| ब्लॉग प्रेषक: | राजीव भारद्वाज |
| पद/पेशा: | व्यंगकार |
| प्रेषण दिनांक: | 24-04-2024 |
| उम्र: | 36 |
| पता: | Garhwa, Jharkhand |
| मोबाइल नंबर: | 9006726655 |
मैं विभीषण।
जिनगी भर पार्टी के सेवा किए, घर से माड़ भात खा के आते थे, कुपोषण के शिकार हो गए, लेकिन जिंदाबाद जिंदाबाद हमेशा टनकार आवाज में लगाते थे। पूरा जिला जवार जानता था की सबसे अच्छा नारा हम ही लगाते थे, नेताजी के आगे चलते हुए दोनो पैर हवा में रहता था और हाथ आसमान को छूने में, और मुंह से जब जिंदाबाद निकलता था तो विरोधी भी एक बार मुर्दाबाद की जगह जिंदाबाद कह देते थे। आज सैंतीस साल हो गए, देह सुख के सुखल मछली जैसा हो गया, लेकिन हमरा पार्टी कहीं के नही छोड़ा। आज अगर पार्टी हमको टिकट दे देता तो रिकॉर्ड वोट से जीतते, का कमी था हम में, पंचायत स्तर से लेके केंद्र स्तर के नेता तक का गोड़ दबाए थे, बुगुर्ग नेताजी का तो पैड तक फेंकने का काम किए थे। सब बोलता था, बहुत आगे जाओगे। सब मिलके हमर किस्मत में कोदो दर दिया। जिला हमरा, प्रमंडल हमरा, गांव हमरा और टिकट मिला उसको, जो न हमर भाषा बोलता है, और न हमरा खान पान जानता है। अब हम बनेंगे विभीषण, आऊ दिखाएंगे की रावण का सोने वाला लंका कैसे जलाया जाता है, विध्वंश मचा देंगे। इसी प्रकार का स्टेटमेंट पत्रकारों के सामने दे रहे थे, गोपाल बाबू।
गोपाल बाबू का एक ही सपना था, की कभी विधानसभा में या संसद में जाएं और शेर जैसा दहाड़े। ऊ अलग बात था की जिंदाबाद मुर्दाबाद के अलावा जादा ट्रेनिंग नही मिला था उनको।
गोपाल बाबू चरण चाटू थे, जूता कैसा भी हो, बस बड़े नेता का होना चाहिए, गजब का चाटते थें। उम्र के पहले पड़ाव में वो जन विकास पार्टी से जुड़े, खूब सेवा भाव दिखाने के बाद भी उन्हें कभी चुनाव लडने को नही बोला गया। नतीजन उन्होंने इस पार्टी को छोड़ कर जन विकास पार्टी (लोकतांत्रिक) से जुड़े। पिछले पार्टी को कोस कोस के इस पार्टी का दुलारा बने लेकिन टिकट दूसरे को मिला। अब गोपाल बाबू सेकुलर राष्ट्र पार्टी को ज्वाइन किया। जब भी पार्टी को नंग धड़ंग प्रदर्शन करना होता, गोपाल बाबू को नंगे उतार दिया जाता था, लोग मजे लेते थे लेकिन गोपाल बाबू धैर्यवान पुरुष थें। उन्हे एक बार पार्टी का टिकट चाहिए था। पार्टी जो काम दे दे, बड़ा नेकदिल से करते थे। एक बार पार्टी अध्यक्ष महोदय ने उन्हें झंडा साफ कर लाने को कहा क्योंकि अगले दिन राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दिवस था, और वो झंडा अध्यक्ष महोदय के द्वारा ही फहराना था। गोपाल बाबू ने झंडा लिया और साफ किया, बढ़िया से गार के छत के तार पर पसार दिया, रात को गोपाल बाबू की धर्मपत्नी ने झंडा के बगल में अपना पेटीकोट पसार दी। सुबह सुबह गोपाल बाबू उठे और अंधेरिया में झंडा की जगह पेटीकोट उठाया और उसमे फूल बांधा, नियत समय से पहले कार्यक्रम स्थल जाकर खंभे में ऊपर बांध दिया और इंतजार करने लगे।
अध्यक्ष महोदय आएं, उन्हे दस तोपों का सलामी दिया गया, इसके बाद अध्यक्ष महोदय को झंडे की रस्सी थमाया गया ( नेता जी को जनता द्वारा हमेशा थमाया ही जाता है, जब चुनाव का परिणाम आता है) रस्सी हाथ में आते ही इन्होंने खींचा और राष्ट्रगान शुरू। ऊपर से पेटीकोट से फूल धीरे धीरे नेताजी के माथे पर टपक रहा था, नेताजी सामने जनता को देख कर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे, काश वो एक बार पेटीकोट के तरफ भी देख लिए होते ! अब नेताजी के सामने माइक था, और माइक पर आते ही नेताजी ने दहाड़ा - भाइयों और बहनों, मित्रों और सहेलियों, आज का पावन दिन और इस अवसर पर इसे (झंडा के तरफ उंगली दिखाकर) हमेशा सम्मान दीजिए। क्या आप सबों ने इसके अंदर झांकने की कोशिश की, कितनी गहराई है, दो सौ सालों या उस से भी कही अधिक समय से लोग इसके अंदर राष्ट्रभक्ति से ओत प्रोत होकर डुबकी लगा रहें हैं, कितने शहीद हुए इसके तले, बड़ी मुश्किल से इसने हमे आजादी दिलवाई है। आप जब इसे माथे से लगाते हैं तो आप का रोम रोम आपके अंदर की क्रांति को बाहर निकालता है, आप इसे जितना ऊपर उठाएंगे, आपका भविष्य उतना ही उज्जवल नजर आयेगा। तभी नेता जी के माथे पर सड़े टमाटर ने दस्तक दी, जो शायद दर्शक दीर्घा से चलाया गया था। लोग बोल रहे थे, इस नेता ने तो अश्लीलता की हद पार कर दी। कुछ लोग तो इन्हे पेटिकोट बाबा कह रहे थे। शोर के बीच जब नेताजी ने तथाकथित झंडे को देखा तो शर्म के मारे पानी पानी हो गए। बस फिर क्या था, गोपाल बाबू का निलंबन। बेचारे गोपाल बाबू, टिकट की आस में कभी ये पार्टी तो कभी वो पार्टी लेकिन अब तो जितना रजिस्टर्ड पार्टी था सब से निकाले जा चुके थे। इस बार इन्होंने ऐलान किया था की जनता से आशीर्वाद लेकर रहेंगे। इस बार के चुनाव में इन्होंने निर्दलीय मैदान में आने का फैसला किया था।
सबसे पहले इन्होंने जाति कार्ड खेला, फिर असंतुष्टों को अपनी ओर खींचा, फिर एक कुबेर रूपी सेठ को अपना मित्र बनाया । चंदा और भीख मांग कर एक संगठन तैयार किया। अब जरूरत था, जनता के सामने जा कर ड्रामा करने का, रो रो कर दुआरे दुआर अपने लिए वोट मांगने का। वो बोलते की फांसी दे दीजिएगा अगर आपके भरोसा पर खरा न उतरूं। नतीजन गोपाल बाबू चुनाव जीत गए। चुनाव जीतने के बाद गोपाल बाबू अपने सपनों की दुनिया में, वातानुकूलित कमरे से किसके लिए बाहर निकलते। तभी तो आज फिर से चुनाव का आचार संहिता लगा है, गोपाल बाबू राजधानी को त्याग कर फिर से जनता के बीच में आएं हैं । शायद फिर से कल्याण हो जाए उनका! क्योंकि वो जानते हैं की जनता को कैसे सहेजा जाता है, दो बोल मीठे बोल कर कैसे अरबों की संपति बनाई जाती है। और जनता, दारू मुर्गा और पांच सौ रुपए में किसी भी ऐरा गैरा, नत्थुखैरा को वोट दे कर लोकतंत्र के मंदिर का देवता बना देते है, फिर वो देवता तभी दर्शन देता है जब वोटरूपी यज्ञ का आयोजन होता है।
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