मानव मन में संतोष

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ब्लॉग प्रेषक: S.Anandakrishnan
पद/पेशा: अवकाश प्राप्त प्रधान अध्यापक
प्रेषण दिनांक: 17-07-2023
उम्र: ७३
पता: A7, Archana Usha squire ,Kubernagar 4th cross street, Madippakkam , Chennai 600091
मोबाइल नंबर: +918610128658

मानव मन में संतोष

     भारत देश आदी  सभ्यता का केंद्र हैं । ज्ञान भूमि है ।भोग भरा जीवन भारतीयों का नहीं है ।त्याग भरा जीवन भारतीयों का । दिगंबर साधु -संत, तीर्थंगर ,अघोरी आज भी आदरणीय  है । स्नातक,स्नाकोत्तर, दार्शनिक, वैज्ञानिक सब के सब  उन के दर्शन और आशीषें पाने में ब्रह्मानंद का अनुभव करते हैं । विश्व विजय का सपना देखनवाला अलेक्सांडर(सिकंदर) भी ठिठुरते सर्दी में अर्द्ध नग्न 
दांड्यायन के सामने नत्मस्तक होकर घुटने टेक्कर खडा रहा। ऐसे दिव्य साधू -संतों के देश में त्याग ही परमानंद - ब्रह्मानंद रहा । मानव मन में संतोष प्रद,आनंद प्रद रहा । लौकिक सुखों को तजना राज सुखी भोगनेवाले राजकुमारों को हाथ का मैल रहा । 
दिव्य भाषा संस्स्कृत  केवल अमुक लोगों की भाषा रही।  तुलसीदास ने जन सामान्य की भाषा में लिखा तो घर -घर में पढने लगे । उन्होंने लिखा कि मानव के मान-अपमान मन के विचार पर निर्भर है ।
गो धन,गज धन,बाजी धन,रतन धन खान। जब न आवे संतोष धन सब धन धूरी समान।।  काम,क्रोध,मद,लोभ,जब  मन  में  लगै खान।तब पंडित मूर्खौ दोऊँ समान, तुलसी कहत विवेक।
कबीर न भी लिखा, मन चंचल है तो कोई लाभ नहीं ।
माला तो कर में फिरै,जीभ फिरै मुँह माही। मनुआ तो दस दिसैै फिरै यह तो सुमिरन नाहीं ।।  माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर, कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
मानव मन में संतोष निश्चल और निश्चल मन में ही होगा।

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