वो मासूम लड़की..!

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ब्लॉग प्रेषक: हरजीत सिंह मेहरा
पद/पेशा: ऑटो चालक..
प्रेषण दिनांक: 06-09-2022
उम्र: 53 वर्ष
पता: मकान नंबर 179...ज्योति मॉडल स्कूल वाली गली,गगनदीप कॉलोनी,भट्टियां बेट,लुधियाना,पंजाब,भारत।पिन नंबर 141 008.
मोबाइल नंबर: 8528996698.

वो मासूम लड़की..!


मां शारदे नमो नमः।।

पवन मंच को नमन!

                       वो मासूम लड़की..🌿

                           """""""""'"""""'''

      "ए.. लड़की क्या चाहिए.!" किराने की दुकान में बैठे लाला ने पूछा- "बड़ी देर से,मेरी दुकान की ओर घूर रही हो!" बोलते हुए दुत्कारने लगा।

       "मेरा नाम शिल्पी है.. मैं किसी गांव में रहती हूं।"उस लड़की ने जवाब दिया- "मैंने कल से कुछ नहीं खाया..मेरे पापा भी भूखे हैं!"- वह बोली।

          "अच्छा..तो तुझे भीख चाहिए।चल हट..अभी सुबह-सुबह बोहनी का समय है.." लाला बोला और हाथ के इशारे से शिल्पी को जाने को कहने लगा।

     गांव में सभी जानते थे,की लाला बड़ा ही खड़ूस और क्रूर व्यक्ति था!दान पुण्य,दया,प्रेम, से..उसका दूर दूर तक कोई वास्ता ना था।अभी कुछ दिन पूर्व ही,उसने अपनी वृद्ध मां को, वृद्धाश्रम छोड़ा था।बेशुमार दौलत होते हुए भी,अपने बुजुर्ग माता की सेवा करने से कतराता था। शायद इसी स्वभाव के कारण.. उसे आज तक ईश्वर ने औलाद का सुख नहीं दिया था!

        "नहीं नहीं,मुझे भीख नहीं चाहिए.." शिल्पी बोली- "आप मुझे कोई काम दे दीजिए..मैं काम करके,जो मज़दूरी मिलेगी.. वही ले लूंगी!"

       "मेरे पास कोई काम नहीं है.. वैसे भी पिद्दी सी हो..क्या काम करोगी.?"- लाला ने फटकारा।

        "आप जो भी काम कहेंगे.. कर लूंगी लालाजी।" शिल्पी बोली- "मैंने और पापा ने,कल से कुछ खाया नहीं है..हम भूखे हैं! पापा बीमार..बिस्तर पर पड़े हुए हैं.!" कहकर शिल्पी रोने लगी।

        शिल्पी आठ साल की मासूम बच्ची थी।तन पर एक ऊंची सी,मटमैली फ्रॉक पहनी हुई थी..जो कहीं कहीं से फट गई थी और उसकी गरीबी बयां कर रही थी।

      इसी गांव के बाहर,एक मजदूरों की बस्ती थी।उस बस्ती में वो, एक टूटी फूटी झोपड़ी में रहती थी।परिवार में उसने होश संभालने के बाद,पापा को ही देखा था!मां का प्यार क्या होता है,उसे पता ही ना था!पापा ने ही उसे पाला पोसा,मां की ममता दी। जब शिल्पी थोड़ी समझदार हुई, तो घर का काम संभाल लिया.. झाड़ू- पोंछा,साफ़- सफ़ाई,कपड़े तक धो लेती थी,सिर्फ खाना पकाना ना आता था।

       शिल्पी के पापा *श्यामलाल* एक मज़दूर थे। मज़दूरी करके जो कमाते,उसी से मुश्किल से गुज़ारा चलता।इसी कमरतोड़ महंगाई की वज़ह से, शिल्पी की पढ़ाई भी ना हो पाई थी! परंतु,शिल्पी को उसके पिता, अपनी जान से भी ज्यादा स्नेह करते थे। शिक्षा न दे पाए तो क्या हुआ..अच्छे संस्कार जरूर देते थे! क्या अच्छा, क्या बुरा,इसका ज्ञान बेटी को देते रहते थे।शायद वही संस्कार आज..खुद्दारी का रूप ले चुके थे!इसलिए तो कह रही थी,की,भीख नहीं काम चाहिए।उसके पापा ने कहा था.. 'भीख मांगना बुरी बात है!'

      लाला ने उसे ऊपर से लेकर, नीचे तक देखा..कुछ सोच कर कहा- "ठीक है..पर मैं,सारा दिन काम कराने के बाद,दस रुपए ही दूंगा.."

      "ठीक है लाला जी--" खुश होकर शिल्पी बोली- "बताइए मुझे क्या करना है।"

      लाला उसे,दुकान के गोदाम में ले गया और एक कोने की और इशारा करके कहा-

           "वह जो,दो बोरियां रखी है..उसमें दाल और चने हैं।उसे जल्दी से बीन दो, फ़िर दूसरा काम दूंगा।"

         "ठीक है.." कह कर शिल्पी काम पर लग गई...

                     (जारी है..)

पृष्ठ-2

          लाला अपनी की हुई कंजूसी से,बड़ा ख़ुश था।बड़े पड़ते का सौदा हुआ था।यही काम अगर किसी और से करवाता,तो कम से कम सौ रूपए देने पड़ते।

       उधर,मासूम शिल्पी को अभी,इस ऊंच-नीच,मोल,भाव- तोल का कोई ज्ञान नहीं था!वो तो बस,इस बात से ख़ुश थी कि,उसे दस रुपए मिलेंगे,जिससे वो अपने पापा के लिए,खाने को कुछ ले जा सकेगी।

      वहीं..दुकान पर बैठा 'हरिराम ',यह सारा माजरा देख रहा था!हरिराम लाला जी का,एक मात्र दोस्त था,जिसके साथ उसकी छनती थी।

       जैसे ही लाला,शिल्पी को गोदाम में छोड़ कर वापस आया, तो हरिराम बोला-

          "यार लाला,ये तुमने बहुत अच्छा काम किया..लड़की को काम दे दिया। लेकिन,उसको मेहनताना देने में कंजूसी क्यों की यार!"

       "अरे नहीं हरिराम..तुम इन लोगों को नहीं जानते!कुछ पैसों के लालच में,ये कोई भी झूठ बोल देते हैं!" लाला बोला- "देखना, मुझसे पैसे लेकर,ये अपनी ख्वाहिशें पूरी करेगी।"

        एक ठंडी सांस लेकर हरिराम बोला-- "नहीं दोस्त... आज यह मासूम झूठ नहीं बोल रही।मैं जानता हूं इसके पिता को.. *श्यामलाल* ,बहुत ही स्वाभिमानी व्यक्ति है! ग़रीब है,पर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता। और यह लड़की शिल्पी,पूरी बस्ती की जान है!ये चाहती तो,बस्ती में किसी से भी मदद ले सकती थी, पर,पिता के स्वाभिमानी गुण इसमें भी आ गए हैं! इसलिए, यहां काम करके कमाना,इसे भीख मांगने से कहीं ज्यादा ठीक लगा।"

       लाला एक टक अपने मित्र की ओर देख रहा था।हरिराम कहता रहा-- "लाला..आज जो इसने अपने पापा की बीमारी के बारे में बताया,यह बिल्कुल सच है। तीन दिन पहले,मज़दूरी करके,शाम को शहर से जब, श्यामलाल घर लौट रहा था,तो ना जाने पीछे से किसी तेज रफ्तार वाहन ने उसे टक्कर मार दी! हल्का अंधेरा और सुनसान सड़क का फायदा उठा,वाहन चालक अपना वाहन लेकर फरार हो गया था।बेचारा ना जाने कब तक सड़क पर पड़ा रहा!कोई मदद भी ना मिली!कुछ समय बाद जब उसे होश आया,तो,हिम्मत जुटा कर उठा और घर की ओर चल पड़ा।घर जाकर देखा तो,सर पर गहरी चोट आई थी।उस दिन की मज़दूरी के पैसे से ही,उसने गांव के वैद्य से,मरहम पट्टी करवाई थी।थोड़े पैसे जो बचे थे,उससे उस दिन की,घर की खुराक चलाई होगी।अब वाकई कल से उसने कुछ ना खाया होगा!"

     लाला,जो निर्दयी स्वभाव का था,हरिराम की बातों से बहुत प्रभावित हो रहा था।वो उसकी बातों को,बहुत ध्यान से सुन रहा था।

        "लेकिन,यह सब बातें तुम्हें कैसे पता हरिराम..!"लाला ने पूछा।

       "क्योंकि..श्यामलाल मेरा दोस्त है!मेरा उसके घर,आना जाना लगा रहता है।"थोड़ा चुप रहने के बाद हरिराम बोला--

"पता है लाला,मैंने भी उसकी मदद करने की कोशिश की थी,पर उसने साफ इन्कार कर दिया था।"

      लाला की निगाहें तो,हरिराम पर स्थिर थीं,लेकिन दिमाग़ और दिल में..कुछ उथल-पुथल महसूस कर रहा था।

           "कल,जब मैं श्यामलाल के घर गया,तो वो काम पर जाने की तैयारी कर रहा था.."-- हरिराम बोले जा रहा था- "लेकिन अचानक चक्कर आने की वजह से,वो गिर पड़ा! मैंने उसे संभाला और बिस्तर पर लेटाया।उसको तेज़ बुखार भी था और सर से खून भी रिस रहा था।श्यामलाल पर बेहोशी छा गई थी।तब मैंने ही वैद्य से,उसकी मरहम पट्टी करवाई और टीका लगवाया।उसे अभी भी होश नहीं आया है।और तुझे पता है मित्र..शिल्पी यहां काम कर रही है,इसका पता श्यामलाल को भी नहीं है!शायद,नींद में इसके पापा को भूख लगी होगी,तो कराहते हुए उसने खाना मांगा होगा!तो इस नन्हीं मासूम से रहा ना गया होगा! परंतु,पापा के आत्म सम्मान को ठेस ना पहुंचे,इसलिए भीख ना मांग..मेहनत करनी इसे ठीक लगा होगा।"

       एक दीर्घ श्वास छोड़ हरिराम आगे बोला- 

               "लाला..एक नन्ही जान होते हुए भी,इसने इंसानियत का पाठ,बड़े बड़ों को पढ़ा दिया! हम मानसिक रूप से परिपक्व होते हुए भी,मां-बाप का दामन छोड़ देते हैं!उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियां भूल जाते हैं।पर देखो इस फूल सी बच्ची को,जिसे इस उम्र में,हमसे ज़्यादा परिपक्वता का ज्ञान है।

 "' एसे इंसान..ग़रीब होते हुए भी,हम जैसे धनवानों से कहीं ज़्यादा अमीर होते हैं..!'"

            हरिराम चुप हो गया...

                             (जारी है...

पृष्ठ- ३

     एक अजीब सा सन्नाटा छा गया था।लाला ने अपनी नज़रें झुकाई,कुर्सी पर बैठे- बैठे पहलू बदला।अपने हाथों से,अपनी आंखों के सामने से ऐनक उठाई, अपनी ऊंगलियों से नम हुई आंखों को साफ़ किया। एक निर्दयी इंसान का,शायद मन परिवर्तित हो रहा था..बुराई पर अच्छाई की जीत हो रही थी! आत्मग्लानि आंसुओं के रूप में बह रही थी!

         अचानक लाला कुर्सी से उठा,पर बोला कुछ ना।अपने मित्र,हरीराम को इशारा कर चलने को कहा।दोनों गोदाम में पहुंचे, जहां शिल्पी तन्मयता से अपना काम कर रही थी।दोनों शिल्पी के पास बैठ गए।शिल्पी एक बार तो घबरा गई.!पर,जब हरि चाचा की ओर देखा तो मुस्कुरा दी।लाला ने अपना हाथ शिल्पी के सर पर फेरा और कहा--

         " चल बेटी,उठ.."

         "लेकिन, लाला जी अभी मेरा काम पूरा नहीं हो पाया है।"-- शिल्पी बोली।

          "रहने दे काम को,उठ जा.."-- लाला बोला।

        शिल्पी ने हरिराम को देखा।हरिराम ने भी उसे मुस्कुरा कर उठने का इशारा किया।

        लाला ने शिल्पी को सीने से लगा लिया और फफक पड़ा। शायद,औलाद ना होने की वज़ह से,आज तक ममता का एहसास ना हो पाया था उसे!हरिराम ने लाला का कंधा दबाया और ढ़ाढस बंधाया।

        लाला ने शिल्पी को गोद में उठा लिया और अपने कमरे में पत्नी के पास ले गया।सारा हाले बयां अपनी पत्नी को सुनाया। सुनकर पत्नी का भी मन भर आया और वो भी रो पड़ी।

      लाला ने पत्नी से कहकर,ढ़ेर सारा पकवान बनवा लिया और दुकान पर,अपने गल्ले के पास आकर पैसे निकाले।

          "शिल्पी बेटा..यह लो अपने मेहनत के दस रुपए,मैं तुम्हारे काम से बहुत खुश हूं..! इसलिए यह लो दो सौ रुपए इनाम के..!"-- लालाजी की आंखें भीगी हुई थी!

      शिल्पी को कुछ समझ ना आया,लेकिन अपने दस रुपए पाकर,वो बहुत खुश थी।

       लाला..हरिराम के साथ, शिल्पी को लेकर उसके घर पहुंचा।साथ में पकवान ले जाना ना भूला!उसकी टूटी फूटी झोपड़ी के दरवाजे पर पहुंच लाला ने,शिल्पी को अंदर जाकर,अपने पापा को जगाने को कहा।

        शिल्पी दौड़ कर अंदर चली गई,थोड़ी देर बाद दरवाज़े से,दोनों को अंदर आने को कहा।

         श्यामलाल,अपने बिस्तर पर,उठने की कोशिश कर रहा था।हरिराम फौरन उसके पास जाकर,उसे सहारा दे कर,अध लेटा सा सुला दिया।

           श्यामलाल ने दोनों का हाथ जोड़कर अभिवादन किया, और पास पड़े मेज़ की ओर बैठने का इशारा किया।

          लालाजी ने साथ लाए हुए भोजन को,उसके सामने रख दिया।इतना सारा पकवान देख, श्यामलाल हैरान होकर लाला और हरिराम की ओर देखने लगा।हरिराम ने उसकी कशमकश को देख कर,सारी कहानी उसे सुना दी।सुनकर श्यामलाल को बहुत गर्व हुआ..अपनी बेटी पर सारा प्यार लुटाते हुए,अपने वक्ष से लगाया और नम आंखों से लाला से कहा--

            "कोई बात नहीं लाला जी,अब मैं ठीक हूं।इन सब पकवानों की आवश्यकता नहीं।आपका बहुत-बहुत धन्यवाद,जो आपने हम गरीबों के बारे में इतना सोचा।"

      लालाजी वहीं,बिस्तर पर बैठ गए और अपने रूंधे गले से बोले-

    "नहीं भाई.!!आज,एक पत्थर दिल इंसान को,इस मासूम ने पिघलाया है,प्यार करना सिखाया है।सेवा..दया भाव का,एहसास दिलाया है,औलाद के सुख का परिचय कराया है।आज मुझे मत रोको,आज जी भर कर पश्चाताप कर लेने दो!इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करो... 'दोस्त'.!" और फिर रो पड़ा।

            "और एक बात...इंकार मत करना, तुम्हें मेरी कसम..! आज के बाद,शिल्पी की सारी जिम्मेदारी मैं उठाऊंगा।उसके सुनहरे भविष्य को,मैं संवारूंगा.. बस!" भावुकता में लाला जी बोले जा रहे थे!

       श्यामलाल ने अवाक होकर, हरिराम की ओर देखा!वह भी नम हृदय से,उसे इशारा कर,सब कबूलने को कह रहे थे।

       काफी समय तक सब आपस में बातें करते रहे।फिर लाला ने फोन करके एंबुलेंस बुलाई और श्याम लाल को,शहर के एक अच्छे अस्पताल में,इलाज़ के लिए दाख़िल किया।शिल्पी को वह अपने घर ले आया। 

      "जब तक श्यामलाल का इलाज चलेगा,शिल्पी मेरे पास ही रहेगी।"

        दूसरे दिन लालाजी,अपने मित्र हरिराम के साथ,कार में बैठ एक और फ़र्ज़ निभाने निकल पड़े।क़रीब तीन घंटे का सफ़र तय कर,उसी *वृद्धाश्रम* पहुंचे जहां वो अपनी वृद्ध माता को छोड़ गए थे!

      मां के सामने आते ही,उनके पैरों में लोट गए!आंखों से बहती आंसुओं की बूंदें,जब मां के चरणों पर पड़ रही थीं,तो,मानो उसके अंदर के सारे पाप,अहंकार,दंभ, क्रोध का नाश होता जा रहा था।इस दृश्य को देख,आश्रम के सारे लोगों की आंखें छलक आईं थीं!

        लालाजी ने बड़े आदर सम्मान के साथ,मां को गाड़ी में बैठाया और अपने घर की ओर चल पड़े।

    आज वह निर्दयी लाला से-- _*"लाला विशंभर नाथ "*_--बन गया था!एक नेक दिल इंसान... 

        कभी-कभी.. मासूमियत वह काम कर जाती है,जो परिपक्वता नहीं कर पाती।एक मासूम लड़की ने सेवा,संस्कार,दया,कर्तव्य निष्ठा,ममता का पाठ पढ़ा.. 'बुराई पर अच्छाई की जीत ' हासिल करके दिखाई थी..!

                               ...इति... 

          (बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रण के साथ..)

  आदरणीय पाठक गण सादर नमन🙇‍♂️

     यह कहानी संपूर्णत: काल्पनिक है! इस का किसी भी घटना..उल्लेखित पात्रों का (जीवित या मृत्यु) से कोई संबंध नहीं है !

         कहानी की समीक्षा अवश्य करें।बेबाक निष्कर्ष की अभिलाषा रखते हुए,आपके स्नेह और आशीर्वाद का प्रार्थी।

                              🙏🙏


 स्वरचित@-

 हरजीत सिंह मेहरा, 

 लुधियाना,पंजाब,भारत। 

 फोन- 85289-96698.

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