा परदादा के जमाने के लगाए हुए पीपल बरगद के पेड़ आज बड़े धड़ल्ले से ग्रामीण इलाकों में काट व्यापारीकरण हो रहा है। आज के पंद्रह-बीस साल पहले इन पेड़ों को कोई पूछता नहीं था तथा ग्राम के आस-पास चौक चौराहे, पगडंडियों पर देखने को मिलता था और उस पेड़ के नीचे ग्रामीण समुदाय गर्मियों में बड़े राहत सकून के श्वास लेते थें तथा पक्षियों का भी आशियाना होता था। सब कुछ अच्छा चल रहा था पर जनसंख्या में आशातीत बढ़ोतरी एवं घटते स्थानीय जीविकोपार्जन के साधन, स्थानीय औधोगिक क्रियाकलापो में नगण्यता रोजगार के अभाव में लोग स्वरोजगार की चाहत में बिना सोंचे समझे प्रकृत संसाधनों का दोहन तेजी से करने लगे हैं और उनके लिए प्रकृति प्रदत्त वस्तुएं केवल व्यापार के उत्पाद वस्तु हो गए है। यह विचार करना अति आवश्यक है कि प्राण वायु प्रदान करने वाले इन पेड़ों को मनुष्य जीवन, पर्यावरण संतुलन एवं वर्तमान भविष्य से क्या तालुक है इसका दुर्गामी परिणाम कितना भयंकर हो सकता है। क्या इन पेड़ों के मौजूदगी के बेगैर धरती पर जीवन संभव है..? कदापी नहीं...!

     प्रकृत की कितनी सुंदर व्यस्था है पीपल बरगद के पेड़ों पर निवास करने वाले पक्षी एवं आगंतुक पक्षी इनके फरों को खाते हैं और जहां-जहां उड़कर पुराने भवनों, दिवालो, कुएं, तालाब, किसी अन्य बृक्षों के खोडर आदि पर बैठकर जब बीस्ट करते हैं तो वहां बरगद पीपल के पेड़ निकल जाते हैं, चूंकि भूमि पर सीधा प्राथमिक अवस्था में पीपल के पेड़ नहीं उगते बाद में जब वे थोड़ा बड़ा होते है तो दूसरी स्थान पर लगा देने से वे तेजी से विकास करने लगते हैं। प्रकृति ने तो इन पेड़ों को स्वतः पनपा दिया यदि मनुष्य उसे किसी स्थान पर ले जाकर लगा दे तो उसमें उसी का भला है कारण की इन पीपल बरगद के पेड़ों से भारी मात्रा में ऑक्सीजन का चौबीसों घंटा उत्सर्जन होता है तथा ग्राम में इनकी प्रचुर मात्रा में उपलब्धता से वहां के वातावरण में ठंढक एवं फेंफड़ा के पसंदीदा शुद्ध प्राणवायु मिलता है। बरगद को राष्ट्रीय बृक्ष होने का गौरव प्राप्त है, वहीं पीपल को बिहार का राजकीय बृक्ष का सम्मान प्राप्त है। पीपल के पेड़ के नीचे ही गौतम बुद्ध को बुद्धत्व, ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। भारतीय सभ्यता संस्कृति एवं आध्यात्मिकता के दृष्टिकोण से पीपल बरगद के पेड़ो को अविभाज्य अंग माना जाता हैं एवं लोक साधना पूजा के एक महत्वपूर्ण केंद्र बिंदु भी। भगवान श्री कृष्ण ने गीता के 10 वें अध्याय में कहे है... मैं वृक्षों में पीपल का वृक्ष हूँ। महिलाएं बड़ी श्रद्धा भाव से इन पीपल, बरगद को देवता समझ पूजा-अर्चना कर मन्नत के धागे बांधती हैं। ये वृक्ष इस लिए पूज्यनीय है की इनकी महिमा अपरम्पार है। पक्षियों का आश्रय, मनुष्यों के लिए तृप्तिदायक छाया, प्राण वायु ऑक्सीजन के साथ-साथ इनके जड़, फल,फूल तने पत्तियों कई असाध्य बीमारियों के इलाज में काम आते है। भारतीय सनातन सभ्यता संस्कृति तो प्रकृति के पूजक है इस लिए इन वृक्षो के देव तुल्य महिमा होने के कारण पूजे जाते हैं।

     आधुनिक युग में देश की पौराणिक मानवीय संस्कृति, परंपरा से बेखबर पश्चिमी सभ्यता के बहावो में बह कर बिना सोंचे समझे प्रकृत मूल्यों को दोहन कर रहे हैं। मैदानी भागों में जितना पेड़ का कटाई हो रहा उसके अनुपात में उतना पेड़ लगाये नहीं जा रहें...! एकांत जंगलो में पाए जाने वाले वृक्ष भी महफूज नहीं है दिन-प्रतिदिन उनकी अंधाधुंध कटाई हो रही है। पशु पक्षियों को भी पकड़, खरीद-बिक्री कर व्यापारिक धनार्जन में उपयोग हो रहा है जिससे प्रकृति कुपित है।

    प्रत्येक मानव यदि प्रति वर्ष मात्र दो-दो फलदार, इमारती लकड़ी या जनकल्याणकारी वृक्ष जैसे पीपल, बरगद, नीम, पाकड़ आदि को लगाए और उसको पुत्र की भांति देख-भाल कर के बड़ा करे तो निःसंदेह प्राण वायु के प्राण बच सकते हैं और इससे मनुष्य लंबे समय तक पृथ्वी पर स्वच्छ फेंफड़ा के अनुकूल श्वास लेता रहेगा। वहीं दूसरी ओर फलदार वृक्षो से फल खाकर शरीर पोषण के दृष्टिकोण से तंदुरुस्त मजबूत होगा एवं इमारती लकड़ी के पेड़ों जब स्वतः बुड्ढे होने के उपरांत सुख जाएंगें तो उनकी लकड़ियां से धनार्जन किया जा सकता हैं तथा कई पेड़ पौधो में औषधीय गुण पाया जा सकता है यदि इनके प्रयोग एवं बढ़ावा देकर एक नई रोजगारपरक जीविकोपार्जन उधोग की स्थापना की जा सकती है।

  अपने दो साल के वनवासी जीवन व्यतीत के अनुभवों को यदि साझा करू तो हमने यह महसूस किया कि जंगली पहाड़ी इलाको में मैदानी भागों के अपेक्षाकृत पेड़ अधिक होने के कारण मौसम में बड़ा संतुलन रहता है। बहुत अधिक न चिलचिलाती धूप होती है और न ही हाड़ कपा देने वाली ठंड..! मौसम हर वक़्त सुहाना एवं रंगीन होता है।     

   वर्तमान में हमने, ग्रामीण इलाकों में शहर की तरह ही गर्मी व्याप्त देखा। पिछले 32 साल के उम्र में मई-जून के माह में इस प्रकार के चिप-चिपी तपन वाली गर्मी नहीं देखा था। इस प्रकार की गर्मी का एक मात्र कारण है इलाको में पेड़ो का विरल एक्का-दुक्का संख्या और उसमें पीपल, बरगद, नीम जैसे ठंढक, तृप्तिदायक एवं प्राण वायु को भारी मात्रा में उत्सर्जन करने वाले पेड़ो का काम तमाम कर बाजारीकरण होने लगा पिछले कुछ सालों से जिसके कारण ही शरीर को दुर्गंध युक्त पसीना से तर-बदर कर देने वाली भीषण गर्मी का सामना करना पड़ रहा है।

     अभी भी वक़्त है समय रहते मानव सभ्यता को सचेत होने का नहीं तो अंजाम बड़ा ही भयानक होगा। प्रकृति अपने नाराजगी पिछले कोरोना काल में ही व्यक्त कर चुकि है... कैसे लोग प्राण वायु ऑक्सीजन के सिलेंडरों के लिए तरस रहे थें और वे ऑक्सीजन के बिना तड़प-तड़प कर मर रहे थें। यदि प्रत्येक मनुष्य वृक्ष को लगाए और उसे प्रारंभिक अवस्था तक देख-रेख कर जिलाये तो यह नौबत नहीं आएगी। प्राण है तभी तो इस वसुंधरा का आनंद है तथा प्राण का रक्षण, प्राण वायु उत्सर्जक वृक्षो से होंगे और वही वृक्ष को बिना सोंचे समझे अंधाधुंध कटाई कर रहे हैं यह तो जिस पेड पर बैठें है वही पेड़ काटने वाली बात हुई न..? इसलिए हम सभी देश के जिम्मेदार नागरिक को पेड़ लगाने है, पेड़ बचाने हैं यह प्रकृति की उच्चतम सेवा होगी।

    बिहार अरवल के पीपल नीम तुलसी अभियान के निदेशक श्री धर्मेंद्र जी प्राण वायु के जागरूकता के संदर्भ में देश में बड़ा ही अच्छा कार्य कर रहे हैं तथा जनमानस के मानसिक मनोवृति बदलाव लाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं, इनसे जुड़ने एवं प्रकृति सेवा में योगदान देने की आवश्यकता है। 

    मेरे द्वारा स्वरचित पुस्तक "जंगल की चीख पुकार", "सहनशील नदियाँ" एवं "कीट पतंगों के मौलिक अधिकार" रचनाओं में पर्यावरण अहमियत मूल्यों को समझने में मदतगार साबित होगी जिसे दिव्य प्रेरक कहानियाँ के वेबसाइट www.dpkavishek.in पर देखा जा सकता है।


अभिषेक कुमार

अंतर्राष्ट्रीय समाज सेवा अवार्ड, विश्व संत कबीर अवार्ड एवं भारत साहित्य रत्न से सम्मनित

जयहिंद तेंदुआ, औरंगाबाद, बिहार

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