तेरे मेरे बीच में कैसा है ये भाषा....।

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ब्लॉग प्रेषक: राजीव भारद्वाज
पद/पेशा: व्यंग्यकार
प्रेषण दिनांक: 15-07-2025
उम्र: 37
पता: गढ़वा झारखंड
मोबाइल नंबर: 9006726655

तेरे मेरे बीच में कैसा है ये भाषा....।

पंडित रामसेवक जी पलामू महाविद्यालय में प्राध्यापक थे। मुंबई विश्वविद्यालय के एक दीक्षांत कार्यक्रम में हिंदी भाषा पर व्याख्यान  हेतु उन्हें आमंत्रण प्राप्त हुआ था। इस हेतु वे अतिउत्साहित अपने झोले में चार कुर्ता और जोड़ी का चार पायजामा रख कर निकल पड़े अपने गंतव्य की ओर। निर्धारित समयानुसार मेदिनीनगर लौह पथ गामिनी विश्राम स्थल पहुंच कर लौह पथ गामिनी की प्रतीक्षा करने लगें। अपने निर्धारित समयानुसार लौह पथ गामिनी का आगमन हुआ और पंडित रामसेवक जी अपने आरक्षित स्थान पर विराजमान हो गए। निश्चित समयोपरांत वो मुंबई पहुंच गए। लौह पथ गामिनी विराम स्थल के बाह्य स्थल पर एक ऊष्म पेय पदार्थ स्थल पर पहुंच कर विक्रेता से कहा "दुग्ध शर्करायुक्त प्रयुतउत्पादित वास्पेय का एक प्याला प्रस्तुत कीजिए"।  बस इतना ही उवाचे थे पंडित रामसेवक जी। विक्रेता ने त्वरित दूरभाष पर महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के एक असामाजिक और कर्मठ कार्यकर्ता को सूचित किया कि "आमच्या संस्थेत एक मित्र आला आहे आणि तो बकवास बोलत आहे. तो मराठी माणसांना शिवीगाळ करत असल्याचे दिसते, तो निश्चितच बिहारचा हिंदी भाषिक व्यक्ती असल्याचे दिसते, त्याला धडा शिकवला पाहिजे कारण महाराष्ट्रात फक्त मराठीच बोलली जाईल, दुसरी कोणतीही भाषा बोलली जाणार नाही"  अर्थात  एक बंधु हमारे प्रतिष्ठान पर पधार कर अनाप शनाप बोल रहे हैं। लगता है मराठी मानुष को गाली दे रहे हैं। निश्चित रूप से वो बिहार के हिंदी भाषी लग रहे हैं। इसे सबक सिखाना होगा क्योंकि महाराष्ट्र में सिर्फ मराठी बोली जाएगी कोई अन्य भाषा नहीं।

कुछ ही देर बाद मनसे के गुंडे आएं और मराठी में बोलें कि यहां हिंदी कौन बोल रहा है, महाराष्ट्र में सिर्फ मराठी चलेगी हिंदी नहीं। इतना सुनते ही पंडित रामसेवक जी का हिंदी मचलने लगा और उन्होंने कहां क्यों घृणा है आपको हिंदी से। हमारी हिंदी तो भारत की विराट संस्कृति का प्रतीक है, मां भारती ने इसे बड़ी ममता और दया से अपने अनेक उपकरणों से गढ़ा है। हिंदी भाषा में हिमालय जैसी दृढ़ता है, कश्मीर की फूलों की घाटी में पुष्पित पुष्पों के समान कोमलता है, हिंदी के शब्दों के विचार मानसरोवर के झील के समान गहरे हैं, हिंदी भाषा में चुंबकीय तत्व विराजमान हैं जो सुनने वाले को अपनी तरफ सतत और अनवरत आकर्षित करता हैं, हिंदी भाषा में शक्ति है, भक्ति है, सामर्थ है, बल है, प्रबल है, पराक्रम है, शौर्य है, सरलता है, सहजता है, निर्मलता है, कोमलता है। 

यह बहुत ही अदभुत, विचित्र, कल्पना से परे भाषा है परन्तु आप किंकर्तव्यमूढ़ होकर इतनी सहज भाषा को लेकर विवाद कर रहे हैं। आपको लज्जा नहीं आती।

इतने में एक मराठी गुंडे ने बोलना शुरू किया " ए पकेले केले के सड़ेले छिलके, किंगसाइज के फुके हुए फुल्के, बुलडोजर के पंचर टायर, अंधेरी स्टेशन के फुटपाथ के पायरेटेड सीडी, बासी मक्खन की दुकान, आम के आम गुठली के दाम, लिमिट में बोलने का, हर टाइम सोचने का, अपुन सटक गया तो सटका डालेगा, यहीं टपका डालेगा। मराठी बोल बे, अपुन का बाप ऑर्डर दिया है कि इधर को हिंदी नहीं चलेगा"  और प्राध्यापक महोदय के झोंटा पकड़ के चार हाथ जमा दिया। इस पर पंडित रामसेवक जी ने कहा " प्यारे देशवासी वैसे भी वातावरण में नमी होने के कारण मेरा केश अपने स्थान को काफी हद तक छोड़ चुका है, कृपया आप अपने भुजबल को कष्ट न दें। मराठी गुंडे ने सोचा हिंदी में गाली दे रहा है, लगा बजाड़ बजाड़ के कुटने।  प्राध्यापक जी जितना बचाओ बचाओ बोलते उतना ही हाथ उनके शरीर पर गिरता। जब काम भर कूटा गए तो चाय वाले से बोले बताओं की मराठी में अब रहने दीजिए को क्या बोलते हैं।  चाय वाले के बताने के बाद मराठी में रहने दीजिए बोले तब जाकर उन्हें छोड़ा गया। बेचारे किसी तरह अपने को संभाला और एक बेरोजगार मराठी युवक को एक हजार देकर बोला कि एक दिन के लिए मेरा अनुवादक बन जाओ। मै मौन साधना में जा रहा हूं क्योंकि बुढ़ापे में टूटा हड्डी बहुत मुश्किल से जुड़ता है।

किसी तरह मुंबई विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम में कदम रखा। इनके सूजे चेहरे को देख कर इनका स्वागत किया गया मृत शरीर पर चढ़ाए जाने वाले फूलों से। इनके चालीसा में उद्घोषक द्वारा कहा गया " भाषा किसी बंधनों का मोहताज नहीं, सिर्फ भावनाओं को व्यक्त करना आना चाहिए। क्या मराठी, क्या आंग्ल, क्या तेलुगु और क्या तमिल, भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति को प्रकट करने का एक माध्यम है। तो इस कड़ी में स्वागत करते हैं हिंदी के प्राध्यापक जो झारखंड से चल कर यहां आए हैं। सुनते हैं इनके विचारों को। 

प्राध्यापक महोदय मंच पर आए। अपने सूजे हुए थोबड़े को सही किया और कहना प्रारंभ किया। "जिस तरह मराठों की धरती पर मेरा स्वागत हुआ, वो कल्पना से परे था। दो दिन के रास्ते का थकान और फिर देह का कोना कोना में मिला मसाज, मुझे गौरवान्वित किया। मै आभारी हूं राज ठाकरे जी का जिन्होंने इस प्रकार की मुहिम चलाई है। भाषा क्या है - भाषा  के बारे में जितना कहें कम है, भाषा असीम है, अफीम है, भाषा आलीशान महल है, यह गरीब का झोपड़ा भी है, राजश्री प्रोडक्शन का नदिया के पार भी है, तो राजनीतिक का प्रेम चोपड़ा भी है जो अपने फायदे के लिए हिंसा में लिप्त हो जाता है। भाषा की गहराई देखना है तो मेरे बुसट का बटन खोल कर देखिए इसके निशान कितने गहरे हैं। हम झारखंडी अपने मां को माई बोलते है और मराठी लोग आई। बस भाषा का इतना ही फर्क है। हिंदी भाषी भी मां के कोख से पैदा होते हैं और मराठी भाषी भी। आप सब तनिक विचार कीजिए और दिमाग में लगे फफूंद को साफ कीजिए। मै कहना चाहूंगा कि कोई भी भाषा बहुत ही अदभुद, कल्पना से परे असाधारण होते हैं, परन्तु आज अपने ही देश के लोग किंकर्तव्यविमूढ़ होकर भाषा को नहीं बल्कि भाषाई को चिह्नित कर केवल कुर्सी के लिए माध्यम बना रहे हैं। याद कीजिए जब वयस्कों वाली फिल्में जो तमिल भाषा में होता था, उसे भी हिंदी प्रदेश के लोग बड़े चाव से देखते थे। वहां सिर्फ दृश्य आनंदित करता था, और किसी भी भाषा में आह, ऊह, ईश, आहा बड़ा मज़ा देता है। आप कभी हिंदी साहित्य के महान लेखक मस्तराम को पढ़िए यकीन मानिए आपको हिंदी भाषा से प्रेम हो जाएगा।  खैर मुझे लग रहा है मै विषय से विषयांतर हो रहा हूं। अंतोगत्वा एक ही बात कहूंगा कि किसी में दम हो या न हो हमारी हिंदी भाषा में दस राज्यों का दम है, हिंदी भाषा में अदभुद समन्वय है, सामंजस्य है, समावेश है, जिसका अलग ही परिवेश है, जिस पर फेविकोल सा चिपका अपना देश है, पता नहीं लोगों को क्यों हिंदी भाषा से क्लेश है। हिंदी भाषा बोलने वाले लोगों को अन्यत्र प्रदेशों में गोलकुंदक क्रीड़ा की भांति कूटना अनुचित है। बोलना सब का अधिकार है और बोली सबकी मां। रक्त बहा के सिकंदर तक विश्व विजेता नहीं हो पाया तुम रक्त बहा कर भी देख लो, हिंदी को समाप्त नहीं कर पाओगे। इतना ही कह कर मैं अपनी संयमित वाणी को विराम देता हूं। धन्यवाद। बाकी देश मौज में है और हम भी।

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