ब्लॉग प्रेषक: | हरजीत सिंह मेहरा |
पद/पेशा: | ऑटो चालक.. |
प्रेषण दिनांक: | 04-07-2022 |
उम्र: | 53 वर्ष |
पता: | मकान नंबर 179,ज्योति मॉडल स्कूल वाली गली,गगनदीप कॉलोनी,भट्टियां वेट,लुधियाना, पंजाब,भारत।पिन नंबर- 141008. |
मोबाइल नंबर: | 8528996698. |
भेदभाव.. एक मानसिक रूग्णता..
मां शारदे नमो नमः!
नमन साहित्य मंच..
दिनांक-18/6/2022.
विधा-कहानी!
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भेद भाव..एक मानसिक रुग्नता...
भाग-१.
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_शाम के 7:00 बजे ऑफिस से घर लौट रहा था की, "चित्रालय चौंक"पर सत्येंद्र शर्मा (मेरा पत्रकार दोस्त) से मुलाकात हो गई।_
_"अरे जीते रुक रुक"..(जीते मेरा घरेलू नाम है) मैं तुझे ही ढूंढ रहा था!"-उसने कहा_
_"मुझे ढूंढ रहा था..? क्या तेरा मोबाइल गुम हो गया..मुझे कॉल नहीं कर सकता था.!"मैं जरा अटपटे ढंग से पेश आया।_
_एक तो गर्मी का मौसम.. ऊपर से सारे दिन के काम की थकान और घर में पत्नी के मायके जाने से,भोजन बनाने का तनाव!पहले से ही मैं भन्नाया हुआ था कि,यह मिल गया। है तो मेरा जिगरी दोस्त,पर बड़ा बातूनी है। पर..बड़ा प्यारा है।_
_"अरे सुन..चल मेरे साथ, यहां "कुमारमंगलम पार्क"में थोड़ा बैठ कर बातें करते हैं,फिर चलते हैं "--उसने अनुरोध किया।_
_"पागल हो गया है बे.. सुबह से निकला हुआ हूं,थका हुआ हूं,ऊपर से तेरी भाभी भी नहीं है !खाना पकाने की टेंशन है, और तू कहता है..तुझसे बातों का इश्क़ लड़ाऊं?"-मैं खीज कर बोला --"जाने दे मुझे,मैं परेशान हूं.."_
_"अरे सुन तो...अच्छा चल,मैं तेरे घर चलता हूं।तू फ्रेश हो जाना,फिर बातें करेंगे..ठीक है"--उसने सलाह दी_
_"अच्छा..तो तू मानेगा नहीं " मैंने अपना मोटरसाइकिल खड़ा किया और कहा --"चल,क्या बात है..जो बात करनी हो,अभी कर ले..बता।"_
_"नहीं यार,ऐसे नहीं..मज़ा नहीं आएगा।तू घर चलके तरोताजा हो जा,फिर बात करते हैं "-उसने कहा -"इतना समझ, बात तेरे फायदे की है..।"_
_"पक्का ना.."-मैंने कहा- "अगर घर जाकर,मेरा भेजा पकाया,तो साले...तेरी टांग तोड़ दूंगा समझा.।"_
_"अच्छा चल.."उसने अपनी बाइक चालू कर ली।_
_मैंने भी अपनी मोटरसाइकिल चालू की और अपने घर की ओर चल पड़े।_
_"मेरा घर "चित्रालय चौंक"से दो किलोमीटर दूर "अमरावती के अरविंदो पल्ली"में है। हम दोनों बाइकों पर घर पहुंचे और दरवाजे का ताला खोल घर में प्रवेश हुए।_
_प्रवेश करते ही हम दोनों,सोफे पर पसर गए।मैंने कूलर का बटन दबाकर उसे चलाया,तो,ठंडी हवा से तन को सुकून मिला।चंद पल आराम करके मैंने पूछा--_
_"बता क्या बात है..जो तू इतना उतावला हो रहा है.."_
_"बताता हूं यार..तू पहले फ्रेश तो हो ले"-उसने मुस्कुरा के कहा_
_"देख सत्तू..अगर तू मज़ाक कर रहा है..तो मैं मज़ाक के मूड में नहीं हूं ।साफ-साफ बता,बात क्या है.."- मैंने खीज कर कहा।_
_(सत्येंद्र को प्यार से मैं सत्तू कहता हूं)_
_"पहले तू फ्रेश हो रे बाबा..बात तेरे फायदे की है और तुझे ख़ुशी भी होगी.."-- उसने कहा_
_"अच्छा देखता हूं.."-- कहकर मैं भन्नाते हुए गुसलखाना मैं चला गया।_
_दोस्त होते बड़े निराले हैं। कभी तो खुली किताब बन जाते हैं,तो कभी अनसुलझी पहेली बन जाते हैं !कभी तंग दिल..तो कभी जिंदादिल बन जाते हैं !पर,साले होते बड़े प्यारे हैं।स्कूल में साथ पढ़े,सारे दोस्तों की याद एक झटके में आ जाती है ।मैं भी उन्हीं पलों को याद कर नित्य कर्म व स्नान कर निवृत हुआ और टावल लपेटकर सत्तू के समक्ष बैठ गया।_
कहानी...
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भेद भाव..एक मानसिक रुग्णता...
भाग-२.
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_मैं अब काफी राहत अनुभव कर रहा था।उसे शांत बैठा देख,मैं अनायास ही मुस्कुरा उठा और बाईं आंख दबा दी.._
_"साले.. बाज नहीं आएगा तू"- सत्येंद्र हंसते हुए बोला "हमेशा तंग करता है..।"फिर कलाई पर बांधी घड़ी देखकर बुला -"फटाफट तैयार हो जा,हमें निकलना होगा.."_
_"कहां..!"-मैंने आश्चर्य से पूछा--"अब ये क्या नई नौटंकी है भाई..कहां चलना है.!"_
_"तू सवाल बहुत करता है, तुझे जहन्नुम में नहीं ले जाऊंगा.. और अगर जाऊंगा तो मैं भी साथ ही रहूंगा ना।"सत्तू अब कुछ तीव्र था।_
उसका लहजा इतना प्रभावशाली था कि,मैं निशब्द उठा और तैयार होने लगा।दस मिनट में मैं तैयार हो गया।
_"चल.." कहकर उसने ख़ुद ही कूलर व बत्ती का बटन बंद कर,हाथ में ताला पकड़..लगभग ढकेलते हुए मुझे घर से बाहर ले गया।दरवाजे को ताला लगा चाबी मुझे देते हुए कहा-- "अपनी बाइक यहीं बरामदे में खड़ी रहने दे.. हम दोनों मेरी मोटरसाइकिल पर चलेंगे।"_
_अब मेरी बर्दाश्त,आपे से बाहर थी।मैं उसकी खड़ी बाइक पर बैठ,बोला--"पहले बता..बात क्या है और जाना कहां है..नहीं तो मैं यहां से हिलूंगा भी नहीं।"_
_सत्येंद्र अपलक मुझे देखता रहा और फिर धीरे से कंधे पर हाथ रख मुस्कुराते हुए बोला--"अरे पागल..आज मेरी शादी की सालगिरह है..और मैं तुम्हें "ट्रीट"देना चाहता हूं!हम आज बाहर खाने को चल रहे हैं।"_
_मैं उछल कर खड़ा हो गया और उसकी ओर देखते हुए कहा--"बस क्या यार..मामू बनाने को क्या मैं हीं मिला। साले तेरी सालगिरह होती,तो तू घर पर ना बुलाता.? और बिना भाभी के, बिना अनुष्ठान के कैसी सालगिरह!"_
_"अरे सुन..सुन जीते, हमने घर पर कोई कार्यक्रम नहीं किया ; क्योंकि,तुम्हारी भाभी को आज ही हैदराबाद निकलना था ।वहां बेटी की उच्च शिक्षा हेतु,इंस्टिट्यूट में दाखिला दिलाना था।उसकी आज बारह बजे की हवाई यात्रा थी।तो सुबह छः बजे ही हमने केक काटा,जिसमें हम परिवार वाले ही थे! फिर कोलकाता दमदम हवाई अड्डे के लिए रेल यात्रा कर,तुम्हारी भाभी को रुखसत कर वापस आया हूं यार.. इसी चक्कर में तुझे फोन भी नहीं कर सका था।और तुझे पता ही है, घर में मां -बाबूजी का स्वास्थ्य ढीला रहता है,तो घर में जलसा करना उचित न समझा।इसलिए घर से मैं जल्दी फ्रेश होकर तेरे पास ही आ रहा था,कि,तू मिल गया ।अब जल्दी कर..नौ बज गए हैं चल..।"_
मैं उसकी ओर देखता रह गया। यह शख्स..सुबह से लेकर शाम तक सिर्फ मुझे ट्रीट देने के लिए, इतनी जद्दोजहद करता है, और मैं अपने स्वभाव में मधुरता लाए बिना उस पर खीजता हूं.. मुझे ख़ुद पर ग्लानी होने लगी।दिल पसीजने लगा,भावुक होकर मैंने उसे गले से लगा लिया..धन्य होते हैं दोस्त...।
_"हरजीत,आज ख़ुशी का दिन_ _है..रुलाना मत मुझे भाई.."_ _उसने भी मुझे सीने से भिंचा और कहा --"चल ना अब..।"_
हम दोनों मोटरसाइकिल पर सवार होकर "बेनाचिटी"की ओर चल पड़े। "बेनाचिटी" दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) का सबसे बड़ा एवं पोश बाज़ार है।आधुनिक चकाचौंध से परिपूर्ण,इस मार्केट में हर सुख सुविधा के संसाधन उपलब्ध हैं।
सतेंद्र ने बाइक एक तीन सितारा होटल के प्रांगण में खड़ी की।मैंने उतरकर इधर उधर नजरें दौड़ाई..तो होटल के बगल में एक फूलों की दुकान नजर आई।मैं उस ओर बढ़ने लगा तो सत्तू ने आवाज दी--
_"कहां जा रहा है यार..हमें इधर अंदर जाना है!"_
_"अरे दोस्त,इतनी जल्दी में_ _तुमने"ट्रीट"दी की, बधाई देने_ _को उपहार न ले सका! तो_ _सोचा फूलों के गुलदस्ते से स्वागत_ _करूं तेरा..वही लेने जा_ _रहा हूं भाई.."-_ मैंने कहा।
_"वाह दोस्त,मैंने तुझे इतने अच्छे होटल में ट्रीट देने को सोचा और तू फूलों के गुलदस्ते से काम चला रहा है!_ उसने व्यंग कसा-- _"लौट आ.. मैंने क्या तोहफ़ा लेना है,मैं ख़ुद मांग लूंगा। अब चल अंदर.."_
हम होटल के अंदर चल पड़े। होटल काफ़ी बड़ा और सुसज्जित था।काफ़ी रौनक भी थी,सारी मेंजें भरी हुई थीं।सतेंद्र ने एक खाली पड़ी टेबल की ओर इशारा किया-- _"उस ओर.."_
टेबल पर "आरक्षित" की फट्टी रखी हुई थी।तुरंत एक बैरा आया और सतेंद्र को सलाम कर, फट्टी उठा के चला गया।मैं अब समझा,वो टेबल सतेंद्र ने आरक्षित करवाई थी।
हम टेबल पर बैठ गए। सत्येंद्र ने भोजन तालिका मेरी ओर सरका दी और अपनी पसंद का भोजन चुनने को कहा।
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भेद भाव..एक मानसिक_ _रुग्णता...
भाग-३.
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_"नहीं यार..आज तेरी ओर से दावत है,तो आज खाना भी तेरी पसंद का खाएंगे.."--मैंने कहा।_
_"ठीक है.."_ कहकर उसने वेटर को इशारे से बुलाया और भोजन लाने का आदेश दिया।
कुछ देर बाद बैरा टेबल पर भोजन परोस गया।होटल में संगीत की धीमी धीमी धुन बज रही थी,हम दोनों भोजन का आनंद लेने लगे।
वहीं पास की टेबल पर, एक बंगाली दंपति भी भोजन करने आई थी।पति पत्नी और दो लड़कियां थीं।बहुत रसूख वाले लग रहे थे,परंतु दोनों लड़कियों की वेशभूषा में काफी फर्क था। एक तो जैसे राजकुमारी लग रही थी..लेकिन दूसरी लड़की का लिबास साधारण सा था।वह दिखने में नौकरानी लग रही थी। मामला कुछ समझ ना आया...
बहरहाल,हम दोनों भोजन ग्रहण करने में लीन थे,परंतु दिल में कौतूहल जरूर था और कुछ देर बाद उस कौतूहल का जवाब भी मिल गया।
हुआ यूं के,जैसे ही उस बंगाली पुरुष के पास बैरा ऑर्डर पूछने आया,तो महाशय ने सूची के हिसाब से चयनित भोजन का ब्यौरा देकर,चार स्थानों पर भोजन परोसने को कहा.. परंतु उसी समय उनकी पत्नी लगभग चीखते हुए पति की ओर मुखातिब होकर बांग्ला में कहने लगी--
_"एई सुनो...तुमि की ओसोभोता कोरछो.. छी:छी: घोरेर झी: के साथे बोसिए खाओआबे ना कि! दूर कोरो एखान थेके एके.."_
(ऐ सुनो..यह तुम क्या अनर्थ कर रहे हो..छी:छी: एक घर का काम करने वाली नौकरानी को साथ बैठा कर खाना खिलाओगे! इसे दूर हटाओ यहां से..)
क्योंकि हम पश्चिम बंगाल के ही रहने वाले हैं,इसलिए बंगाली भाषा का संपूर्ण ज्ञान है।
महाशय ने सकपका कर इधर-उधर देखा और क्रमशः धीमी आवाज में कहा--
_"आस्ते बोलो गिन्नी.._ (धीरे बोलो भाग्यवान..) _जरा जगह -माहौल का तो ख्याल करो.."_ दाएं बाएं देखा फिर कहा- _"हर जगह तुम अपने घर जैसा आधिपत्य बना लेती हो।और वैसे भी अगर साथ बैठाना नहीं था..तो उसको साथ क्यों लाई..?"_
अब पत्नी तनिक धीरे से बोली परंतु फिर भी सब सुनाई पड़ा--
_"वो तो इसलिए क्योंकि,मैं एक नौकर के सहारे अपना घर नहीं छोड़ सकती थी.."_
अब हम दोनों की समझ में मामला आया। मैं और सत्तू ने एक दूसरे की और देखा..फिर ध्यान खाना खाने में लगा दिया। परंतु,दिल नहीं माना तो फिर कनखियों से उनकी हरकतें देखने लगे..
महाशय ने इर्द-गिर्द झांका,तो दूर एक कोने में एक टेबल को खाली पाया।उस पर अभी भी जूठे बर्तन पड़े हुए थे।शायद अभी अभी वह मेंज खाली हुई थी।
महाशय उठे..उस लड़की का हाथ थामा और उसे उस मेंज की साथ वाली कुर्सी पर बैठा दिया और कहा--
_"तुम यहीं बैठो..तुम्हारा खाना बाद में भेज दूंगा,तब खा लेना..।"_
_"आच्छा काकू साहेब.."_ वो लड़की बोली।
("काकू" का मतलब"चाचा" होता है बांग्ला में)
उसे बैठा कर वापस आकर,उसी वेटर को इशारे से पास बुलाया और कुछ निर्देश दिए।बैरा चला गया। हम फिर शांत होकर संगीत की धुन में जीमने लगे।
मैं मन ही मन सोच रहा था, कितना गलत सोचा था इन लोगों के बारे में,कि..कितने अच्छे लोग हैं,ऊंच-नीच,अमीरी गरीबी का भेदभाव ना करके,अपनी दासी को साथ लेकर आए हैं।पर,यह तो "ऊंचा मकान..फीका पकवान" वाली कहावत चरितार्थ हो गई..
मैंने दीर्घ स्वास छोड़ी और नकारात्मक भाव से अपने सर को इधर-उधर झटका।
तभी बैरा उनके टेबल पर भोजन परोसने लगा।वाह..काफ़ी महंगा खाना चयनित किया था दंपत्ति ने।चलो अच्छा है,बेचारी उस गरीब को एक दिन का ही सही,अच्छे खाने का जायका तो मिलेगा।दूर बैठ कर भी थोड़ा आनंद तो उठा ही लेगी बेचारी!
दंपति ने भोजन करना चालू कर दिया।आधा भोजन समाप्त होने तक,उस गरीब लड़की का खाना ना पहुंचा था।वह बेचारी अजनबीयों की तरह टकटकी बांधे देखती रही,कि,शायद अब आएगा मेरा खाना..अब आएगा मेरा खाना..पर,भोजन ना आया! कितने अरमानों से आई होगी यहां,शायद उस गरीब ने पहले ही अपने मालिक की लंबी उम्र के लिए रब से दुआ मांग ली होगी। पर,उसे प्रार्थना का फल अभी तक ना मिला था। वो पहलू बदल बदल कर,अपने उंगली के नाखूनों को दांतो से चबाने लगी..
उसकी मासूमियत..बेचैनी.. मुफलिसी देखकर,मेरा दिल पसीज उठा और महसूस किया कि मेरी आंखें नम हो रही हैं।मैंने झटपट अपने जज्बातों को नियंत्रित किया और सिर झुका कर भोजन करने लगा,जो लगभग समाप्त हो चला था।मैंने सत्येंद्र की थाली की ओर देखा..वह तो भोजन कर भी चुका था!
उसने मेरी ओर देखा और मुस्कुरा कर कहा--
_"अरे जल्दी जल्दी समाप्त कर भाई,काफी देर कर दी... अच्छा तू खा मैं "आइसक्रीम" का आर्डर दे कर आता हूं.."_
मैंने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
मेरी एक नज़र उस मजलूम की ओर थी..और दूसरी भोजन समाप्ति की ओर.।
कहानी...
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भेद भाव..एक मानसिक रुग्णता...
भाग- ४.
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कुछ देर बाद सत्तू वापस आ गया। तब तक मैं भोजन से निपट चुका था।बैरा अगर झूठे बर्तन भी ले गया था और टेबल साफ कर दिया था।
बंगाली दंपत्ति भोजन पर टूटी पड़ी थी।बेचारी मासूम लड़की अब मायूस दिखने लगी थी।हम खामोश थे।तभी बैरा हमारी टेबल पर आइसक्रीम के कप रख गया। मेरी निगाह"वैनिला"के स्वाद वाली आइसक्रीम पर पड़ी.. ये मेरी पसंदीदा आइसक्रीम थी, यह मेरा दोस्त है जानता था। मैं जाग चहक गया..
अभी दोस्त का शुक्रिया अदा करने ही वाला था,कि, मेरी निगाह उस मासूम की ओर चल गई। उसके टेबल पर अब खाना परोसा जा रहा था.. मैं अचंभित होकर कभी बंगाली परिवार को तो कभी उस मासूम की ओर देख रहा था!
आखिरकार मैं बोल पड़ा--
_"यार सत्तू,इन अमीरों के चोंचले मुझे समझ नहीं आते। साला..अगर यही खाना खिलाना था,तो इतना तरसाया क्यों बेचारी को?... नौटंकीबाज।_
_"तुझे क्या लेना देना है इन सब से...तू "हिमक्रीम" का मज़ा ले"_ सत्येंद्र शांत स्वभाव से बोला।
"हिम क्रीम"का शब्द सुनते ही,मेरी हंसी छूट गई..सत्तू भी हंसने लगा।
आइसक्रीम खाते हुए नज़र जब दंपत्ति पर पड़ी,तो पाया.. पति पत्नी आपस में बहस कर रहे हैं और उनका इशारा,अपनी दासी की ओर था। कुछ पल बाद.. दनदनाते हुए अपने भोजन की थाली छोड़ महाशय उठे और उस लड़की की टेबल की ओर लपक पड़े।
उस मासूम ने अभी निवाला थोड़ा ही था कि,महाशय ने उसका हाथ थाम लिया और चिल्ला कर बोले--
_"कहां से आया तेरे पास ये खाना... 'ऐर पोएसा की तोर बाबा देबे.?'_ (इसके पैसे क्या तेरा बाप देगा.?) _"ताड़ा ताड़ी बोल,के दिएचे,ऐ खाबार टा.."_ (जल्दी बोलो,ये खाना तुझे किसने दिया..)
_"जानी ना..(नहीं पता)_ फिर एक बैरे की ओर इशारा करके कहा-- _"ओई काकू दिए गेछे.."_ (उस अंकल ने दिया है..)
गुस्से से लाल पीला होते हुए, महाशय ने उस वेटर को पास बुलाया और प्रश्न दागा--
_"किस की इजाज़त से यह खाना परोसा गया..इस का बिल कौन देगा।मैंने इसका ऑर्डर रद्द कर दिया था..!"_
बैरा मुस्कुराते हुए,शांतचित से बोला--
_"आप शांत हो जाएं आदरणीय.. इस का बिल आप से नहीं लिया जाएगा।"_
_"नहीं लिया जाएगा.!"_ आश्चर्यचकित होकर,नथुनी फुला कर वो बोले-- _"तो इसका पेमेंट कौन करेगा.?!"_
बैरे ने जिस ओर इशारा किया,देख कर मैं कुर्सी से उछल पड़ा।उसका इशारा सत्येंद्र की ओर था,जो शांति से बैठे आइसक्रीम के मज़े ले रहा था।
महाशय तेज़ कदमों से हमारी ओर बढ़ा और आते ही सत्तू से पूछा-- _"ओ बाबू मोशाय,तुम कौन होते हो इसे खाना खिलाने वाले। ये हमारे साथ आई है..'ऐर भालो -मोंदो आमरा बुझबो..तुमी के!"_ (इसका अच्छा बुरा हम समझेंगे..तुम कौन!)
सत्येंद्र में बैठे-बैठे ही,नज़र उठाकर कहा--
_"मैं इंसान हूं.. इंसानियत निभाई है। मुझे नहीं लगता इंसानियत निभाने के लिए,किसी की आज्ञा की ज़रूरत है!"_ आसपास जमा हो गए लोगों की ओर देखकर सत्तू में पूछा-- _"क्यों भाई क्या मैं गलत हूं..?"_
सबने नहीं में सिर हिलाए।
इस प्रतिक्रिया से महाशय निशब्द हो गए। गुस्से के कस बल ढीले पड़ गए।सर झुका कर मुड़कर जाने लगे,तो सत्येंद्र ने आवाज लगाई--
_"दादा..ए दीके आसून"_ (दादा..इधर आइए) कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा- _"बोसून.."_ (बैठीए..) महाशय हिचकी चाहते हुए बैठ गए तो सत्तू ने कहा- _"दादा..आप एक कुलीन घराने के लगते हैं.. है ना!"_
_"जी हां दादा..'आमी ब्राह्मोण.. आमार नाम दीनदयाल चट्टोपाध्याय'.."_ (मैं ब्राह्मण हूं मेरा नाम दीनदयाल चट्टोपाध्याय है) बड़ी शान से उसने अपना परिचय दिया।
_"बहुत सुंदर.."_ सतेंद्र बोला- _"मैंने सुना है,आपके समाज में संस्कारों और प्रथाओं को बड़ी शालीनता से जिया जाता है.!"_
_"जी दादा.."_ उन्होंने कहा- _"हम हर चीज को बड़े पाक पवित्र रखते हैं।सुबह बिना नहाए,बिना पूजा-पाठ किए,हम दिन की शुरुआत नहीं करते।दिन भर में जितनी बार भी नित्य कर्म करते हैं,उतनी बार स्नान करते हैं।किसी शुद्र या नीच जात के हाथ का पानी नहीं पीते.।"_ बड़े गर्व से बखान किया।
_"अच्छा..! बहुत बढ़िया.._ सत्येंद्र ने कहा,फिर उस लड़की की ओर इशारा किया और पूछा- _"ये लड़की आपके घर में काम करती है और शायद आप लोगों के साथ ही रहती है..है ना.."_
कहानी...
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भाग- ५.
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_"हां दादा.. यह लड़की मेरे 'ससुर बाड़ी'_ (ससुराल) _से मेरी सासूड़ी_ (सासू मां) _ने भेजा है गांव से..तो यहां,कहां रहेगी! इसलिए हम साथ में ही रखते हैं.."_ उन्होंने कहा।
_"ओ..अच्छा"_ सत्येंद्र बोला- _"तो घर का क्या क्या काम करती है.?"_
_"सोब काज.."_ (सारा काम) _"रान्ना बाड़ी,झांटा देओवा, कापोड़ कांछा,बासोंन मांजा, सोब.."_ (रसोई,झाड़ू पोछा,कपड़े, बर्तन करना,सब कुछ..) उसने कहा।
_"अच्छा दादा.. तब तो आपको इसकी जात बिरादरी का ज्ञान होगा.. है ना!"_ सत्तू ने पूछा।
सर खुजाते हुए महाशय ने कहा- _"जानी ना.._ (पता नहीं) फिर धीरे से कहा- _"दास- दासियों की जात,कौन पूछता है, और वैसे भी आजकल नौकर मिलते कहां है.."_ वो खिसीयानी सी हंसी हंसा।
_"ओह,अच्छा.. बड़े उच्च विचार हैं आपके।"_ फिर सत्येंद्र थोड़ा सा संजीदा होकर बोला- _"महाशय,ये मासूम जो अभी नाबालिग है,आपके घर का सारा काम करती है, आपका खाना- पानी,सफाई,धुलाई,सब यह अपने हाथों से करती है..उस वक्त क्या इसके सानिध्य या इसके अछूत होने का ख़्याल नहीं आता? आज यहां आकर आपको एहसास हो रहा है,की,लोग क्या कहेंगे..की एक घर की नौकरानी को साथ बैठाकर खाना खा रहे हो..; चलो माना,उसे अपने से दूर बैठाया,पर उसे खाने से वंचित क्यों रखा? उसके भोजन का, ऑर्डर तक रद्द करवा दिया..! जो आपको रोज,आपकी रसोई बना कर..आपका पेट भरती है,आज उसी को भूखा रख दिया?!ज़रा देखिए उस निरीह की तरफ,मुंह से कुछ ना कहते हुए भी,सारे भाव चेहरे पर दिख रहे हैं।कितने अरमान लेकर आई होगी शायद, सोचा होगा..ज़िंदगी का कम से कम एक दिन,रईसों जैसा खाना पीना और चकाचौंध का मज़ा ले सकती है!परंतु..छी:,आपने उसका दिल तोड़ दिया.।"_ सत्येंद्र आवेश में बोल रहा था- _"साहब.. मैं एक पत्रकार हूं..चाहूं तो अभी के अभी "बाल श्रम शोषण" के इल्ज़ाम में,आपको अंदर कर सकता हूं!लेकिन,मैं ऐसा नहीं करूंगा ।क्योंकि,मेरा मक़सद सज़ा दिलवाना नहीं..अपितु ऐसे गरीब श्रमजीवी असहाय व्यक्तियों के प्रति सबके दिलों में मोहब्बत जगाना है।"_ थोड़ा रुक कर,सत्येंद्र फिर बोला- _"मत कीजिए ऐसा ढोंग.. उन पुराने प्रपंचों से ख़ुद को निकालिए। खोखले संस्कारों का दिखावा मत कीजिए..इंसान को इंसान की तरह प्यार कीजिए। सबको समानता का दर्जा दीजिए। आपको ईश्वर ने इतना सामर्थ वान बनाया है..धन- दौलत, शोहरत से बख्शा है!क्या फ़र्क पड़ जाएगा,अगर आपके अन्न के भंडार से चंद दाने,ये भी चुग लेगी!कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा,अगर आप इसे गले लगाएंगे तो!"_ कहते हुए सत्तू चुप हो गया।
मैं अपने दोस्त के चेहरे को निहार रहा था।मैंने महसूस किया उसकी आंखों में अश्रु जल झलक रहे थे।तब तक बंगाली परिवार भी पास आकर खड़ा हो गया था।
महाशय ने सिर झुकाया हुआ था।उनके होंठ कांप रहे थे,किसी से आंख भी नहीं मिला रहे थे।वह चुपचाप उठे,भारी कदमों से उस मासूम की ओर बढ़े और रुक कर उसके सिर पर हाथ फिराया,और अप्रत्यक्क्षीत रूप से झुके और उसका ललाट चूंम लिया।उसकी कलाई पकड़ी और साथ लेकर हमारे पास आकर,हाथ जोड़कर बोले-
_"दादा..खोमा कोरबेन,_ (क्षमा करें) _आज हमारे आंखों से बड़प्पन का पर्दा उठ चुका है। मैं अपनी शोहरत से अहंकारीत हो चुका था..पर ,अब मैं समझ गया हूं..._ फिर थोड़ी ऊंची आवाज में बोला- _आज से इस लड़की की जिम्मेदारी,मैं उठाता हूं।इसके भरण पोषण से लेकर, इसकी शादी तक मैं करवाऊंगा। समझ लो आज से यह मेरी दूसरी बेटी है।"_ कहते कहते उसका गला रूंध गया था।
इन सब बखेड़े को देखकर, होटल का मैनेजर भी दौड़ा दौड़ा आया- _"क्या हुआ..क्या हुआ!"_ फिर बाबूमोशाय पर नज़र पड़ते ही ठिठका..और बोला- _"अरे दीनदयाल सर 'की होलो.. के की बोललो.?'_ (क्या हुआ.. किसने क्या कहा..?)
_"अरे कुछ नहीं.. सब ठीक है।"_ वह बोले- _"अरे सुनो.. इस लड़की के खाने का बिल भी मेरे अकाउंट में जोड़ देना।"_
_"नहीं..."_ अचानक सत्येंद्र बोलो उठा- _"आज इस का बिल मैं दूंगा।आइंदा से आप इस लड़की का ख़्याल रखना। बल्कि मैं सब से अपील करता हूं, एक दीनदयाल साहब के सुधरने से कुछ नहीं होगा।हम सब समाज के ठेकेदारों को सुधारना पड़ेगा। अगर हम इन जैसे मजलूमों को, बराबरी का सम्मान नहीं दे सकते, तो कम से कम इंसानियत तो दिखा सकते हैं ना!इनके साथ जानवरों जैसा नहीं..इंसानों जैसा व्यवहार करें ।इनकी सहायता करें,मजबूरी का फायदा ना लें.."_ फिर महाशय से मुखातिब हो कर कहा- _"मैं खुश हूं जनाब,आपने सही फैसला लिया है.."_ फिर अपनी जेब से "परिचय कार्ड" निकाल कर उन्हें थमाते हुए कहा- _"ये मेरा कार्ड है रखिए। किसी भी चीज की जरूरत हो तो फोन कीजिएगा..मैं हाज़िर हो जाऊंगा.! धन्यवाद!"_
सत्येंद्र ने मुस्कुराकर उस मासूम के सिर पर हाथ फेरा..और अभिवादन कर,मुझे चलने का इशारा किया।
कहानी...
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भाग- ६.
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हम दोनों काउंटर टेबल पर आए। मैं अभी भी हतप्रभ था, मेरा इतना प्रसन्न चित्त दोस्त..आज इतना संजीदा कैसे हो गया!उसकी वाणी में कितना वज़न था।मैं अपने आप को उसका दोस्त कह कर,गौरवान्वित हो रहा था।इसी अधेड़- बुन में था कि,सत्येंद्र की आवाज़ आई-
_"अरे हरजीत.. तू मुझे गिफ्ट देने वाला था..और मैंने कहा था बाद में मांग लूंगा.. है ना!"_
_"हां..हां यार,जब भी!बोल क्या चाहिए..बोल.."_ मैं उत्सुकता वश बोला..।
उसने उस लड़की के भोजन का बिल मेरी और सरका कर कहा --
_"इस बिल के पैसे चुका दे.. यही मेरा 'तोहफा 'होगा!"_
मैंने बिल हाथ में पकड़ा,और नजरें झुका कर पढ़ने लगा..पढ़ क्या रहा था...बस..अपने आंसू छुपाने की कोशिश कर रहा था..
_"क्या हुआ..पैसे तो हैं ना!_ सत्येंद्र ने तंज कसा।
मैंने झटके से अपना सिर उठाया और लपक कर सत्तू को अपने आगोश में जकड़ लिया। आंखों से आंसू की चंद बूंदे लुढ़क गईं..समझ में ना आया ये आंसू ख़ुशी के थे..या अफसोस के!
सत्येंद्र ने मुझे सीने से कसकर लगा लिया,फिर कहा..
_"अब चल..जल्दी कर,मेरा तोहफ़ा दे..तो हम निकलते हैं। घर पर मां -बाबूजी भी इंतजार कर रहे होंगे।वैसे भी रात के 10:30 बज चुके हैं!"--_ वह बोला।परंतु,उसका भी हाल मेरे जैसा ही था।
होटल की कार्यप्रणाली पूर्ण कर,चलते हुए जैसे ही मुख्य द्वार के बाहर निकले,तो, सामने उस नन्हीं मासूम को मुस्कुराते हुए खड़ी पाया!उसके पीछे,एक लंबी कार के समक्ष,दीनदयाल जी के परिवार को खड़ा देखा...
हम दोनों चलते हुए उस लड़की के पास आए,तो सतेंद्र बोला--
_"क्या हुआ.. कुछ चाहिए क्या!"_
उस नन्हीं मासूम ने,अपने पीठ पीछे मोड़कर छुपाए हाथ को सामने किया,तो उसमें पकड़े हुए गुलाब के फूल को सत्येंद्र की ओर बढ़ते हुए कहा--
_"आमार नाम..'अन्नोपूर्णा '। आमी की तोमाके.. "दादा"बोले डाकते पारी..!?!_
(मेरा नाम..अन्नपूर्णा है।क्या मैं आपको..भैया कहकर बुला सकती हूं..!?!)
सत्येंद्र कुछ ना बोला..वहीं भूमि पर अपने घुटनों के बल बैठ गया..अपलक उसके चेहरे को देखता रहा..और फिर अपने गले से लगा लिया।धीरे- धीरे उसकी पीठ पर थपकी देते हुए बोला--
_"हैं शोना,अवस्सोइ..आज थेके तुमी आमार "बोन"..आमार फोन नाम्बार,तोमार बाबूर काछे दिएची।तुमी आमाए कखोनो कोल कोरते पारो..ठीक आछे..!"_
(हां शोना,अवश्य..आज से तुम मेरी बहन हो..मेरा फोन नंबर, तुम्हारे बाबू जी के पास है। तुम कभी भी मुझे कॉल कर सकती हो..ठीक है..!)
मैंने आज महसूस किया कि, मेरा चुलबुला दोस्त..रो भी सकता है!क्योंकि,उसके गाल पर आंसुओं की धारा थी।वह खुद को नियंत्रण कर रहा था..
बहुत मार्मिक दृश्य था। सत्येंद्र उठा,उसका हाथ थामकर उसे दीनदयाल जी के पास छोड़ कर कहा--
_"इसका ध्यान रखना.. महाशय!"_
सत्येंद्र मुड़कर आने लगा,तो दीनदयाल ने आवाज लगाई..
_"दादा..एकटू दांडान!"_(जरा रुकिए..दादा!) वो पास आया,और अपने पर्स से अपना परिचय कार्ड निकाल कर देते हुए कहा--
_"ये मेरा कार्ड है..रखिए! और किसी दिन हमारे घर भी आइए ना..भालो लागबे।"_ (अच्छा लगेगा)
_"जी,जरूर.."_ कहते हुए हम दोनों ने उस दंपत्ति का अभिवादन किया और मासूम को, बाय बाय करते देखते रहे।
हम अपनी मोटरसाइकिल के पास आए।सत्तू ने उसे चालू किया.. और हम ख़ामोशी से सफर करने लगे..
मेरे ज़ेहन में आज की सारी घटना,किसी चलचित्र की तरह गुज़र रही थी।कुछ घंटों में जैसे, सारी जिंदगी देख ली हो!किसी मासूम को घर जैसा सहारा मिल गया..कई नए रिश्ते क़ायम हो गए..पुराने ढर्रों का अंत और नई सोच का जन्म हुआ।और...सबसे अहम मुझे,अपने जिगरी दोस्त का अप्रतिम रूप देखने को मिला!
पर..इन सबसे सर्वोपरि,ये गुलाब का फूल था,जो अब मेरे हाथ में था।यह फूल नहीं,प्यार की डोर थी..एक विश्वास था..एक मासूम मुस्कान थी..एक रिश्ता था..एक नई सोच थी,जो,अब तक की सारी बातों से ऊपर थी!
मोटरसाइकिल के पीछे बैठे ही मैंने घेरा डालकर,अपनी छाती से दोस्त को लगाया और उसकी पीठ पर हल्की पप्पी ली।मन ही मन उस का शुक्रिया अदा किया कि, तेरी बदौलत ही एक अनमोल यादगार शाम मेरे जीवन के साथ जुड़ गई..।
आधे घंटे बाद सत्येंद्र ने मुझे मेरे घर छोड़ा,तो मैं बोला--
_"इधर ही रह जा..मैं भी अकेला ही हूं !सुबह निकल जाना...क्या बोलता है!_
_"नहीं यारा..तुझे पता ही है,_ _मां -बाबूजी के लिए घर जाना_ _जरूरी है।"_ -- उसने कहा।
हम दोनों गले लगे।शुक्रिया- धन्यवाद और शुभ रात्रि का आदान-प्रदान करते हुए,वो चला गया..
मैंने भी दरवाज़ा खोला और अपने घर में प्रवेश कर गया।
*मुझे पता है..अब हम दोनों के* *ज़ेहन से,इस वाक्या कि छाप* *कभी नहीं मिटने* *वाली...!!
(समाप्त!)
परंतु एक नई शुरुआत के साथ...
(कहानी में घटना काल्पनिक है। इसका किसी भी वास्तविकता से कोई ताल्लुक नहीं है।कहानी को जीवंत रखने के लिए स्थान और कुछ नाम वास्तविक हैं।यह एक शिक्षाप्रद कहानी है।
सविनय लेखक..
हरजीत सिंह मेहरा।)
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स्वरचित@
हरजीत सिंह मेहरा
मकान नंबर - 179,
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गगनदीप कॉलोनी,भट्टियां बेट,
लुधियाना,पंजाब,(भारत)।
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