बंद हुए कल कारखाने एवं सरकारी कार्यक्रमों से प्रेरक सीख

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ब्लॉग प्रेषक: अभिषेक कुमार
पद/पेशा: साहित्यकार, सामुदाय सेवी व प्रकृति प्रेमी, ब्लॉक मिशन प्रबंधक UP Gov.
प्रेषण दिनांक: 14-10-2022
उम्र: 32
पता: आजमगढ़, उत्तर प्रदेश
मोबाइल नंबर: 9472351693

बंद हुए कल कारखाने एवं सरकारी कार्यक्रमों से प्रेरक सीख

बंद हुए कल कारखाने एवं सरकारी कार्यक्रमों से प्रेरक सीख

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🖋️©भारत साहित्य रत्न अभिषेक कुमार

  किसी भी राष्ट्र के सम्पूर्ण तरक्की, उन्नति में उधोग नीति का महत्वपूर्ण स्थान है। औधोगिक कल कारखाने एक ओर जहां हज़ारों प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रोजगार मुहैया कराते है वहीं दूसरी ओर देश के अर्थव्यवस्था मजबूतीकरण में अहम भूमिका निभाते हैं। एशिया के बड़े उधोगों में कभी सुमार रहे बिहार के रोहतास जिले में अवस्थित डेहरी ऑन सोन के डालमियानगर उधोग का इतिहास हो या कानपुर स्वदेशी कॉटन मिल का इतिहास हो या फिर जापान समर्थित झारखण्ड के रामगढ़ जिले में अवस्थित एशिया की मशहूर कांच फैक्ट्री का इतिहास, इतना ही नहीं देश में ऐसे सैंकड़ो कल कारखाने, मिल मौजूद थें जहाँ हज़ारों हजार लाखो परिवारों का रोजगार से भरण पोषण होता था। पर किसी खास व्यक्ति, समूह, संगठन के महत्वकांक्षी सोच और वहीं के मजदूरों, कामगारों, कर्मचारियों से मिले समर्थन ने इन उधोग कल कारखाने को इतिहास के पन्नो में ही सिमटा नहीं दिया बल्कि एक जमाने में दूधिया रोशनी में नहाए कंपनी एवं इसके इर्द गिर्द सुंदर नक्शाकृत मनोरम आवासीय परिसर एवं मनमोहक दृश्य को सुनसान प्रेतस्थान बना दिया। चाहे कल कारखाने के भीतर के चकाचौंध हो या उसमें काम करने वाले परिवारों के आंगन की खुशियों की गुलशिता वह सब एक ही झटके में ऐसे वीरान, उदास, काले हो गए जैसे डूबते हुए सूरज के साथ रंगीन बदल। न जाने कितने कामगारों ने इन फैक्टरियों को बंद हो जाने से क्या-क्या न आर्थिक सामाजिक कष्ट उठाएं। मेरा जन्म डालमियानगर उधोग के बगल के जिला औरंगाबाद के धरती पर हुआ था और मेरे बड़े पिता जी डेहरी ऑन सोन के भारतीय रेल सेवा में अधिकारी के पद पर आसीन थें इस कारण से वहाँ मेरा जाना आना आज तक होता रहा। यह कंपनी 1980 के दशक में कई कारणों से जूझते हुए अंततः बंद हो गया। मुझे स्मरण है 1990 के दसक में मैं जब यहां आया करता था तो क्या गजब की कारीगरी से डालमियानगर उधोग की फैक्टरियां और इसमें कार्य करने वाले कामगारों के आवास निर्मित कराएं गए थें। सुनियोजित सुसज्जित तरीके से बसाए गए इस आधुनिक शहर में हॉस्पिटल, स्कूल, खेल का मैदान, मनभावन पार्क और बैंकिंग जैसे सरकारी प्रतिष्ठानों की चिन्हित अपना-अपना विशिष्ठ स्थान था यहां तक कि रेलवे, वायुयान उधोग संबंधित क्रियाकलापों के लिए आरक्षित थें। ऐसे ही लगभग कानपुर स्वदेशी कॉटन मिल एवं रामगढ़ कांच फैक्ट्री का वातावरण और माहौल था। इन क्षेत्रो से गुजरते वक़्त आज भी इन कंपनियों कई कामगार ट्रेन में चिनिया बादाम आदि बेचते मिल जाते हैं और अपनी आप बीती सुनाते हैं। वे कहते हैं- एक समय में हँसता खेलता खुशहाल परिवार कंपनी बंद हो जाने और रोजगार हाँथ से चले जाने के कारण बस इस महंगाई के दौर में किसी तरह केवल दाल रोटी का खर्चा निकल जाए तो ईश्वर की बड़ी कृपा मानता हूँ।

      आखिर इन कल कारखाने, कंपनियों को वीरान बंद होने का मूल कारण क्या है...? क्या इनके मूल कारणों पर विचार करके भविष्य के लिए हम सजग, सचेत एवं होंसियार हो सकते हैं...? यह सवाल इस लेख को पूरा पढ़ने के बाद आप मुझे जरूर बताईयेगा..!

    आज भारत देश में सूर्य के समान चमकने वाले कुछ कंपनियां जैसे कि टाटा, बिरला, रिलायंस, जिंदल, मारुति, महिंद्रा, एयरटेल एवं हीरो आदि कुल मिलाकर करोड़ो भारतीय नागरिक को रोजगार उपलब्ध करा रहे हैं। इन कंपनियों के कर्मचारियों के सुख, सुविधा, वेतन, भत्ते और माहौल सरकारी कर्मचारियों के अपेक्षाकृत तनिक कम नहीं है। कुछ-कुछ मामलों में इनकी मिशाल तो वाकई प्रसंसनीय है। 

    दरअसल नौकरी का संबंध जरूरतमंद व्यक्तियों से है। एक प्रचलित लोकायुक्ति है- "पेट भर जाने पर बगुला को मछली तीता लगने लगता है।" ठीक इसी प्रकार जब सम्पन्न परिवारों से कोई व्यक्ति सौखिया नौकरी में आता है तो वहाँ की व्यवस्था, वेतन भत्ते मौलिक अधिकारों में और कैसे इज़ाफ़ा हो उसका नेतृत्व करने की कोशिश करने लगता है ताकि उसका नाम हो। यह सब लोग नहीं केवल एक्का-दुक्का मनसोख लोगो की ही व्यक्तिगत महत्वकांक्षा का परिणाम होता है जिसका वर्णन तर्क संगत अन्यलोगों एवं उनकी हितों से जोड़कर भविष्य सुखदायी बनाने संबंधी प्रस्ताव पर सहानुभूति समर्थन ली जाती है और देखते ही देखते इन कंपनियों के भारी संख्या में लोग संगठित होकर अपने हक एवं अधिकार मांग से संबंधित सक्रिय हो जाते हैं। समय समय पर कई सूत्रीय मांग ज्ञापन न पूर्ति होने पर धारना, प्रदर्शन आदि होते रहते हैं। कभी कभी यह धरना, प्रदर्शन इतना हिंसक हो जाता है कि उनका स्थान इतिहास के पन्नो पर मिल जाता है। एक दौर यह भी आता है कि संगठन संचालन एवं संगठन के मजबूती के लिए सहयोग राशि भी कामगारों से ली जाती है। हज़ारों कामगारों से चंदा स्वरूप एकत्र की गई बड़ी धनराशि कभी-कभी निजिगत महत्वकांक्षा की भेंट चढ़ जाती है ऐसे मामले भी प्रकाश में आएं हैं। 

    मांग हेतु लागातार धारना प्रदर्शन जद्दोजहद से तंग आकर कंपनियों के मालिक, प्रबंधन समिति उधोग धंधा बंद कर किसी दूसरे स्थान को चयन पर विचार करते हैं। इस प्रकार संघर्ष में कंपनी बंद हो जाने से हज़ारो कामगारों आर्थिक संकट के लहरों में डगमगाने लगते हैं जैसे नाव समुद्र में तूफानों के बीच, फिर उन्हें सत्य- असत्य, गलत-सही, उचित-अनुचित का ज्ञान होता है तब पछतावत होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। 

     चूंकि समय और महंगाई के मध्यनजर हक एवं अधिकार मांगना कोई गुनाह नहीं है और स्वतंत्र देश के किसी भी नागरिक का यह मौलिक अधिकार है। पर हक एवं अधिकार मांगने से पूर्व क्या धारना, प्रदर्शन, हड़ताल के अलावा भी कोई रास्ता, विकल्प है..? क्या इस पर विचार किया गया..? मेरा मानना है इससे पूर्व एक रास्ता है प्रेम का...! हक एवं अधिकार के लिए प्रेम का मार्ग अपना कर शांति समझौते से बैठक में अपनी बात रखा जाय तो मैं समझता हूँ इससे बड़ा धरती पर कोई हथियार नहीं हो सकता। किसी भी परिस्थितियों पर विजय पाने के लिए प्रेम रूपी हथियार का इस्तेमाल सबसे कारगर और सटीक हो सकता है, कारण की इससे कठोर दिल को भी पिघलाया जा सकता है। तमाम ईश्वरीय लीलाओं की कथाएँ जैसे कि रामायण, महाभारत, कृष्णलीला आदि में ईश्वर ने सर्वप्रथम प्रेम से ही बात मनवाने पर जोर दिया है।

     जब कोई महत्वकांक्षी व्यक्ति अपने नेतृत्व से हक एवं अधिकारों के लिए कामगारों को गोलबंद करता है तो इस प्रक्रिया में वहां कुछ वैसे बुद्धिजीवी लोग भी विद्यमान होते है जिनके पास वैचारिक शक्ति मजबूत होती है और वे भूत वर्तमान भविष्य में उपजने वाली स्थितियों को भांप लेते है। जब वे नैतिकता का सलाह देते है तो कोई मानने वाला सुनने वाला नहीं होता और उल्टा संगठन के लोग उसे न जाने जयचंद,रायचंद, वीरचंद, कायर, गद्दार की संज्ञा दे देते हैं। वह बेचारा संगठन के अधिकांश लोगों को किसी मांग पर सहमत के बीच अपनी असहमति दर्शाने की प्रत्यक्ष हिम्मत नहीं करता और उनके तीक्ष्ण व्यंग भरी शब्दो से लज्जित होकर चुप रहना ही बेहतर समझता है जबकि कुछ लोग बिना परवाह किये अपना मत बेबाकी से निडरतापूर्वक रखते हैं और एक भ्रामित सदस्यों के बड़े समूहों से अपने आप को अलग कर लेते हैं पर जहाँ जिनकी संख्या अधिक है वहाँ होने वाले न्याय, अन्याय उनके संगठनात्मक क्रियाकलापों पर ही निर्भर करता है। एक्का दुक्का अलग विचार वाले लोग वैसे ही पीस जाते है जैसे गेंहू के ढेरों के बीच एक्का-दुक्का जौ।

     यह भी विचारणीय तथ्य है कि कंपनी प्रबंधन से जो हक एवं अधिकार संबंधित मांग है उसपर कितना वितीय भार पड़ेगा क्या उसके सापेक्ष उस कंपनी का मुनाफा बच रहा है कि नहीं...! कोई भी कंपनी के मालिक या प्रबंधन समिति लाभ अर्जन से ही उधोग का स्थापना किया है वह लाभ के स्थिति में ही यथावत बना रहेगा। हानि एवं स्थानीय वाद विवाद, दूषित नीतियों और बहुत अधिक हड़ताल, अनशन आदि से कंपनी को समेट प्रस्थान करना चाहेगा, इसका सीधा प्रभाव वहाँ काम करने वाले कामगारों पर ही पड़ना है कंपनी के मालिक कहीं न कहीं सशक्त मजबूत होते हैं वह दूसरे स्थान पर दूसरे व्यवसाय या वही व्यवसाय करने में सक्षम होते हैं। 

     स्वयं की कार्यप्रणाली पर भी निर्भर करता है कि कंपनी से जो मीले दायित्व एवं कर्तव्य है उसके प्रति कितने हम सत्य, निष्ठा, ईमानदारी पूर्वक ससमय कार्यो को संपादित करने के लिए प्रतिबद्ध एवं जिम्मेदार हैं...! क्यों कि किसी पूण्य प्रताप से मिले अपने कर्तव्य एवं दायित्यों को रिश्वत की शूली पर चढ़ा के दूसरों से खुद का हक एवं अधिकार मांगना न्यायोचित नहीं होगा इससे सर्व शक्तिमान ईश्वर भी नाराज होंगे और इस मांग की प्रक्रिया में व्यवधान पड़ने की संभावना बनी रहेगी क्यों कि कर्म का अकाट्य सिद्धान्त होता है जैसी करनी वैसी भरनी यह विधि का विधान है इसे प्रारब्धानुसार टाला जा सकता है जरूर पर एक न एक दिन कर्मो का फल प्रत्येक व्यक्ति को अवश्य ही भोगना पड़ता है।

     20 वीं सदी के लोग या इससे पहले के शताब्दियों के लोगों में एक दूसरे के मानवीय भावनाओं के प्रति संवेदनशीलता अधिक होता था। क्यों की कहीं न कही वे प्रकृति के करीब होते थें तथा उनमें से अधिकांश लोग ईश्वर को मानने वाले हुआ करते थें और उनकी सत्संग, सत्यकर्म से ज्ञान विवेक की उच्चतम पराकाष्ठा होती थी। इस कारण से वे लोग एक दूसरे के दुःख, दर्द, परेशानी, मजबूरी को बखूबी समझते थें और इस प्रकार धरना प्रदर्शन हड़ताल वाले नेताओं के प्रतिनिधिमंडल से कंपनी प्रबंधन अच्छे माहौल में वार्ता करते थें और एक दूसरे के हितों के मध्यनजर सुलह समझौते पर बल देते थें पर हरेक समय, युग, काल में असामाजिक व्यक्तिगत महत्वकांक्षी लोग हुए है जिनकी निजिगत स्वार्थ और महत्वकांक्षा ने एक बड़े समूहों को नतीजा भुगतने पर विवश किया है। 

    परंतु 21 वीं सदी के डिजिटल दुनियाँ में जाती, पाती, धर्म, सम्प्रदाय का तेजी से धुर्वीकरण हुआ और समाज ईश्वर में विश्वास के प्रति आस्तिक, नास्तिक और भ्रामित तीन भागों में बंट गया और आपसी द्वंद, नफरत, झगड़े होने लगे। स्वच्छ लोकतंत्र और प्रतिष्ठित राजनीति भी इसका भेंट चढ़ने लगा। आने वाले समयों के कलुषित वातावरण में स्थिति और भयावह होगी। आध्यात्मिक एवं प्रकृति अहमियत मूल्यों से कोसो दूर होने के कारण मानवीय संवेदनाओं नगण्य होगा एवं सब अपने हक एवं अधिकार के लिए चिंतित प्रयासरत रहेंगें और उनके मांगो पर कोई विचार करने वाला, सुनने वाला नहीं रहेगा और सुखदायी भविष्य निर्माण की चिंता में दिन प्रतिदिन वर्तमान हाँथ से निकलता चला जायेगा और एक दिन धरती छोड़ने का समय भी आ जायेगा फिर पछतावे की सिवा और कुछ नहीं दामन में बचेगा। इसलिए कर्मयोगी भविष्य की चिंता नहीं करते वे वर्तमान को अच्छा सुखमय निश्चिन्त बनाने के फिराक में रहते हैं जिससे स्वतः स्वयं भविष्य सुखदायी और तृप्तिदायक हो जाता है।

     डालमिया के उधोग का इतिहास  हो या कानपुर स्वदेशी मिल की इतिहास या फिर रामगढ़ कांच फैक्ट्री की इतिहास यहाँ की खंडर हुई दीवारे, भवने और यत्र-तत्र बिखरे पड़े चीखते चिल्लाते मशीनें, पुर्जे यही सिख प्रदान कर रहे हैं कि एक जमाने में यहाँ इंद्रधनुषी रंगों के बीच आसमान में तितलियों के झुण्ड और बिभिन्न प्रकार के पक्षियों के कोलाहल भरे आवागमन मधुर शाम की बेला, नूर बरसाता चांदनी रात, चिड़ियों की चहचहाहट से सूरज के लालिमा के साथ प्रातः काल की सुरुआत तथा सावन की रिमझीम फुहारों के बीच कामगारों को ड्यूटी से घर लौटना जहाँ इंतज़ार में हमसफर धर्मपत्नी अनुराग पूर्ण प्रेमपूर्वक तिरक्षी नज़रों से नैन मटका करती थी और बच्चे टॉफियों के लिए लालायित रहते थें जो कितना आनंदित करने वाला क्षण रहा होगा न..? क्या यह स्मरण भुलाए भूल सकता है..? कदापि नहीं...! कंपनी से मिले रोजगार भविष्य के चिंता लिए ऐसे शूली पर चढ़कर लहूलुहान होकर अंत को प्राप्त हो गए जिसका अब कोई उपचार नहीं पर इसका असल जिम्मेदार कौन है..? तो कहीं न कहीं किसी के जिम्मेदार ठहराने से पहले वह व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार है। कारण की नेतृत्व कर्ता के उचित अनुचित निर्णयों पर बिना गंभीरता पूर्वक विचार किये बस सब एक मत है तो उन्हीं के मत में हा में हा मिला दिए। उस समय न सोंचे न समझे संगठन एकता जिंदाबाद के नारे लगाते रहे। संगठन, संगठित मनुष्य के लिए उत्तम मानवीय व्यवस्था जरूर है परंतु नौकरी में कंपनी द्वारा चयन तो स्वयं के योग्यता के आधार पर हुआ होगा। कंपनी और कामगारों के बीच सीधा संबंध मानवोचित और न्यायोचित साबित हो सकता है। जब कंपनी और कामगारों के बीच संगठन और यूनियन जैसे तीसरे लोग मध्यस्थता एवं स्वार्थसहित नेतागिरी करने लगे तो निश्चित दोनो के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और अंततः इन कंपनियों को बंद कर मालिको को पलायन करना पड़ता है।

     कंपनी के मालिक, अधिकारी, कर्मचारी और मजदूरों के बीच केवल सोच का फर्क है और वे अपने-अपने सोच के कारण ही मालिक, अधिकारी, कर्मचारी और मजदूर बने एक दूसरे से हक अधिकार संबंधित द्वंद में उलझे हुए है और अमीरी, गरीबी लाचारी के चंगुल में फसें है। किसी भी व्यक्ति के अंदर दूसरा ब्रह्मा बनने की समर्थ उसके अंदर सुषुप्त बीज स्वरूप मौजूद है यदि वह चाहे तो इन दिव्य शक्तियों को जागृत कर वह जो बनना चाहे वह बन सकता है और उसके इस संकल्प पूर्ति में सृष्टि भी उसके मन के अनुसार सृजन करेगी तथा इर्द गिर्द वैसा ही माहौल बना मदत करेगी। उदाहरण के लिए द्वापर युग की काशी राजकुमारी अम्बा जो स्वयंबर के पूर्व ही शाल्व नरेश को अपना दिल दे चुकी थी, इसका तनिक भनक भीष्मपितामह को नहीं था। वे काशी राजसभा में हस्तिनापुर नरेश विचित्रवीर्य का प्रतिनिधित्व कर रहे थें। स्वयंवर जितने के पश्चात तीनो कन्याओं अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को हस्तिनापुर ले गए जहां अम्बा ने अपने मन की बात कही.. तुरंत भीष्मपितामह ने सम्मानपूर्वक शाल्व देश भेज दिया। परंतु शाल्व नरेश अम्बा को अस्वीकार कर दिया। लज्जित प्रतिशोधित अम्बा वापस हस्तिनापुर लौटकर भीष्मपितामह से विवाह का प्रस्ताव रखी परंतु भीष्मपितामह आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करने और अविवाहित रहने के प्रतिज्ञा के कारण उसके विवाह प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकें। क्रोधित अम्बा ने वहीं प्रतिज्ञा ली कि क्यों न मुझे जन्म पर जन्म लेना पड़े पर भीष्मपितामह के मौत का कारण मैं बनूंगी। उसकी निरंतर प्रबल सोच के कारण अजेय, इच्छामृत्यु के आशीर्वाद प्राप्त उस समय के सबसे श्रेष्ठ महायोद्धा को प्रकृति ने अम्बा को अगले जन्म में शिखंडी के किरदार बना कर भीष्मपितामह के अंत के कारण का जिम्मेदार बनाया। इस वृतांत व्याख्या का यह मकसद स्पष्ट करना है कि कोई भी व्यक्ति यदि निरंतर प्रबल सोच जिस उद्देश्य के लिए रखेगा वह एक न एक दिन अवश्य पूरा होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यही आकर्षण का सिद्धांत है जो आज भी बिल्कुल सटीक और रहस्यमयी काम करता है। 

    इतिहास में बहुत सारे मजदूर पदौन्नति कर कर्मचारी, कर्मचारी से अधिकारी और अधिकारी से मालिक बने है और यह भी इतिहास के पन्नो में दर्ज है कि एक सशक्त मजबूत कंपनी दूषित राजनीति के शिकार होकर अर्श से फर्श पर पहुंच गया तथा उसके हज़ारों कर्मचारियों की हाल बद से बदतर हुआ। किसी भी कंपनी में कार्य करते हुए उसके विरुद्ध ही लड़ाई झगड़े नकारात्मकता में सम्मिलित होने से बेहतर है कि सकारात्मकता और वर्तमान सुविधाओं से बेहतर कहीं अन्यत्र स्थान कार्य का विकल्प पर विचार करें...! 

     हक एवं अधिकार दिलाने से संबंधित कुछ क्रांतिकारी लोग यह भी कहते हैं- "प्राण निकल जाना ही मौत नहीं है, मरा हुआ तो वह भी है जो अपने हक अधिकार को खत्म होते खामोशी से देख रहा है।" यह बात शाश्वत सत्य है इसमें कोई किंतु-परंतु नहीं होना चाहिए, पर क्या सामने वाले का बिना बलाबल थाह पाए उसका अनुमान लगाए कूद पड़े समर में जैसे लंका चढ़ाई के वक्त प्रथम दृष्टया में वानर राज सुग्रीव कूद पड़े त्रिलोक विजयी रावण का अंत करने यह सोंच कर की जिसने जगत जननी साक्षात जगदंबा को हर लाया है वह पापी एक पल भी अब इस धरती पर जीने लायक नहीं है। परिणाम क्या हुआ रावण के मायाबी शक्तियों से पूरी तरीके से पिट कर भागे सुग्रीव जहाँ प्रभु श्री राम चन्द्र ने उन्हें खूब फटकारा की शत्रु के शक्ति के सही अंदाज लगाए बिना भावनाओं के आवेश में आकर बुजुर्ग बुद्धिजीवियों से बिना विचार विमर्श किये कूद पड़ने से यही परिणाम होता है। ठीक इसी प्रकार कोई भी संगठन या कामगार अपना हक एवं अधिकार के लिए लगातार अनशन, धारना, प्रदर्शन, हड़ताल से इसके होने वाले प्रभावों को वर्तमान, भविष्य के दृष्टिगत अच्छे से सोच विचार कर आगे बढ़ना चाहिए तभी सफलता के स्वाद चख पाएंगें। अन्यथा सामने वाला शक्ति, सामर्थ्य में ज्यादा है तो ऐसे प्रदर्शनों को कुचलने की क्षमता या बाइज्जत कंपनी बंद कर किसी दूसरे स्थान पर पलायन का विचार कर सकता है। आखिर इसमें घाटा किसका है आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं।

    यदि सरकारी विभागों, उपक्रमों में रोजगार सृजन पर प्रकाश डाले तो कोई भी सरकार देश के समस्त नागरिकों को रोजगार उपलब्ध नहीं करा सकता। विकल्प स्वरूप निबंधित कल कारखाने या स्वरोजगार कर जीविकोपार्जन का साधन बनाया जा सकता है। स्वतंत्र भारत के 75 साल के इतिहास में कई सरकारें आई और गई जिसके अंतर्गत कई ऐसे कार्यक्रमों योजनाएं लाये गए जिसमें देश के लाखो नागरिकों को नियुक्ति हुई। इसमें से कुछ ऐसे भी कार्यक्रम योजनाएं हैं जो किन्हीं कारणों से लंबे समय तक चल नहीं पाए और वहाँ के कर्मचारियों को या तो किसी अन्य विभाग कार्यक्रमों में समायोजित कर दिया गया या उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इन तथ्यों पर यदि गौर करें तो मोटे तौर पर यही बात सामने आती है कि विभागीय अधिकारियों कर्मचारियों द्वारा आशानुरूप प्रदर्शन नहीं किये गए या स्थानीय सरकार/मुख्य कार्यालय इन योजनाओं पर विशेष बल केंद्रित नहीं किया चाहे जो भी कारण हो बंद होने का, पर इसका नुकसान किसका ज्यादा हुआ..? तो निःसंदेह उस विभाग कार्यक्रम में कार्यरत अधिकारी कर्मचारियों का और लाभार्थी जनसमुदायों का...!

     ऐसे बंद हुए कार्यक्रमों में भी विभागीय संघ का गठन हुआ और अपनी मांगों को लेकर सरकार के समक्ष धरना प्रदर्शन भी हुए। सरकार देश की सबसे शक्तिशाली इकाई होता है। वह जो चाहे लोकहित में अपने विवेकानुसार निर्णय ले सकता है। कंपनियों के पास तो सरकारी, गैर सरकारी संगठनों का दबाव, एवं कोर्ट का भी डर होता जिसके कारण वे थोड़े लचीले, सुलह समझौते पर राजी हो जाते और बात न बनी तो कंपनी बंद कर पलायन करने के लिए स्वतंत्र उनका अधिकार होता है। पर सरकार तो सरकार है वह एक मजबूत संघीय ढाँचा है। सरकारी सेवाओं में जब कर्मचारियों को मिले दायित्यों में रुचि कम लेते हुए नौकरी 60 वर्ष तक सुनिश्चित होने के कारण सरकारी मंशा के विपरीत क्रियाकलाप करने लगे तो सरकार भी क्षुब्ध होकर संविदा कर्मी का प्रावधान लाया जिसके तहत कार्य असंतोष और शासन के मंशा के विपरीत कार्यप्रणाली पर कभी भी कार्यमुक्ति का प्रावधान बनाया गया पर इसके बीच में कहीं न कोर्ट से संविधानिक अधिकार प्राप्त होने के कारण मुकदमे लंबे चलने लगे तभी सरकार ने एक नई व्यवस्था आउटसोर्सिंग चयन पद्धति लायी जो सरकारी सेवाओं में अनुबंधित किसी तीसरे सर्विस प्रोवाइडर के माध्यम से सेवाएं ली जाए। इस व्यस्था में भी जब खामियां आने लगी तो उस विभाग उपक्रम का कार्य ही किसी निजी कंपनी के हांथों निर्धारित मापदंड अनुबंध पर सौंप दिया जाने लगा। इन कंपनियों के कर्मचारियों को कार्य ही पूजा की प्रेरणा दी जाती है और व्यक्ति अपने आप को कार्य मशीन की भांति अनुभव करता है और निर्धारित कार्य समयावधि में उसे एक पल भी फुरसत नहीं है केवल काम ही काम है तथा अच्छी सेवाओं के लिए लाभार्थी/ग्राहक से रेटिंग पद्धति भी अपनाई जाती है जिससे उनका पदोन्नति एवं अन्य सुविधाएं निर्भर करता है। 

    जरा विचार कीजिये सरकारी कर्मचारियों, संविदाकर्मियों, आउटसोर्सिंग कर्मियों एवं अनुबंधित निजी कंपनियों के कर्मचारियों के मनोदशा में कितना अंतर हो सकता है। सरकारी कर्मचारी से लेकर निबंधित निजी कंपनी के कर्मचारी तक के सफर में कहीं न कहीं कौन दोषी है..? यदि कर्मचारी पूरे लगन, सत्य निष्ठा, ईमानदारी, प्रेम से अपने कर्तव्यों का निर्वहन उत्तम कोटि में करे तो क्या ऐसा नौबत आएगा...? भारत सरकार के कई ऐसे विभाग मंत्रालय हैं जहाँ आजादी से आज तक अधिकांश कर्मचारियों में सत्य निष्ठा, ईमानदारी प्रेमपूर्वक कार्य का प्रचलन होता आया है जिसके कारण वह विभाग में अभी तक आउटसोर्सिंग, निजिता आदि का आवश्यकता नहीं पड़ा।

     अभी हमने हाल ही के अमर उजाला अखबार में पढ़ा कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूर्बन मिशन दिसंबर 2022 में बंद होने वाला है कारण की अपेक्षकृत उसके कर्मचारियों और स्थानीय सरकारों ने कार्य पर बल नहीं दिए जिसके कारण केंद्र सरकार केंद्रीकृत वितिय सहयोग से अपना हाँथ खींच लिया और आगे का संचालन राज्यों के विवेक पर छोड़ दिया। यह तो समय बताएगा कि राज्य स्वयं के हिस्सेदारी से उक्त कार्यक्रम को चलाने में सामर्थ्य रखते हैं या नहीं पर यह बात स्पष्ट है कि किसी भी विभाग के अधिकारी कर्मचारी विभागीय दायित्व पूर्ति के समक्ष ईमानदारी, पारदर्शिता और लगनशीलता के प्रति संवेदनशील रहे और स्थानीय सरकारों/मुख्य कार्यालयों का भी भरपूर समर्थन प्राप्त हो तो किसी भी योजना, परियोजना, मिशन या कार्यक्रम बंद होने की नौबत नहीं आएगी और सबका रोजी रोटी चलता रहेगा और जनसमुदायों का विकास होता रहेगा जिससे देश निःसंदेह बुलंदियों को छुएगा।

   अतः हे मानव नींद से जाग उठ खड़ा हो और अपने आप को पहचानों, प्रकृति से प्रेम करो, अध्यात्म जीवन की ओर अग्रसर हो और योग्यता के अनुरूप मिले रोजी रोटी को ईश्वर प्रसाद समझ ग्रहण करो। उन्नति जन्मसिद्ध अधिकार है तथा इसके बीच में कोई बाहरी रुकावट नहीं है वह रुकावट स्वयं के ज्ञान और विवेक का है। ज्ञान और विवेक के पुष्ट कर लो तथा और कुछ ज्यादा करना चाहे तो अपनी शरीर के सात दिव्य केंद्र चक्रों में से किसी एक को जागृत कर लो फिर देखो चमत्कार मनवांछित फल न मिले तो कहना...!


भारत साहित्य रत्न

अभिषेक कुमार

साहित्यकार, समुदायसेवी, प्रकृति प्रेमी व विचारक

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